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सामाजिक अनुसंधान के प्रमुख सोपान (चरण) कौन-कौन से हैं?
सामाजिक अनुसंधान वैज्ञानिक पद्धति द्वारा शोध प्रश्नों या समस्याओं का विश्वसनीय एवं सम्बद्ध उत्तर प्राप्त करने की एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि सामाजिक अनुसंधान में वैज्ञानिक पद्धति की सम्पूर्ण प्रक्रिया का अनुपालन होता है, जो एक निश्चित एवं अंतः संबद्ध क्रम से गुजरता है। इन्हें हम सामाजिक अनुसंधान के चरण कह सकते हैं। सामाजिक अनुसंधान के प्रमुख चरणों के बारे में निम्न विद्वानों के विचार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
(क) जार्ज ए० लुण्डबर्ग
1. कार्यवाहक उपकल्पना
2. तथ्यों का अवलोकन एवं लेखन
3. तथ्यों का वर्गीकरण
4. सामान्यीकरण
(ख) पीटर एच० मन
1. प्रथम चरण-प्रारम्भिक विचार
2. द्वितीय चरण-प्रारम्भिक विचार का सिद्धान्त से सम्बन्ध जोड़ना
3. तृतीय चरण- उपकल्पना का परिसीमन
4. चतुर्थ चरण – सामग्री का संकलन
5. पंचम चरण – सामग्री का विश्लेषण
6. षष्टम चरण- परिणामों की प्रस्तावना
7. सप्तम चरण- सैद्धांतिक पुनर्निवेशन
(ग) श्रीमती पी० वी० यंग
1. कार्यवाहक उपकल्पना का निर्माण
2. तथ्यों का अवलोकन, संकलन एवं लेखन
3. लिखित तथ्यों का श्रेणीकरण व वर्गीकरण
4. वैज्ञानिक सामान्यीकरण और नियमों का प्रतिपादन
सामान्य वर्गीकरण
(1) प्रारम्भिक विचार एवं समस्या का चयन- सामाजिक अनुसंधान का शुभारम्भ शोध सम्बन्धी विचारों व समस्या के चयन से प्रारम्भ माना जाता है। समस्या के विषय में ही शोध कार्य किया जाता है अर्थात् समस्या के अभाव में शोध कार्य की संकल्पना ही नहीं की जा सकती है। समस्या का चुनाव करते समय यह पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए समस्या प्रायोगिक हो, समस्या से संबंधित साहित्य व आंकड़े प्राप्त किये जा सकें। विषय के विशेषज्ञ व्यक्तियों की सलाह ली जा सकती है। समस्या के चयन का सामाजिक शोध में अत्यधिक महत्व होता है। एकौफ ने उचित ही निष्कर्ष दिया है, “किसी समस्या का ठीक प्रकार से निर्धारण करना उसका आधा समाधान है।” अतः समस्या के चयन व निर्धारण पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(2) सम्बन्धित साहित्य का विवेचन- समस्या के चयन व निर्धारण के तुरन्त बाद समस्या से संबंधित पूर्व शोध कार्यों का गहन अध्ययन करना चाहिए। यह साहित्य शोध कार्य व परिकल्पना निर्माण के लिए मार्गदर्शन देते हैं। साथ ही साथ समस्या के अधिकांश आयामों का भी स्पष्टीकरण हो जाता है। इस विवेचन से समस्या की प्रायोगिकता की पुष्टि हो जाती है।
(3) उपकल्पना का निर्माण- परिकल्पना उत्तर के रूप में एक या दो वाक्यों का कथन होता है अर्थात् इसकी पुष्टि शोध कार्य के आधार पर की जाती है। शोध निष्कर्ष द्वारा परिकल्पना की पुष्टि भी हो सकती है इसका खण्डन भी हो सकता है। उपकल्पना पर पूरा शोध कार्यक्रम आधारित होता है। उपकल्पना की अनुपस्थिति में कोई भी शोध कार्य सम्भव नहीं है। बिना उपकल्पना के शोधकार्य का दम्भ भरना अंधेरे में तीर चलाने के समान है।
(4) यन्त्रों, प्रविधियों आदि का चयन- उपकल्पना के निर्माण हो जाने के बाद तथा तथ्यों के संकलन के पूर्व यह निर्धारित कर लिया जाता है कि शोध विशेष में किन-किन यन्त्रों तथा प्रविधियों का प्रयोग किया जाना उपयुक्त होगा । यन्त्रों, उपकरणों तथा प्रविधियों का चुनाव शोध कार्य, समस्या की प्रकृति व उपकल्पना आदि के द्वारा निर्धारित होती है। यद्यपि सामाजिक अनुसंधान में प्राकृतिक विज्ञानों की तरह उपकरणों का ढेर, प्रयोगशाला की व्यवस्था तो नहीं होती है परन्तु इसमें सामाजिक घटनाओं की प्रकृति के अनुसार अनेक उपकरणों यथा प्रश्नावली, अनुसूची, साक्षात्कार, टेपरिकार्डर, कम्प्यूटर (फ्लापी), यन्त्रों व प्रविधियों के चयन के समय उत्तरदाताओं के शैक्षिक स्तर, आवासीय प्रकृति (बिखराव आदि) सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूकता आदि का ध्यान रखा जाता है।
