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ब्रूनर के खोज अधिगम सिद्धान्त (Discovery learning theory of Bruner)
संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन जे० एस० ब्रूनर द्वारा किया गया है इन्होंने पियाजे के सिद्धांत की अपेक्षा अपने सिद्धांत को अधिक उन्नत बनाने की कोशिश की है ब्रूनर ने मूलतः दो प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में अधिक रुचि दिखाई है-
(i) शिशु किस ढंग से अपनी अनुभूतियों को मानसिक रूप से बताते हैं।
(ii) शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में बालकों का मानसिक चिंतन कैसे होता है?
ब्रूनर के अनुसार, शिशु अपनी अनुभूतियों को मानसिक रूप से तीन तरीकों द्वारा बताता है— (i) सक्रियता, (ii) दृश्य प्रतिमा, (iii) सांकेतिक।
(i) सक्रियता – यह एक ऐसा तरीका है जिसमें शिशु अपनी अनुभूतियों को क्रिया द्वारा व्यक्त करता है। जैसे—दूध की बोतल देखकर शिशु द्वारा मुँह चलाना, हाथ-पैर फेंकना एक सक्रियता विधि का उदाहरण है। इसके द्वारा वह दूध पीने की इच्छा की अभिव्यक्ति कर रहा है।
(ii) दृश्य प्रतिमा विधि— इसमें बालक अपने मन में कुछ दृश्य प्रतिमाएँ बनाकर अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है।
(iii) सांकेतिक- इसमें बालक भाषा के व्यवहार द्वारा अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है।
ब्रूनर ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि इन तीनों संप्रत्यय का विकास एक क्रम में होता है। जन्म से करीब 18 महीनों तक सक्रियता विधि, डेढ़ वर्ष या दो वर्ष की उम्र 1 तक दृश्य प्रतिमा तथा लगभग 7 साल की उम्र से सांकेतिक विधि की प्रधानता होती है।
ब्रूनर तथा केनी ने एक प्रयोग कर यह दिखाया है कि बालकों में पहले दृश्य प्रतिमा विधि की प्रबलता होती है और बाद में सांकेतिक विधि की। प्रयोगकर्ताओं ने 3 x 3 मैट्रिक्स में 9 प्लास्टिक के गिलास को दिये गये चित्र के अनुसार सजाकर बालकों के सामने रखा। बालकों के समूह में पाँच से सात साल तक की उम्र के बालक थे। इस मैट्रिक्स की विशेषता यह थी कि खड़े किनारों पर के गिलास नीचे से ऊपर की दिशा में लम्बाई में बढ़ते थे तथा पड़े किनारों पर के गिलास बाईं ओर से दाईं ओर बढ़ने में चौड़ाई में बढ़ते थे। कुछ मिनट तक मैट्रिक्स को दिखाने के बाद सभी गिलासों को इधर-उधर बिखेर दिया जाता था। बालकों को अभी-अभी देखे गए मैट्रिक्स के समान गिलासों को सुव्यवस्थित कर डिजाइन को हु-ब-हु दोबारा बनाना होता था। इसके बाद फिर प्रयोगकर्ताओं द्वारा सभी 9 गिलासों से बनने वाले मैट्रिक्स का एक नया डिजाइन बनाया गया जिसमें दाईं ओर के तीनों सबसे अधिक चौड़े, गिलासों को बाईं ओर तथा दाईं ओर के तीन सबसे कम चौड़े गिलास को दाईं ओर रखा गया और बालकों से पहले देखे गए मूल डिजाइन के समान मैट्रिक्स तैयार करने को कहा गया। इस तरह इस दूसरी बार में बालकों को एक तरह से गिलासों को पक्षान्तरित करना था। प्रयोग के परिणाम में देखा गया कि पहले कार्य में अर्थात हु-ब-हु दोबारा बनाने के कार्य में अधिक बालकों (जिनकी उम्र 5 से 7 साल की थी) को सफलता मिली। परन्तु, दूसरे कार्य में अर्थात् पक्षान्तरण कार्य में 5 साल की उम्र के सभी बालक असफल रहे तथा 6 साल की उम्र के कुछ ही बालकों को सफलता मिल पाई परन्तु 7 साल के अधिकतर बालकों को अच्छी सफलता मिली। ब्रूनर के अनुसार 5 साल के बालकों में असफलता का मूल कारण यह था कि उनमें सांकेतिक विधि से अर्थात् भाषा द्वारा अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने की क्षमता नहीं विकसित हुई थी। वे मूलतः दृश्य प्रतिमा विधि का प्रयोग कर रहे थे जो कि पक्षान्तर कार्य के लिए अनुपयुक्त था परन्तु दृश्य प्रतिमा से उन्हें हु-ब-हू दोबारा मैट्रिक्स बनाने में काफी मदद मिली थी। शायद यही कारण है कि उन्हें इस कार्य में सफलता हाथ लगी । 