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प्रमुख भारतीय भाषाएं एवं बोलियां । Major Indian Languages ​​and Dialects in Hindi Language!

प्रमुख भारतीय भाषाएं एवं बोलियां
प्रमुख भारतीय भाषाएं एवं बोलियां

प्रमुख भारतीय भाषाएं एवं बोलियां । Major Indian Languages ​​and Dialects in Hindi Language!

प्रमुख भारतीय भाषाएं एवं बोलियां । Major Indian Languages ​​and Dialects in Hindi Language!-भारत में कितनी भाषाएं बोली जाती हैं इसका सही तरीके से अनुमान लगाना तो मुश्किल है क्योंकि भारत में बहुत सी भाषाएँ बोली जाती है लेकिन भारत में 22 भाषाओं को संविधानिक रूप से आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है जिनके नाम 22 official language है ।

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इन 22 भाषाओं को भारत की लगभग 90% आबादी द्वारा बोला जाता है इन भाषाओं को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची के तहत सूचीबद्ध कर राजभाषा की संज्ञा दी गई है हम आपको यहां पर बताना चाहते हैं कि कुछ लोगों को लगता है कि भारत की national language हिंदी है लेकिन असल में भारत की कोई भी नेशनल लैंग्वेज नहीं है ।

india की नेशनल लैंग्वेज तो कोई नहीं है लेकिन यहां की official language जरूर है इंडिया में हिंदी और इंग्लिश दोनों को ही ऑफिशियल लैंग्वेज का दर्जा दिया गया है ।

भारतीय संविधान में सिर्फ 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है लेकिन 2011 के आंकड़ों के अनुसार ऐसे लोग जो 10,000 से ज्यादा एक भाषा को बोलते हैं ऐसी 122 भाषाएं भारत में बोली जाती हैं ।

1. प्रस्तावना ।

2. विभिन भारतीय भाषाएं, बोलियां और उनका स्वरूप ।

 

1. असमिया ।

2. उड़िया ।

3. उर्दू ।

4. कन्नड़ ।

5. कश्मीरी ।

6. कोंकणी ।

7. गुजराती ।

8. डोगरी ।

9. तमिल ।

10. तेलुगू ।

11. नेपाली ।

12. पंजाबी ।

13. बंगला ।

14. मणिपुरी ।

15. मराठी ।

16. मलयालम ।

17. मैथिली ।

18. राजस्थानी ।

19. संस्कृत ।

20. सिंधी ।

21. हिन्दी ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

भारतीय संविधान में 18 स्वीकृत भाषाएं हैं । सभी की समृद्ध साहित्यिक विरासत है । भाषाओं की व्यापारिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्ता पर विचार कर सर्वप्रथम 15 भाषाओं को राजकीय मान्यता दी गयी थी ।

वैसे हमारे देश में 700 से अधिक बोलियां हैं । छोटी-मोटी बोलियों को मिलाकर इनकी संख्या हजार के आसपास पहुंचती है । भारत में चार प्रमुख भाषा परिवार की भाषाएं हैं, जिनमें आर्य, दविड़, मंगोलिया और आस्ट्रिक परिवार की भाषाएं हैं । इन भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी होता है । अंग्रेजी को अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क की विदेशी भाषा माना गया है । हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत है ।

यह लगभग सभी आर्य भाषाओं की जननी है । हमारे देश के संविधान में राजभाषा को राजकीय भाषा का दर्जा देकर राज्य सरकार द्वारा उसको प्रयोगात्मक रूप से स्वीकृत किया गया है । भारत में प्रचलित भाषाओं एवं उनका परिचय हम भारतीयों को जानना अति आवश्यक है, जिनमें प्रमुख हैं:

1. असमिया: आर्य परिवार की इस प्राचीन भाषा का उद्‌भव प्राच्च मारी के अपभ्रंश से हुआ है । इस भाषा पर खासिया, बड़ी अहोम, संथाली, तिबती और बर्मन का प्रभाव है । यह ब्रज की तरह कोमल भाषा है । इसका विकास रवीं शताब्दी से माना जाता है ।

8वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक इसका प्रथम चरण साहित्यिक विकास का है । दूसरा चरण 12 से 16वीं शताब्दी, तीसरा 16से 18वीं शताब्दी तक, चौथा चरण आधुनिक काल 16वीं से 18वीं शताब्दी का है । 1851 से अब तक आधुनिक काल माना जाता है । पहले चरण के आदिकाल में लोकगीत, लोककथाएं, लोकोक्तियां, सूक्तियां हैं, जिनमें हरप्रसाद शास्त्री का बुद्धगान और दोहा प्रारम्भिक चरण में प्रसिद्ध है ।

14वीं शताब्दी के श्रेष्ठ कवि माधव कंदलि थे, जिन्होंने वाल्मीकि रामायण के पांच खण्डों का असमिया भाषा में अनुवाद किया था । 15वीं 16वीं के असम कवियों में शंकरदेव प्रसिद्ध हैं । कीर्तनघोषा इनका प्रमुख यन्थ है । इसके पश्चात् वैष्णव कवि माधवदेव आते हैं । उनकी रचना घोषा में 1000 पद हैं । उन्होंने 14 और ग्रन्थ लिखे । बुरंजी नामक ऐतिहासिक साहित्य तीसरे चरण में रचा गया ।

आधुनिक असमिया साहित्य के जन्मदाता लक्ष्मीनारायण बेजबरुआ माने जाते है । उनकी सबसे लोकप्रिय हास्य रचना कृपावर, बरबरुआ, काकतर रोपोलो हैं । उनकी कविताएं देशभक्ति, प्रकृति, सौन्दर्य एवं प्रेम की

हैं ।

इस युग के अन्य रचनाकारों में अमूल्य बक्खा, नवकान्त और हेमकांत बक्खा हैं । नाटकों तथा उपन्यास के क्षेत्र में असमिया साहित्य काफी श्रेष्ठ है । आधुनिक उपन्यास साहित्य के जन्मदाता रजनीकान्त बारदोलाई हैं । श्री वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य एक ऐसे आधुनिक साहित्यकार हैं, जिन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला ।

2. उड़िया: पूर्वी मागधी के अपभ्रंश से उत्पन्न हुई उड़िया भाषा के अधिकांश शब्द संस्कृत के हैं । उड़िया का विकास 10वीं सदी से 14वीं सदी तक का माना जाता है । 15वीं सदी से 19वीं सदी तक मध्यकाल एवं आधुनिक काल का विकास माना जाता है ।

14वीं सदी में रूद्रसुधानिधि ग्रन्ध नारायणानन्द अवधूत स्वामी का लिखा हुआ उपन्यास है । मध्यकाल के वैष्णव काव्य में जयदेव के गीत गोविन्द का प्रभाव माना जाता है । कुछ लोगों का यह मानना है कि जयदेव दिया थे । वैष्णव भक्त अन्य साहित्यकारों में शिशुशंकर दास, कपिलेश्वर दास, लक्ष्मण मोहंती, मधुसूदन उल्लेखनीय हैं । 17वीं सदी में रानी निशंकराय इस युग की अकेली कवयित्री हैं ।

फकीर मोहन सेवावती उड़िया के आधुनिक साहित्य के जन्मदाता माने जाते हैं । समाजसुधारक होने के साथ-साथ वे अनुवाद भी थे । बुद्धावतार, रामायण और महाभारत का अनुवाद कर पुष्पमाल, उपहार, लछमा, आत्मजीवन चरित जैसी कालजयी कृतियां भी दीं । श्री मधुसूदन राव ने उत्कल गाथा, संगीतमाला जैसे श्रेष्ठ अन्यों के साथ भावगीत, सानेट, लघुकथा, निबन्ध तथा नीतिकाव्य भी लिखे ।