(5) अध्ययन क्षेत्र – सामाजिक शोध के इस स्तर पर निदर्शन आदि की सहायता से अध्ययन क्षेत्र तथा अध्ययन इकाई का चयन किया जाता है। निदर्शन विधि का प्रयोग करने से अध्ययन इकाइयों के चयन में पक्षपात की सम्भावना नहीं रह पाती है। इसके अतिरिक्त सेंसस अध्ययन में ज्यादा समय व धन की आवश्यकता होती है। निदर्शन द्वारा धन व समय की बचत हो जाती है। अध्ययन क्षेत्र इस तरह का होना चाहिए जो उस प्रकृति की समस्याओं का प्रतिनिधित्व करती है। पूरे समूह
(6) तथ्यों का संग्रह- अध्ययन क्षेत्र व अध्ययन इकाइयों का निर्धारण करने के बाद शोध समस्याओं से प्रासंगिक तथ्यों का संकलन किया जाता है। तथ्यों के संकलन में अनेक प्रविधियां हैं। इसके अतिरिक्त तथ्यों के स्रोत भिन्न-भिन्न हो सकते है। श्रीमती यंग ने स्रोतों को दो भागों में वर्गीकृत किया है- लिखित स्रोत तथा क्षेत्रीय स्रोत।
(7) तथ्यों का विश्लेषण – सामाजिक अनुसंधान में तथ्यों के संकलन के बाद संकलित तथ्यों का विश्लेषण का कार्य किया जाता है। इस चरण में भी अप्रासंगिक या कम प्रासंगिक तथ्यों को नहीं सम्मिलित किया जाता है। मूल रूप से प्रासंगिक आंकड़ों को वर्गीकृत किया जाता है। समान प्रकृति वाले तथ्यों का समूहों में विभाजन कर लिया जाता है। वर्गीकरण के पश्चात तथ्य स्वयं बोल उठते हैं अर्थात् समस्या के बारे में काफी अनुमान लग जाता है। प्रायः इन संकलित तथ्यों को संख्या का रूप दे दिया जाता है। यहाँ पर सांख्यकीय पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है। इन आंकड़ों को शोध की भाषा में संकेत के रूप में परिवर्तित कर लिया जाता है। इस प्रकार कूटबद्ध तथ्यों को सारणीबद्ध कर लिया जाता है। यह दोनों पक्रियायें शोध में अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा उपयोगी स्थान रखती है।
(8) तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन- वैज्ञानिकता की भावना के अनुसार तथ्यों को सारणीबद्ध करके आँख मूंदकर उनके निष्कर्षो पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। सावधानी पूर्वक इन आंकड़ों का पुर्नमूल्यांकन कर लेना चाहिए। इससे गणितीय त्रुटि की संभावना नहीं रह जाती है। इस स्तर पर किसी त्रुटि का पता लगाने पर सुधारा जा सकता है। प्रतिवेदन को तैयार कर लेने के बाद संशोधन करना मुश्किल हो जाता है।
(9) वैज्ञानिक सामान्यीकरण- प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण व पुर्नमूल्यांकन के बाद प्राप्त निष्कर्षो को सामान्यीकृत किया जाता है। चूंकि अध्ययन के लिए चुनी गयी इकाई प्रतिनिधि इकाई थी। अतः इस इकाई विशेष से प्राप्त निष्कर्ष सभी इकाइयों के लिए सत्य होने चाहिए। यदि शोध द्वारा प्राप्त निष्कर्ष अधिकांश इकाइयों के लिए उचित होते हैं तो शोध कार्य को संपन्न मान लिया जाता है। अन्य शब्दों में परिकल्पना का सत्यापन हो जाता है।
(10) सामान्य नियम का प्रतिपादन- उपकल्पना की पुष्टि व सामान्यीकरण की प्रकियाओं के पश्चात (प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर) समस्या विशेष या अध्ययन विशेष के सम्बन्ध में एक सामान्य नियम या सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है।
(11) प्रतिवेदन- सामाजिक शोध में मात्र नियमों का प्रतिपादन ही पर्याप्त नहीं माना जाता है बल्कि सम्पूर्ण शोध कार्य के बारे में सामान्य प्रतिवेदन तैयार किया जाता है। प्रतिवेदन के माध्यम से शोधकार्य के प्रस्तुतिकरण में मदद मिलने के साथ-साथ संग्रहीकरण व सुरक्षा भी मिल जाती है अर्थात् भावी शोध के लिए काम में आ सकती है। यदि शोध कार्य के विभिन्न चरण तितर-बितर होंगे तो यह कार्य सम्भव नहीं हो सकेगा। प्रतिवेदन में शोध के प्रत्येक चरण का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत कर दिया जाता है। प्रतिवेदन को स्पष्ट, सरल व आकर्षक बनाने के लिए सांख्यकीय प्रविधियों का सहारा लिया जा सकता है। स्पष्ट है कि शोधकार्य को करना मात्र ही सब कुछ नहीं है बल्कि शोधकार्य को प्रस्तुत करना भी आवश्यक है ताकि इसका समाज के लिए व्यावहारिक उपयोग होने के साथ-साथ भावी शोध कार्यों में भी योगदान हो सके।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सामाजिक अनुसंधान के चरणों के बारे में विद्वानों के बारे में मतैक्य का अभाव है परन्तु थोड़े बहुत अन्तर के साथ सभी के निष्कर्ष एक ही हैं।
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