6 साल के कुछ ही बालकों को पक्षान्तरण कार्य में सफलता मिली। स्पष्टतः ऐसे बालकों में अपनी अनुभूतियों को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति की क्षमता विकसित हो गई थी । परन्तु, 7 साल के सभी बालकों में चूँकि भाषा प्रयोग की क्षमता काफी विकसित हो गई थी, इसलिए उन्हें पक्षान्तरण कार्य पर सफलता मिल रही थी। उस उम्र के बालकों के मन में एक शाब्दिक नियम उत्पन्न हो गया था कि “सभी लम्बे गिलास एक तरह से रखे गए हैं और सभी चौड़े गिलास दूसरी तरह से रखे गए हैं।” इस ढंग का शाब्दिक नियम पाँच साल के बालकों में नहीं था तथा 6 साल के सिर्फ कुछ ही बालकों में था। अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि बालकों के संवेगात्मक विकास में दृश्य प्रतिमा पहले विकसित होती है तथा सांकेतिक का प्रयोग बाद में होता है।
ब्रूनर के सिद्धान्त के उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि ब्रूनर ने भी पियाजे के समान ही संज्ञानात्मक विकास को एक क्रमिक प्रक्रिया माना है तथा बालकों के चिन्तन में संकेत तथा प्रतिमा को महत्त्वपूर्ण माना है। ब्रूनर के सिद्धान्त की व्याख्या पिजाये के सिद्धान्त की प्रथम तीन अवस्थाओं के समानान्तर है। इसके बावजूद ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास में भाषा को पियाजे की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है। ब्रूनर के अनुसार बालकों के चिन्तन में भाषा की अहमियत अधिक होती है। पियाजे के सिद्धान्त में बालकों के चिन्तन में उसकी परिपक्वता एवं अनुभूतियाँ तुलनात्मक रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं।
ब्रूनर का सीखने का सिद्धान्त
जीरोम ब्रूनर का सीखने का सिद्धान्त आधुनिक संगठनात्मक सिद्धान्त की श्रेणी में रखा गया है।
ब्रूनर के सिद्धान्त के अनुसार, सीखना – सक्रिय रूप से सूचना को प्रक्रियाबद्ध करना है और इसका संगठन और संरचना प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने अनोखे ढंग से किया जाता है। संसार के सम्बन्ध में ज्ञान, न कि व्यक्ति में उँडेल दिया जाता है, वरन् व्यक्ति चयनित रूप से वातावरण की प्रक्रिया की ओर ध्यान केन्द्रित करता है और जो सूचना प्राप्त करता है, उसे संगठित करता है और इस सूचना का संकलन अपने अनूठे ढंग से वातावरण के प्रतिमानों में करता है, तथ्य अर्जित किये जाते हैं तथा संचित किये जाते हैं सक्रिय प्रत्याशाओं के रूप में, न कि निष्क्रिय सम्बन्धों में। साथ ही? बहुत कुछ सीखना खोज के द्वारा होता है जो इस छानबीन के दौरान कौतूहल द्वारा अनुप्रेरित होता है।
प्रत्यक्षीकरण संगठित होते हैं और सक्रिय रूप से अनुमानात्मक होते हैं। नये ज्ञान का रेखाचित्र विभिन्न वर्गों में खींचा जाता है ताकि यह तर्कपूर्ण रूप से नये ज्ञान के साथ सम्बन्धित हो जाए। अन्तिम रूप से जब ज्ञान का चित्रण एक बड़ी संरचना में किया जाता है जो व्यक्ति का अपना निजी यथार्थता का मॉडल बन जाता है। इसमें बाहरी वातावरण का ज्ञान और साथ-साथ आत्म-सम्बन्धी ज्ञान तथा व्यक्तिगत अनुभव सम्मिलित होते हैं, जिससे सबका संगठन एक गेस्टाल्ट या पूर्ण इकाई में हो जाता है।
ब्रूनर ज्ञान के प्रस्तुतीकरण के सम्बन्ध में तीन पक्षों का वर्णन करता है। यह विचार पियाजे के विकासात्मक स्तरों से मिलता-जुलता है।