20वीं सदी के प्रमुख रचनाकारों में कुचला देवी, कुमारी, गोपीनाथ महंती मृत्युंजय रथ, रवि पटनायक, रमाकान्त रथ, सीताकान्त महापात्र, राजेन्द्रकुमार पाण्डा प्रमुख हैं । स॰ राऊतराय तथा गोपीनाथ को भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान मिल चुका है ।

3. उर्दू: उर्दू शौरसेनी अपभ्रंश से जन्मी है । कुछ विद्वान् इसे रेख्ता कहते हैं । अरबी, फारसी, हिन्दी के शब्दों से मिश्रित इस भाषा का विकास मुगलकाल में हुआ । उर्दू भाषा का स्वर्णिम विकास मुगलकाल के बाद के तीसरे चरण 19वीं सदी में हुआ ।

कविता, कहानियां, उपन्यास, पत्रकारिता की शुरुआत इसी युग में हुई । इस भाषा के बड़े शायर हुए हैं: नजीर, अकबराबादी, नसीर, नसीम, जोंक, गालिब, मोमिन, दाग, अमीर, अकबर इलाहाबादी । सन् 1948 में अवध अखबार प्रकाशित हुआ था ।

मुहम्मद हादी ने उर्दू शब्दकोष का निर्माण किया । आधुनिक उर्दू साहित्यकारों में आगा हश्र कश्मीरी, शौकत थानवी, उपेन्द्रनाथ अश्क, इरमत चुगताई, कुर्रतुल ए हैदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, राजेन्द्र बेदी, कृशन चन्दर प्रमुख हैं ।

4. कन्नड: कन्नड़ दक्षिण परिवार की भाषा है, जिसका उदगम मूल द्रविड़ी से हुआ है । इस पर संस्कृत का काफी प्रभाव है । इसके भाषायी विकास की तीन अवस्थाओं में आदिकालीन, मध्यकालीन, वर्तमान युग 19वीं सदी तक का मिलता है । कविराज, मार्ग कन्नड़ का प्राचीन यस्थ है । मध्यकाल के महाकवि पंप कन्नड़ के सर्वप्रथम कवि माने जाते हैं । आदिपुराण, समस्त भारत इनके प्रमुख पथ हैं ।

वैसे कन्नड़ का प्रमुख गद्य चातुंडराय पुराण है, जिसे चातुडराय ने लिखा है । 12वीं सदी में जन्न प्रमुख कवि थे । कान्ति इस काल की प्रमुख कवयित्री हैं । 19वीं सदी के स्वर्ण युग में प्रमुख रचनाकार नरसिंहाचार्य, के॰वी॰ कुटप्प, मधुर चेन्न हैं । वहीं बेटागिरी कारंत, कृष्णकुमार, शान्तिनाथ देसाई, गिरीश कार्नाड, यू॰आर॰ आनन्दमूर्ति, शिवराम कारंत, मास्ती व्यंकटेश अयंगार आदि ने नाटक, कविता, कहानी, उपन्यास में अपना महत्त्वपूर्ण योग दिया था ।

5. कश्मीरी: यह भारोपीय भाषा परिवार के दरह समूह की एक प्रमुख भाषा है, जिसका जन्म पैशाची अपभ्रश से हुआ है । इस पर फारसी व संस्कृत का प्रभाव है । यह 13वीं सदी से विकास में आयी । कश्मीर में उपलब्ध पहला ग्रन्थ महानय प्रकाश है, जिसे शितिकण्ठ ने लिखा ।

शैव दर्शन पर आधारित ग्रन्थ है, जिसे महेश्वरानन्द ने महाअर्थमंजरी के नाम से लिखा । ललवराण्य 14वीं सदी का विशुद्ध कश्मीरी ग्रन्थ है, जिसे ललेश्वरी ने लिखा । शेख नुरूद्दीन कश्मीरी सूफी साधक रहे हैं । बाणासुर वध कश्मीर का पहला महाकाव्य है, जिसे महावतार ने लिखा ।

