अनुक्रम (Contents)
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से संबंधित सिद्धांत
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से संबंधित सिद्धांत- अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों से संबंधित सिद्धांतों में मुख्य का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित किया जा सकता है-
यथार्थवादी सिद्धांत
अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का यथार्थवादी सिद्धांत तथ्यों एवं वास्तविक घटनाओं पर आधारित सिद्धांत है जिसमें पूर्वमान्यताओं एवं आदर्शों का कोई स्थान नहीं है। एच०जे० मारगेंथाऊ यथार्थवादी सिद्धांत का मुख्य प्रवक्ता है। इससे पूर्व जार्ज एफ0 कैनेन तथा राइनाल्ड नेबूर आदि ने भी यथार्थवादी सिद्धांत में योगदान दिया बताया जाता है। वास्तविकता तो यह है कि यथार्थवादी सिद्धांत 18वीं व 19वीं शताब्दियों से प्रचलित एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त रहा है। स्पाइकमैन ने भी यथार्थवादी सिद्धांत को एक सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया था। परन्तु इसे सिद्धांत में मारथाऊ के योगदान को सभी ने स्वीकार किया है।
साम्यावस्थापरक सिद्धांत
साम्यावस्थापरक सिद्धांत, शांति-संतुलन सिद्धांत जैसा ही ऐसा सिद्धांत है जो इस तथ्य पर जोर देता है कि अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों की सामान्य प्रवृत्ति, संतुलन व्यवस्था की ओर ही उन्मुख होती है। भाव यह है कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्र अपनी-अपनी शक्ति की वृद्धि करते हुए एक-दूसरे को प्रभावहीन बनाकर किसी-न-किसी रूप के संतुलन को बनाए रखते हैं। शांति संतुलन सिद्धान्त में भी ऐसा सत्य झलकता तथा साम्यावस्थापक सिद्धांत में भी कुछेक ऐसे ही तथ्य नजर आते हैं।
साम्यावस्थापरक सिद्धांत के विषय में किवंसी राइट (द स्टडी आफ इन्टरनैशनल रीलेशन्स) ने कहा है कि साम्यावस्थापरक सिद्धांत एक इकाई अथवा इकाईयों के समूह पर प्रभाव डालने वाली शक्तियों की यह पारस्परिक संबंध है जिसके कारण सम्पूर्ण व्यवस्था में किसी-न- किसी प्रकार की साम्यावस्था बनी रहती है।
निर्णय-निर्माण सिद्धांत
निर्णय-निर्माण सिद्धांत के समर्थकों में रिचर्ड सीडर, एच ब्रुक, बर्टन सापिन (डिसियन-मैकिंग एंड एन अप्रोच टू द स्टडि आफ इन्टरनेशनल पालिटिक्स), विलियम राइकर, जेम्स राबिन्सन, हर्बर्ट साइमन, जे0 बर्टन, ग्राहम एली होल्सट, जेम्स रास्नाऊ के नाम उल्लेखनीय है। इस सिद्धान्त का जोर इस तथ्य पर राज्य एवं राष्ट्र में मुख्य भूमिका, राज्य-राष्ट्र की नीतियां बनाने वाले नेताओं की होती है : वस्तुतः – राष्ट्र के नाम पर होने वाले कार्य उन नेताओं के कार्य होते हैं जो राज्य-राष्ट्र की नीतियां बनाते हैं। मान्यता यह है कि राजनीतिक क्रियाओं की कुंजी। निर्णय निर्माण करने वाले नेताओं के साथ-साथ आंतरिक व बाहरी प्रकार की परिस्थितियों से भी जुड़ी होती है आंतरिक परिस्थितियों में नेताओं, भूमिकाओं, संगठनों को सम्मिलित किया जा सकता है जो निर्णय करने-कराने में सहायक सिद्ध होते हैं। बाहरी परिस्थितियों में उस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को सम्मिलित किया जा सकता है जो किसी विशेष समय में पनप कर निर्णय निर्माण की को प्रभावित कर सकती है। हैरल्ड एवं मारग्रेट स्प्राउट (फाउण्डेशन्स आफ इन्टरनैशनल पालिटिक्स) ने पर्यावरणीय कारकों को भी निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण माना है जबकि एल्कजैण्डर एण्ड जूलियट जार्ज (वुडरो विल्सन कर्नल हाउस) ने निर्णय-निर्माण ‘व्यक्तित्व’ कारक पर जोर दिया है।
