गृहविज्ञान

प्रतिवेदन लेखन का अर्थ, उद्देश्य, विषय-सामग्री (अन्तर्वस्तु), विशेषताएं, समस्याएं

प्रतिवेदन लेखन का अर्थ
प्रतिवेदन लेखन का अर्थ

प्रतिवेदन लेखन का अर्थ

सामाजिक अनुसन्धान एवं सर्वेक्षण का अन्तिम चरण प्रतिवेदन का लिखना है। अनुसन्धान द्वारा प्राप्त तथ्यों एवं आंकड़ों का विवेचन करने के बाद उनके निष्कर्षों को प्रतिवेदन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रतिवेदन एक प्रकार से सम्पूर्ण शोध का एक लिखित विवरण होता है। इसमें आरम्भ से अन्त तक शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया, शोध के उद्देश्य, विषय, क्षेत्र, प्रयुक्त पद्धतियों एवं प्रविधियों, संकलित तथ्यों का विवरण, विश्लेषण, व्याख्या, सारणी, ग्राफ, डायग्राम, अध्ययन का निष्कर्ष एवं सुझाव, आदि का उल्लेख किया जाता है। प्रतिवेदन के द्वारा अनुसन्धान कार्य को दूसरों तक पहुँचाया जाता है। इसका उद्देश्य दिये हुए निष्कर्षों की पुष्टि करना है। प्रतिवेदन में दिये गये निष्कर्षों की अन्य वैज्ञानिकों द्वारा पुनर्परीक्षा की जा सकती है। प्रतिवेदन में दिये गये निष्कर्ष एवं सुझाव सामाजिक नियोजन एवं सुधार की रूपरेखा एवं योजना बनाने में सहायक हो सकते हैं। इन सभी कारणों से शोधकार्य का प्रतिवेदन लिखना आवश्यक माना जाता है।

प्रतिवेदन के उद्देश्य

प्रतिवेदन लिखने के उद्देश्यों का उल्लेख करते हुए अमेरिकन मार्केटिंग सोसायटी (American Marketing Society) ने लिखा है, ‘प्रतिवेदन को तैयार करना अनुसन्धानका अन्तिम चरण है, और इसका उद्देश्य रुचि रखने वाले लोगों को अध्ययन के सम्पूर्ण परिणाम को पर्याप्त विस्तार में बतलाना है एवं इस तरह व्यवस्थित करना है जिससे पाठक तथ्यों को समझने और स्वयं के लिए निष्कर्षों’ की प्रामाणिकता का निश्चय करने के योग्य बन जाए। प्रतिवेद सामान्यतः जन-साधारण के लिए लिखा जाता है जब तक कि सर्वेक्षण स्वयं किसी संख्या अथवा व्यक्ति की आज्ञानुसार न किया गया हो। ऐसी स्थिति में प्रतिवेदन का उद्देश्य निष्कर्षों की सत्यंता को जानना होता है। हो सकता है कि सर्वेक्षण द्वारा जो निष्कर्ष प्राप्त किये गये हैं वे भ्रामक हों। प्रतिवेदन के द्वारा अन्य व्यक्ति भी समस्या के प्रति अपने विचार व्यक्त कर सकेंगे। कई बार शोध के परिणाम इतने रुचिकर होते हैं कि अनुसन्धानकर्ता उन्हें दूसरों तक पहुँचाने के लिए उत्सुक होता है, यह कार्य प्रतिवेदन से ही सम्भव हो पाता है। इसके अतिरिक्त, एक बात यह भी है कि जिन-जिन लोगों ने शोध कार्य में धन, समय, श्रम, सुझाव आदि के रूप में सहयोग दिया है, वे यह जानने के इच्छुक होते हैं कि उनके सहयोग का क्या परिणाम निकला। इन सभी कारणों से एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रतिवेदन तैयार करना आवश्यक होता है। इसी सन्दर्भ में हम यहां प्रतिवेदन लिखने के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख करेंगे-