ब्रूनर के अनुसार, बुद्धि स्तर अथवा आयु स्तर की ओर बिना ध्यान दिये हुए भी यह कहा जा सकता है सीखने वाले अपने ज्ञान में विस्तार परिकल्पनाओं को बनाकर और उनका परीक्षण करके कर सकते हैं। यह सबसे अधिक स्पष्ट खोज अथवा अन्वेषण सीखने में होता है, किन्तु ब्रूनर का विश्वास है कि शिक्षकों द्वारा सीधे सिखाये जाने वाले कार्यों में भी विद्यार्थियों की सक्रियता को ज्ञान प्राप्त करने में प्रोत्साहन देना चाहिए। ऐसा करने का मार्ग यह है कि विद्यार्थियों के समक्ष विभिन्न विचार पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत किए जाएँ। विभिन्न प्रकार से तथा विभिन्न संप्रत्यय सम्बन्धी उदाहरण प्रस्तुत किए जाने चाहिए।
ब्रूनर इस बात पर भी बल देता है कि शिक्षकों को अवबोधन को बढ़ाने की भी चेष्टा करनी चाहिए। इससे तात्पर्य है कि अलग-अलग ज्ञान के टुकड़ों समन्वित अवधारणाओं में बांधना, सिद्धान्तों को संगठित करना, कारण और प्रभाव की व्याख्या करना और सीखने वाले को अन्य सहायक सामग्री जुटाना ताकि उनको यह समझने में सहायता मिल सके कि किस प्रकार से वस्तुएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। ब्रूनर सीखने को उद्देश्य केन्द्रित मानता है जो सीखने वाले की जिज्ञासा को संतुष्ट करता है। वह सीखने वाले को सक्रिय प्राणी मानता है जो अपनी सक्रियता द्वारा सूचना या ज्ञान का चयन करता है, रूप देता है, धारण करता है और इस प्रकार से परिवर्तित करता है कि कुछ निश्चित उद्देश्य प्राप्त हो जाएँ। ब्रूनर शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानात्मक विकास मानता है और वह इस बात पर बल देता है कि शिक्षा की अन्तर्वस्तु को समस्या हल की क्षमता खोज और अन्वेषण द्वारा बढ़ानी चाहिए।
ब्रूनर के विचार में ज्ञानात्मक प्रक्रिया लगभग एक साथ होने वाली तीन प्रक्रियाओं को प्रकट करती है जो अग्र प्रकार से हैं-
(i) नवीन ज्ञान अथवा सूचना का ग्रहण करना,
(ii) अर्जित ज्ञान का रूपान्तरण, एवं
(iii) ज्ञान की पर्याप्तता की जाँच।
ब्रूनर सीखने में स्वायत्तता पर बल देता है। वह सुझाव देता है कि जब विद्यार्थी को अन्वेषण की क्रिया द्वारा सिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, तो वह सीखने के लिए अधिक प्रयास करेगा। स्वायत्तता में उसे आनन्द आएगा और सीखने की स्वतन्त्रता स्वयं में ही उसका पुरस्कार बन जाएगी। दूसरे शब्दों में, विद्यार्थी स्वयं अपने आप ही अपने को अनुप्रेरणा प्रदान करेगा । ब्रूनर शिक्षक की भूमिका यह मानता है कि वह ऐसा वातावरण विद्यार्थियों के लिए निर्मित करे कि जिसमें विद्यार्थी अपने प्रयास से ही बहुत कुछ सीखने का प्रयास करें। संक्षेप में, इस सिद्धान्त को निम्नलिखित सोपानों के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है-
1. अन्तर्दर्शी चिन्तन- ब्रूनर का मत है कि कक्षा शिक्षण में शिक्षकों द्वारा अन्तर्दर्शी चिन्तन पर विश्लेषणात्मक चिन्तन की अपेक्षा बहुत कम ध्यान दिया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि अन्तर्दर्शी चिन्तन का महत्त्व विषय-वस्तु को सीखने में कहीं अधिक है। किसी विषय वस्तु के तात्कालिक बोध या संज्ञान को ही अन्तर्दर्शन कहा जाता है। ब्रूनर के अनुसार अन्तर्दर्शी समझ या ज्ञान को शिक्षक प्रोत्साहित न करके हतोत्साहित करते देखे गए हैं। ब्रूनर के शब्दों में, अन्तर्शदर्शन से तात्पर्य वैसे व्यवहार से होता है, जिसमें अपने विश्लेषणात्मक उपायों पर बिना किसी तरह की निर्भरता दिखाए ही किसी परिस्थिति या समस्या की संरचना, अर्थ एवं महत्त्व से समझा जाता है। अक्सर देखा गया है कि शिक्षक छात्रों में विश्लेषणात्मक चिन्तन पर अधिक बल डालते हैं। वे छात्रों को कोई समस्या के समाधन करने के लिए देते हैं और उसके तात्कालिक उत्तर देने के प्रयास को प्रोत्साहित नहीं करते, बल्कि उसे सोच-समझकर एक-एक कदम आगे बढ़कर समस्या का समाधान करने पर बल डालते हैं। दूसरे शब्दों में, शिक्षक छात्रों में अन्तर्दर्शी चिन्तन को हतोत्साहित करते हैं तथा विश्लेषणात्मक चिन्तन को प्रोत्साहित करते हैं। इससे कक्षा के शिक्षण की गति मन्द हो जाती है।