अन्तरसरकारीवादी अंतर्राष्ट्रीय संगठन में एक निर्णय निर्माण सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अंतर्गत शक्ति, सदस्य- राज्यों में निहित होती है तथा निर्णय सर्वसम्मति से लिये जाते हैं। सरकारों में निर्वाचित सदस्य तो मात्र परामर्शदात्री कार्य करते हैं अथवा नीतियों को कार्यरूप देने का कार्य करते हैं। अतंर-सरकारींवाद सिद्धांत आज अधिकांशतः अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा अपनाया जाता है।
मार्क्सवादी सिद्धांत
मार्क्स द्वारा रचित अनेक रचनाएं एक लम्बे समय में फैली है परन्तु कहीं भी उसने अंतर्राष्ट्रवाद पर सुनिश्चित व सुसंगत ढंग से लिखा नहीं है। लम्बे समय तक बिखरी उसकी रचनाओं में यह स्पष्ट हो जाता है कि उसकी रचनाएं राष्ट्र-व्यस्थापरक ऊपर के तत्वों पर जोर डालती थी। वह कहा करता था कि श्रमिकों की कोई अथवा पितृ-भूमि नहीं होती, तो जहां भी होते हैं, पीड़ित व शोषित ही होते हैं। उसका सम्बोधन था “संसार भर के श्रमिकों, एकत्रित हो जाती है, कुछ भी तो नहीं खोना, सिवाए अपनी जंजीरों को”। वे राष्ट्र की अपेक्षा ‘वर्ग’ को अधिक महत्वपूर्ण समझते थे। मार्क्स की भाँति लेनिन ने पूंजीवाद को साम्राज्यवादी रूप में समझाते हुए कहा कि साम्राज्यवाद, पूंजीवाद का उच्चतम चरण हैं। परन्तु स्टालिन तथा बाद में चीन के मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद के अन्तर्राष्ट्रीयवाद को राष्ट्रवाद की ओर धकेल दिया। “समाजवाद पहले एक देश मे।” ग्राम्शी की रचना (प्रीजन नोटबुक्स) में संरचनात्मक एवं संगठनात्मक दृष्टि से आधिपत्य पर जोर दिया गया था। फ्रैंकफर्ट स्कूल एवं आलोचकीय सिद्धांत के विद्वानों जैसे हरखामीर, अडारनो, मारक्यूनर्चा, हेबरमास आदि ने युवा मार्क्स द्वारा प्रतिपादित शोषण के स्थान पर विमुक्ति की चर्चा की थी। पराश्रितता तथा केन्द्र-परिधि नवमार्क्सवादियों का सिद्धांतकारो जैसे एण्ड्रे गुंडर फ्रैंक, कारडोसो, सानटोस आदि ने बदलती अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को मार्क्सवादी ढंग से समझाने का प्रयास किया था।
खेल सिद्धांत
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अनेक सिद्धांतों में खेल सिद्धांत का विशेष महत्व है। खेल सिद्धांत मुख्यतः गणितज्ञो एवं अर्थशास्त्रियों द्वारा विकसित हुआ बताया जाता है। मार्टिन शूबिक (गेम थ्योरी एण्ड रौलेटिड अप्रोचिज टू सोशल बिहेवियर), आस्कर मार्गेस्टर्न के साथ, (न्यू थ्योरी आफ गेमज एण्ड इकनामिक बिहेवियर), कार्ल डवाइच (“गेम थ्योरी एण्ड पालिटिक्स’) आदि खेल सिद्धांत के मुख्य प्रवक्ता है।
खेल सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने-समझाने का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह सिद्धांत किसी खेल की भाँति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझाता है। किसी खेल की भाँति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों की स्थिति खेल में खेलने वाले खिलाड़ियों की भाँति होती है जो परस्पर विरोधी रूप में एक-दूसरे के समक्ष आते हैं। लेख की भाँति परस्पर विरोधी राज्य दो विभिन्न खिलाड़ियों अथवा खिलाड़ी समूह की भाँति एक-दूसरे की चालों का अनुमान लगाते हैं, एक-दूसरे की गतिविधियों पर नजर रखते हैं, एक-दूसरे की चालों को विफल करने का प्रयास करते हैं, अपने-अपने साथी खिलाड़ियों से सहायता मांगते हैं तथा एक दूसरे पर विजय प्राप्त करते हैं। ऐसा ही कुछ किसी खेल में भी होता है तथा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के बीच भी होता है।
कापलान का निकायपरक सिद्धांत