(1) ज्ञान वृद्धि के लिए (For Increasing Knowledge)- प्रत्येक अनुसन्धान के द्वारा विषय से सम्बन्धित नवीन ज्ञान प्राप्त होता है जिसे दूसरों तक पहुँचाना ज्ञान वृद्धि के लिए आवश्यक है। इससे ही ज्ञान का प्रसार एवं विस्तार होता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को अपने तक ही सीमित रखता तो मानव जाति के पास आज ज्ञान का इतना भण्डार नहीं हो पाता और न उसका उपयोग अन्य व्यक्ति कर पाते। प्रतिवेदन के द्वारा अनुसन्धान के नवीन क्षेत्रों, विषय से सम्बन्धित निष्कर्षों और समस्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

(2) अनुसन्धान के परिणामों को दूसरों तक पहुँचाना (To Comunicate the Results of the Research to Others)- प्रतिवेदन लिखने का एक उद्देश्य अनुसन्धान द्वारा प्राप्त निष्कर्षों को दूसरे लोगों तक पहुँचाना भी है। प्रतिवेदन द्वारा उन लोगों को भी विषय के सम्बन्ध में नवीन जानकारी प्राप्त हो जाती है जो शोध में रुचि रखते हैं। कई बार सरकारी और गैर-सरकारी कार्यवाही सर्वेक्षण का प्रतिवेदन आने तक रुकी रहती है। कभी-कभी सरकार किसी योजना को लागू करने से पूर्व भी सर्वेक्षण करवाती है, अतः उसका प्रतिवेदन प्रस्तुत करना आवश्यक हो जाता है। प्रतिवेदन लिखना उन लोगों की दृष्टि से भी आवश्यक है जिन्होंने शोध कार्य में सहयोग दिया। अनुसन्धान के परिणामों को प्रस्तुत करने पर कई बार स्वयं अनुसन्धानकर्ता गौरव का अनुभव करता है। इन सभी दृष्टियों से प्रतिवेदन लिखना आवश्यक हो जाता है जो कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्थायी धरोहर हो जाती है।

(3) निष्कर्षों का प्रमाणीकरण (Validation of Conclusions)– प्रतिवेदन लिखने पर ही अनुसन्धान के निष्कर्ष दूसरे लोगों तक पहुँच पाते हैं, जिनकी जांच करके वे यह जान सकते हैं कि निष्कर्ष यथार्थ और वैज्ञानिक हैं या नहीं, अथवा वे अनुमान पर तो आधारित नहीं हैं, उनमें किस प्रकार के सन्देह की सम्भावना है, आदि। प्रतिवेदन के निष्कर्षों का निरीक्षण एवं पुनर्परीक्षण करके उनकी वैधता एवं अवैधता को सिद्ध किया जा सकता है। प्रतिवेदन के द्वारा हम दूसरों के निष्कर्षों की सत्यता की भी जांच कर सकते हैं। अतः इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी प्रतिवेदन तैयार करना आवश्यक हो जाता है।

(4) भावी अनुसन्धानों के लिए उपयोगी ( Useful for Future researches) – प्रतिवेदन के निष्कर्ष उपकल्पना का काम भी देते हैं और उसके आधार पर भविष्य में अनेक अनुसन्धान किये जा सकते हैं। प्रतिवेदन के द्वारा अनुसन्धान के कई छोटे-छोटे विषयों को संगठित करके सिद्धान्तों का निर्माण किया जा सकता है। भौतिक विज्ञानों का विकास इसी प्रकार के सहकारी प्रयासों से ही हुआ है। ये प्रयास तभी सम्भव हैं जब शोध का विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जाये।

प्रतिवेदन की विषय-सामग्री (अन्तर्वस्तु)

एक प्रतिवेदन में किन-किन बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए, इस बात को लेकर विद्वानों में मतभिन्नता है। फिर जिन विषयों को प्रतिवेदन में स्थान दिया जाता है, वे निम्न हैं-