2. विषय-विशेष की संरचना – ब्रूनर का मत है कि प्रत्येक विषय या पाठ के कुछ विशेष संप्रत्यय, नियम तथा प्रविधियाँ होती हैं जिसे छात्रों को सीखना आवश्यक है, क्योंकि तब ही वे उन चीजों का सही-सही प्रयोग कर सकते हैं। इस तरह ब्रूनर का मत था कि प्रत्येक विषय की अपनी एक संरचना होती है और स्कूल के छात्रों के लिए इस संरचना को सीखना आवश्यक है। शिक्षकों को इन संरचनाओं को अर्थात् उसके संप्रत्यय, नियम एवं प्रविधियों को सिखाने पर अधिक बल डालना चाहिए।
3. अन्वेषणात्मक सीखना- ब्रूनर ने इस बात पर बल दिया है कि कक्षा में किसी विषय या पाठ को सीखने की सबसे उत्तम विधि अन्वेषणात्मक सीखना है। दूसरे शब्दों में, छात्र को किसी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर स्वयं ही आगमनात्मक चिन्तन करके विषय से सम्बन्धित संप्रत्ययों एवं सम्बन्धों की खोज करनी चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षकों को इस नियम में विश्वास रखना चाहिए कि ज्ञान आत्म-अन्वेषित होता है। ऐसा ज्ञान जो छात्रों द्वारा आत्म-अन्वेशित होते हैं, उनके लिए अधिक सार्थक होते हैं तथा साथ-ही-साथ वे अधिक दिनों तक याद रखे जाते हैं। ब्रूनर ने तो यहाँ तक कहा है कि ऐसी कक्षा जिसमें छात्रों द्वारा कोई आत्म-अन्वेषित सीखना नहीं होता है, उसमें शिक्षण प्रक्रिया के मूल तत्त्व की कमी तो होती ही है, साथ-ही-साथ पढ़ाए गए विषय का सीखना भी ठीक ढंग से नहीं हो पाता है।
4. संबद्धता का महत्त्व- बूनर के अनुसार स्कूल शिक्षण का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य छात्रों को भविष्य में लाभ पहुँचाना होता है। दूसरे शब्दों में, छात्रों को भविष्य में उपयोगी कार्य करने में मदद करने से है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दी रेलिवेन्स ऑफ एजुकेशन’ में ब्रूनर ने दो तरह की संबद्धता का वर्णन किया है— सामाजिक संबद्धता तथा व्यक्तिगत संबद्धता। ब्रूनर के अनुसार शिक्षा सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के भी अनुरूप होनी चाहिए। उनका मत था कि स्कूल में दिये जाने वाले शिक्षण का सम्बन्ध सामाजिक संबद्धता तथा व्यक्तिगत संबद्धता है। ब्रूनर के अनुसार शिक्षा सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के भी अनुरूप होनी चाहिए। उनका मत था कि स्कूल में दिये जाने वाले शिक्षण का सम्बन्ध व्यक्तिगत संबद्धता तथा सामाजिक संबद्धता, दोनों से होता है।
5. तत्परता- ब्रूनर ने बालकों के सीखने की तत्परता की एक भिन्न दृष्टिकोण से व्याख्या की है । उनका विचार है कि प्रत्येक वर्ग के लिए पाठ्यक्रम तैयार करके छात्रों को उस पाठ्यक्रम के अनुसार तत्पर बनाना या उस पाठ्यक्रम के अनुसार उनमें क्षमता विकसित करना एक स्वस्थ प्रथा नहीं है, बल्कि उन्होंने इस बात पर अधिक बल दिया है कि उम्र या वर्ग के छात्र को कोई भी विषय सीखने के लिए तत्पर किया जा सकता है। अतः ब्रूनर के अनुसार शिक्षकों का प्रमुख कार्य छात्रों के अनुरूप पाठ्यक्रम को तैयार करना होता है।