मार्टिन कापलान द्वारा प्रतिपादित अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांतों में निकायपरक सिद्धांत महत्त्वपूर्ण बताया जाता है। उसने अंतर्राष्ट्रीय निकायों में छह प्रतिमान बताए हैं जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित हैं-
शक्ति-संतुलन विकास
मार्टिन कापलान का कहना है कि प्रथम राष्ट्र-राज्य व्यवस्था के साथ-साथ तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुसार शक्ति संतुलन व्यवस्था स्थापित हुई। पाश्चात्य देशों में यह व्यवस्था 18वीं और 19वीं शताब्दियों में चलती रही। इस निकाय के भीतर काम करने वाले अंतर्राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी हैं और एक उपवर्ग के रूप में राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी। ये राष्ट्र अपने-अपने राष्ट्रीय हित के प्रति सदा सचेत रहते हैं। मार्टिन कापलान ने स्पष्टतः कहा है कि शक्ति-संतुलन की इस अवस्था की क्रियाशीलता के लिए छह महत्वपूर्ण नियमों का पालन किया जाना आवश्यक है।
शिथिल द्वि-ध्रुवीय निकाय
कापलान के अनुसार शक्ति संतुलन निकाय का सबसे अधिक संभाव्य परिवर्तित रूप द्विध्रुवीय निकाय है। उसने दो प्रकार के द्विध्रुवीय निकाय की कल्पना की है- शिथिल द्विध्रुवीय और दृढ़ द्विध्रुवीय निकाय शिथिल द्वि-ध्रुवीय निकाय में दो महाशक्तियों के चारों छोटी शक्तियों और तटस्थ राज्यों का समूह घिरा रहता है। इसमें विभिन्न तटस्य राज्यों का एक गुट-सा होने के कारण दो बड़े कार्यकर्ताओं की शक्ति शिथिल बनी रहती है।
दृढ़ द्विध्रुवीय निकाय
इस व्यवस्था में गुट निरपेक्ष राष्ट्रों तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठन का महत्व कम हो जाता है। इस व्यवस्था में स्थायित्व तब तक नहीं पाया जा सकता जब तक कि दोनों गुटों को पदानुक्रमण के आधार पर संगठित न किया जाय। इस व्यवस्था में मध्यस्थ की भूमिका अदा करने वाला कोई नहीं होता। अतः यह स्वाभाविक है कि इस व्यवस्था में एक बड़ी सीमा तक अकार्यात्मक तनाव पाया जाए। परिणामस्वरूप, यह व्यवस्था कभी भी स्थायी नहीं हो सकती।
शिथिल और दृढ़ द्विध्रुवीय निकाय में अंतर
शिथिल द्विध्रुवीय निकाय और दृढ़ द्वि-ध्रुवीय निकाय में कई तरह से अंतर किया जा सकता है।
(अ) दृढ़ द्वि-ध्रुवीय निकाय में तटस्थ राज्य लुप्त हो जाते है और निकाय केवल दो सर्वोपरि गुटों के चारों ओर घूमता है। इसके विपरीत शिथिल द्विध्रुवीय निकाय में तटस्थ राज्य समाप्त नहीं होते।
(ब) जहां शिथिल व्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय संगठन के बने रहने की संभावना बनी रहती है, वहां दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था में वह संभावना समाप्त हो जाती है।
(स) जहां शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था में कुछ स्थायित्व होता है, वहां दृढ़-ध्रुवीय व्यवस्था में स्थायित्व नहीं होता।
अंतर्राष्ट्रीय संस्था निकाय
यदि प्रमुख राज्यों के रवैये के चलते शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था का रूपांतरण अंतर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में हुआ, तो द्वि-ध्रुवत्व की अवस्था समाप्त हो जाएगी, लेकिन इसमें विभिन्न राष्ट्र अपनी-अपनी भूमिका निभाते हुए राष्ट्रीय हित और शक्ति- संचय का प्रयास करते रहेंगे। यह अवस्था एक प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संघीय शासन की होगी। यह विश्व-सरकार प्रशासकीय, न्यायिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि सभी कार्यों को करेगी। लेकिन, इस व्यवस्था के निर्माण और सुव्यवस्थित रूप को ग्रहण करने में बहुत समय लगता है।