1. प्रस्तावना (Introduction)- प्रतिवेदन का प्रारम्भ प्रस्तावना से किया जाता है जिसमें विषय के बारे में परिचय, शोध की योजना, महत्व, संगठन, आदि विषयों का संक्षेप में विवरण दिया जाता है। प्रस्तावना में शोध में आने वाली कठिनाइयों एवं उनके समाधान का भी उल्लेख किया जाता है। प्रस्तावना में शोध करने वाली संस्था, विभाग संचालक एवं कार्यकर्त्ताओं का परिचय, शोध में व्यय की गयी धनराशि एवं समय, शोध में परामर्श एवं सहयोग देने वाली संस्थाओं, विभागों व्यक्तियों का भी उल्लेख किया जाता है और उनके प्रति आभार प्रदर्शित किया जाता है।

2. समस्या का विवरण (Statement of the Problem)- प्रतिवेदन में अनुसन्धान समस्या के बारे में परिचय दिया जाता है। इसमें समस्या के अध्ययन की आवश्यकता, उसके चुनाव के आधारों, समस्या के अध्ययन के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक लाभों, उससे सम्बन्धित पूर्व में किये गये अनुसन्धानों आदि की जानकारी दी जाती है। समस्या के वर्णन से हमें उसकी प्रकृति सीमाओं एवं समस्त पहलुओं का ज्ञान हो जाता है।

3. अध्ययन का उद्देश्य (Purpose of the Study)– प्रतिवेदन में अनुसन्धान के उद्देश्यों का भी उल्लेख किया जाता है। अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक लाभ एवं शुद्ध सैद्धान्तिक जानकारी प्राप्त करना हो सकता है। अनुसन्धान के उद्देश्य से यह स्पष्ट किया जाता है कि इसके पीछे उनका उद्देश्य ख्याति, भौतिक लाभ, नवीन तथ्यों की खोज व नवीन ज्ञान की प्राप्ति, आदि में से क्या रहा है। यदि अनुसन्धान का संचालन किसी सरकारी संस्था द्वारा किया गया है तो उसके उद्देश्यों का भी प्रतिवेदन में उल्लेख किया जाता है।

4. अध्ययन क्षेत्र (Area of Study)- प्रतिवेदन में समस्या का अध्ययन किस क्षेत्र से सम्बन्धित है, इसका भी उल्लेख किया जाता है। इसके अन्तर्गत उन गांवों, नगरों, भौगोलिक क्षेत्रों, जातियों, वर्गों एवं समुदायों का उल्लेख किया जाता है जिनमें उस समस्या के बारे में शोध किया गया है। इस क्षेत्र की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, जनसंख्यात्मक, धार्मिक एवं राजनीतिक दशा, आदि का भी वर्णन किया जाता है।

5. अध्ययन पद्धतियां (Methods of Study)- प्रतिवेदन में इस बात का भी उल्लेख किया जाता है कि समस्या का अध्ययन तथ्यों एवं सूचनाओं का संकलन किन विधियों द्वारा किया गया है, और वे ही विधियां क्यों अधिक उपयुक्त रही हैं। अध्ययन में प्राप्त प्राथमिक एवं द्वैतीयक तथ्यों के स्रोत क्या रहे हैं, उनका भी परिचय दिया जाता है। अध्ययन हेतु प्रश्नावली, अनसूची, अवलोकन, साक्षात्कार एवं वैयक्तिक अध्ययन, आदि में से किस विधि का प्रयोग किया गया, इसका भी उल्लेख किया जाता है।

6. निदर्शन चयन (Selection of Sample)- प्रतिवेदन में अनुसन्धानकर्ता निदर्शन की मात्रा एवं उस विधि का भी उल्लेख करता है जिसका प्रयोग उसने निदर्शन के चयन में किया है। साथ ही यह भी बताया जाता है कि निदर्शन चयन की वही विधि उपयुक्त क्यों है। चुना हुआ निदर्शन समग्र का सही प्रतिनिधित्व करता है या नहीं, निदर्शन का आकार और समग्र में उसके अनुपात, आदि को भी प्रतिवेदन में स्पष्ट किया जाता है।