6. सक्रियता- ब्रूनर का कहना था कि छात्रों को सीखने की परिस्थिति में निष्क्रिय न होकर सक्रिय ढंग से भाग लेना चाहिए। इसके दो लाभ होते हैं—पहला तो यह कि छात्र विषय या पाठ को ठीक ढंग से समझ जाता है तथा दूसरा यह कि उसे वह जल्द सीख लेता है तथा अधिक दिनों तक याद किए रहता है। बिना सक्रियता के छात्र से किसी भी कार्य को संतोषजनक रूप से किये जाने की आशा नहीं की जा सकती ।
ब्रूनर के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ
ब्रूनर के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ इस प्रकार हैं-
(1) अध्यापक नये ज्ञान को उससे सम्बन्धित चित्र, रूपरेखा तथा सूत्रों के द्वारा छात्रों के समक्ष व्यवस्थित क्रम में प्रस्तुत कर सकता है
(2) अध्यापक विभिन्न स्रोतों से नये ज्ञान का अर्जन करके, उसे छात्रों तक पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न करता है, ताकि छात्र अपनी क्षमताओं के अनुरूप उसे ग्रहण कर सकें।
(3) अध्यापक छात्रों के सम्मुख समस्या को इस तरह प्रस्तुत करता है कि थोड़े से मार्ग-दर्शन से वे समस्या का स्वयं समाधान खोज लेते हैं।
(4) छात्र निष्क्रिय श्रोता नहीं बने रहते, बल्कि उन्हें समस्या का समाधान स्वयं करके नये ज्ञान को प्राप्त करने के अवसर मिल जाते हैं।
(5) अधिगम को चिन्तन प्रधान बनाने के प्रयास किए जा सकते हैं।
(6) छात्रों में आगमन चिन्तन विकसित करके समस्या समाधान के लिए अंतर्दृष्टि उत्पन्न करने का प्रयास किया जा सकता है।
(7) ब्रूनर का मानना है कि छात्रों को जटिल विषय भी आसानी से पढ़ाये जा सकते हैं। यदि शिक्षक उनको छात्रों के सम्मुख सरलतम तरीके से प्रस्तुत करे।
(8) शिक्षक को ज्ञान इस तरह से पुनर्गठित करना चाहिये, जिससे यह छात्रों की सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप महत्त्वपूर्ण हो ।
(9) संज्ञानात्मक अधिगम में भाषा का विशेष योगदान रहता है अतः शिक्षकों को छात्रों की भाषा विकसित करने के पूर्ण प्रयत्न करने चाहिये ।
(10) यह सिद्धान्त छात्रों के बौद्धिक सामर्थ्य में वृद्धि करता है, साथ ही यह सिद्धान्त छात्रों को यह सीखने में भी सहायता प्रदान करता है कि कैसे सीखा जाता है?
(11) समस्या-समाधान तथा किसी चीज अथवा तथ्य के बारे में गहन जानकारी प्राप्त करने के कौशल को सीखने के लिए यह सिद्धान्त बहुत उपयोगी है।
(12) ब्रूनर ने बाह्य पुरस्कार को आन्तरिक पुरस्कार की ओर स्थानापन्न करके अधिगम को अधिक स्थाई बनाने का प्रयास किया है।
ब्रूनर के सिद्धान्त की सीमायें
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने ब्रूनर के सिद्धान्त की कुछ सीमाओं की ओर भी संकेत दिया है, जो निम्नांकित हैं-
(1) कुछ आलोचकों का मत है कि ब्रूनर द्वारा प्रतिपादित विषय की संरचना जैसे संप्रत्यय अपने-आप में अस्पष्ट हैं। ऐसे छात्र जिनमें अभिप्रेरणा की मात्रा औसत या औसत से कम होती है, उनमें इस ढंग की संरचना की बात करना उचित प्रतीत नहीं होता।
(2) कुछ आलोचकों का मत है कि अन्वेषणात्मक सीखना मात्र एक ऐसी विधि है, जिससे सिर्फ समय की बर्बादी होती है। प्रत्येक प्रकरण को इस विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता।
(3) यह सिद्धान्त मेधावी छात्रों के लिए अधिक उपयोगी है, सामान्य व मन्दबुद्धि बालकों के लिए नहीं।
(4) इस सिद्धान्त द्वारा पाठ्यवस्तु को निर्धारित समय-सीमा में आसानी से पूरा नहीं किया जा सकता।
(5) ब्रूनर का यह मानना कि पाठ्यवस्तु को सरल तरीके से प्रस्तुत करके बालक को किसी भी आयु में कुछ भी पढ़ाया जा सकता है, उचित नहीं कहा जा सकता ।
(6) प्रत्येक बालक से यह आशा करना कि वह कुछ-न-कुछ खोज अवश्य कर लेगा, तर्कसंगत नहीं है।