7. सर्वेक्षण का संगठन (Organization of Survey)- प्रतिवेदन में सर्वेक्षण के संगठन का भी संक्षिप्त वर्णन किया जाता है जिसमें कई बातों का उल्लेख किया जाता है, जैसे—यदि स्थल निरीक्षण विधि अपनायी गयी है तो स्थल या घटना का चुनाव कैसे किया गया, कार्यकर्ताओं का चुनाव एवं उनके प्रशिक्षण कार्य का निरीक्षण, प्रश्नावलियों एवं अनुसूचियों का एकत्रीकरण कैसे किया गया, उनकी शुद्धता की चांज कैसे की गई, तथ्यों का सम्पादन, संकेतन आदि का विवरण दिया जाता है जिसके कारण लोग प्राप्त आंकड़ों की वैधता का अनुमान लगा सकते हैं।

8. विश्लेषण एवं निष्कर्ष ( Analysis and Results)- प्रतिवेदन में संकलित आंकड़ों को सारणियों के रूप में प्रदर्शित किया जाता है तथा अंकों को ग्राफ, चार्ट एवं चित्रों के माध्यम से प्रकट किया जाता है। तथ्यों को मात्र एकत्रित करने से ही कोई विशे, प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, अतः उनका वर्ण और विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण के दौरान घटनाओं और परिणामों के बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध जोड़ा जाता है। अध्ययन के निष्कर्षो को प्रस्तुत करते समय उनके आधारों व तर्क एवं प्रमाणों का भी उल्लेख किया जाता काम में लिया गया है तो उसके स्रोतों का भी उल्लेक किया जाता है। यदि द्वैतीयक सामग्री को प्रतिवेदन में परिणामों के साथ-साथ शोध की प्रमुख विशेषताओं, मुख्य-मुख्य बातों एवं निष्कर्षो का सार भी दिया जाना चाहिए।

9. सुझाव (Suggestions)- प्रतिवेदन में सुझाव भी अवश्य दिये जाने चाहिए। जब अनुसन्धान सरकार या किसी संस्था द्वारा करवाया जाता है तो सुझाव देना आवश्यक होता है। जब अध्ययन का सम्बन्ध किसी समस्या से हो, जैसे बेकारी, गरीबी अपराध, जनसंख्या वृद्धि, आदि से से तो ऐसे रचनात्मक सुझाव दिये जाने चाहिए जिनसे समस्याओं पर नियन्त्रण पाया जा सके, उन्हें रोका जा सके एवं उनका हल सम्भव हो सके। सुझाव सदैव प्रतिवेदन के अन्त में दिये जाने चाहिए और वे व्यावहारिक होने चाहिए। सुझाव ऐसे भी हो सकते हैं जो अनुसन्धानकर्ता के अनुभव पर आधारित हों या अध्ययन के दौरान सूचनादाताओं द्वारा दिये गये हो।

10. संलग्न सूचना (Appendices)– प्रतिवेदन के अन्त में कुछ आवश्यक अन्य सूचनाएँ भी दी जा सकती हैं। इनमें प्रश्नावली व अनुसूची की प्रति, कोई दस्तावेज, लेख, विवरण, चार्ट, तालिका, आदि हो सकते हैं जिनका उल्लेख प्रतिवेदन में किया गया है। ऐसे समस्त विवरण जो प्रवाह तथा क्रम के लिहाज में मुख्य प्रतिवेदन के साथ में नहीं दिये जाते, प्रायः अन्त में ही दिये जाते हैं। ऐसी सुचनाएँ अनुसन्धान की सत्यापनशीलता को प्रकट करती है जिनका उपयोग पाठकगण कर सकते हैं।

हमने प्रतिवेदन लिखने का एक क्रम प्रस्तुत किया है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी अनुसन्धानकर्ता इसका पालन करें। यह तो स्वयं शोधकर्ता पर निर्भर है कि वह प्रतिवेदन किस प्रकार से तैयार करे जिससे कि वह अधिक उपयोगी, आकर्षक एवं अनुकरणीय बन सके।

एक आदर्श प्रतिवेदन की विशेषताएं

एक आदर्श प्रतिवेदन की निम्नांकित विशेषताएं होनी चाहिए-

1. प्रतिवेदन को आकर्षक बनाने के लिए सफेद कागज पर टाइप किया जा सकता है, छापा या साईक्लोस्टाइल किया जा सकता है। इसमें शीर्षकों, उपशीर्षकों, चित्रों, फोटों एवं ग्राफ, आदि का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया जाना चाहिए।

2. प्रतिवेदन की भाषा सरल, स्पष्ट और सुग्राह्य होनी चाहिए। मुहावरेदार, लच्छेदार एवं अतिशयोक्तिपूर्ण भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यद्यपि कई बार पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भी आवश्यक होता है क्योंकि उसके अभाव में प्रतिवेदन में गम्भीरता दिखायी नहीं देती, ऐसी स्थिति में पाठकों को अपना स्तर ऊंचा करना पड़ेगा और विषय का समुचित ज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा।

3. प्रतिवेदन में तथ्यों का विश्लेषण तार्किक वैज्ञानिक आधार पर किया जाना चाहिए जिससे यह न लगे कि प्रतिवेदन कल्पना और आदर्शों पर आधारित है। प्रायः लोगों को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की आदत होती है और वे अलंकार युक्त साहित्यिक भाषा का प्रयोग करते हैं जो कि उचित नहीं कहा जा सकता।

4. एक ही प्रकार के तथ्यों को बार-बार नहीं दोहराया जाना चाहिए।

5. सूचना के स्रोतों का उल्लेख किया जाना चाहिए ताकि यदि कोई व्यक्ति स्रोतों के आधार पर सत्यता की जांच करना चाहे तो कर सकता है।

6. एक अच्छी रिपोर्ट व्यावहारिक भी होनी चाहिए जिसे पढ़कर लोग अधिकाधिक लाभ उठा सकें।

7. एक उत्तम प्रतिवेदन में अध्ययन पद्धति, अध्ययन क्षेत्र, निदर्शन, आदि का भी उल्लेख किया जाना चाहिए।

8. आदर्श प्रतिवेदन में अध्ययन के दौरान आने वाली समस्याओं एवं कमियों का भी उल्लेख होना चाहिए ताकि भविष्य में अनुसन्धान करने वालों का मार्गदर्शन हो सके।

9. आदर्श प्रतिवेदन में नवीन अवधारणाओं एवं सिद्धान्तों के प्रतिपादन का प्रयत्न भी किया जाता है।

10. आदर्श प्रतिवेदन में उपयोगी एवं रचनात्मक सुझावों का भी उल्लेख किया जाता

प्रतिवेदन की समस्याएं

एक प्रतिवेदन के लेखन में अनेक प्रकार की कठिनाइयां आती है, उनमें से कुछ प्रमुख कठिनाइयां निम्नांकित हैं-

1. भाषा की समस्या (Problem of Language)- प्रतिवेदन लिखते समय सबसे पहली समस्या यह आती है कि किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जाय अर्थात वह साधारण बोल-चाल की भाषा हो, साहित्यिक भाषा हो या परिभाषिक। सरल भाषा होने पर प्रतिवेदन का स्तर गिर जाता है और ओछापन दिखायी देता है, यदि साहित्यिक व पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया जाता है तो प्रतिवेदन क्लिष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि जरूरी होने पर ही पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया जाय अन्यथा उसे सरल एवं बोधगम्य भाषा में ही लिखा जाना चाहिए।

2. पारिभाषिक शब्दों की समस्या (Problem of Technical Words)- प्राकृतिक विज्ञानों में तो इस प्रकार के पारिभाषिक शब्द हैं जिनका प्रयोग अब सर्वत्र ही एक ही अर्थ में किया जाता है किन्तु समाज विज्ञानों में ऐसे शब्दों का अभाव है। फिर इन शब्दों को लेकर भी समाज-वैज्ञानिकों में मतभेद है। इसके परिणामस्वरूप प्रतिवेदन की शब्दावली बहुअर्थक बन जाती है, और प्रतिवेदन का उद्देश्य अपूर्ण रह जाता है।

3. ज्ञान स्तर की समस्या (Problem of Intelectual Level)- प्रतिवेदन की एक समस्या यह है कि उसका स्तर कैसा होना चाहिए अर्थात वह जनसाधारण के लिए लिखा जाय या विशेषज्ञों के लिए। भारत जैसे देश में जहां शिक्षित लोगों का प्रतिशत बहुत कम है, आम जनता के लिए प्रतिवेदन लिखना तो और भी कठिन है। यद्यपि प्रतिवेदन में चित्रों, फोटो एवं ग्राफ्स के माध्यम से निष्कर्षों को इस प्रकार प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया जाता है कि साधारण पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी उसे समझ सके। फिर भी इस प्रकार का प्रतिवेदन तैयार करना एक कठिन कार्य है जो सभी स्तर के लोगों के लिए समान रूप से उपयोगी हो।

4. अवधारणाओं की समस्या (Problem of Concepts)– अवधारणाओं के द्वारा बड़े-बड़े या विस्तृत बातों को कुछ ही शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है। समाज विज्ञानों में अवधारणाओं का अभाव है और उनका पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है, अतः छोटी-छोटी बातों को समझाने के लिए अनावश्यक विस्तृत विवरण देना होता है जिसमें समय, धन और श्रम नष्ट होता है।

5. वस्तुनिष्ठता की समस्या (Problem of Objectivity)- शोधकर्ता का यह उद्देश्य होता है कि उसके प्रतिवेदन में मिथ्या झुकाव या पक्षपात का समावेश न हो, लेखक के विचारों, भावनाओं, आदर्शों एवं मूल्यों का उस रंग न चढ़े वरन् स्थितियां जैसी हैं, उनका उसी ” रूप में तटस्थ भाव से उल्लेख किया जाय। फिर भी यह असम्भव प्रतीत होता है कि अध्ययनकर्ता का विषय के प्रति कोई लगाव न हो और वह अपनी भावनाओं एवं पक्षपात से परे रहकर प्रतिवेदन लिखले। ऐसी स्थिति में प्रतिवेदन में वस्तुनिष्ठता और वैज्ञानिकता नहीं आ पाती।

6. सत्य कहने की समस्या (Problem of Telling the Truth) – प्रतिवेदन की एक गम्भीर समस्या सच कहने की है। कई समस्याएं ऐसी होती हैं कि यदि उनके बारे में सच- सच कहा जाता है तो उसका प्रभाव समाज के किसी न किसी वर्ग पर अवश्य पड़ता है, आधिकारीगण, सरकार और लोग नाराज हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में लोग शोधकर्ता के साथ बदले की भावना से भी काम कर सकते हैं, उस पर झूठा दोषारोपण कर उसे फंसाने हेतु जाल रचा जा सकता है। ऐसी स्थिति में लोग प्रतिवेदन में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। अतः प्रतिवेदन की एक समस्या सत्य को उजागर करने की भी है।

सारांश में यह कहा जा सकता है कि प्रतिवेदन लिखना एक कला है। इसके लिए ज्ञान के साथ-साथ भाषा की जानकारी, आत्म-नियन्त्रण, सच्चाई कहने की क्षमता, अनुभव एवं सैद्धान्तिक जानकारी आवश्यक है।

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About the author

shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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