कवि श्रीधर ने कल्हण की राजतरंगिणी का कश्मीरी में पद्यानुवाद किया । हब्बाखातून 16वीं सदी की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री हैं । साहिब कौल ने कृष्णावतार, तो दिवाकर ने रामावतार फारसी काव्य शैली में रचा । गुलरेज पत्र कश्मीरी साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण रहा । कश्मीरी साहित्य के श्रेष्ठ रचनाकारों में सोमनाथ जुत्शी, रोशन, गुलाम मोहम्मद, अली मोहम्मद लोन, नूर मोहम्मद बट, हरिकृष्ण कौल, मुहीउद्दीन हाजनी ने विशेष पहचान बनायी ।

6. कोंकणी: कोंकणी की लिपि देवनागरी है । एक शताब्दी पूर्व कोंकणी में ईसाई साहित्य का प्रचलन खूब था । इस पर मराठी का प्रभाव भी है । कोंकणी साहित्य लोकनाट्‌यों के साथ-साथ गद्य की विधाओं में विकसित रहा ।

रवीन्द्र केलकर ने निबन्ध, तो डॉ॰ डी॰ के सुखथानकर ने गद्य में काफी योग दिया । महाबलेश्वर शैल को तरंगा कहानी संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । कोंकणी के अन्य रचनाकारों में मनोहर सरदेसाई, अरविन्द मांबरो प्रमुख हैं ।

7. गुजराती: गुजराती का जन्म अपभ्रंश से हुआ है । भारतेश्वरबाहुबलि रासा गुजराती का प्रथम ग्रन्थ है । शालिभद्र सूरी ने इसकी रचना की । गुजराती की लिपि देवनागरी है । इसमें शिरोरेखा नहीं होती है । इस भाषा का साहित्यिक विकास तीन चरणों में हुआ ।

आदिकाल में शालिभद्र सूरी के कुछ व्याकरणिक यन्थ मिलते हैं । 16वीं शताब्दी को गुजराती का मध्य युग कहा जाता है । इसमें नरसिंह मेहता, मीरा, विष्णुदास, भक्त कवि आते हैं । आज गुजराती में कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध विधा पर श्रेष्ठ रचनाएं लिखी जो रही हैं ।

आत्मकथा रेखाचित्रों का विकास भी काफी कुछ हुआ । गुजराती प्रमुख साहित्यकारों में धनसुखलाल मेहता, रमणलाल मेहता, सुरेश जोशी, रघुवीर चौधरी, कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, हसा मेहता, पन्नालाल पटेल प्रमुख है ।

8. डोगरी: डोगरी में देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है । इसका प्रारम्भ 16वीं शताब्दी से हुआ है । मानचन्द इस काल के प्रमुख कवि थे । डोगरी में पहली प्रकाशित गद्य पुस्तक न्यू टेस्टामेंट है । लोककथाओं के विकास में डोगरी को अच्छी पहचान मिली । डोगरी के साहित्यकारों में मदनमोहन, नरेन्द्र खजूरिया, वेद राही, चमन अरोड़ा, ललित मगोत्रा, लक्ष्मीनारायण, पदमा शर्मा प्रमुख हैं ।

इस भाषा की श्रेष्ठ रचनाएं हाशिए दे नोट्‌स, टापू दा आदमी, सुई तागा, काले हत्थ कैदी, प्याके भेजो, बाबा जित्तो, कुजांशाही प्रसिद्ध हैं । शिराजा साडा जैसी पत्रिकाएं इस साहित्य के विकास में अग्रसर हैं । पदमा सचदेव डोगरी की एक ऐसी कवयित्री हैं, जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है । इनकी प्रमुख कृतियां तबीने इन्हा, पोटा-पोटा, निबंल, उत्तर बहनी है ।

9. तमिल: दविड़ परिवार की भाषा में तमिल का विशेष स्थान है । इस भाषा में किसी शब्द का प्रारम्भ संयुक्ताक्षर से नहीं होता । तमिल साहित्य ईसा की तवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ । पांड्‌य राजाओं ने इसे काफी समृद्ध किया ।

महाकवि कंबन की कंबरामायण 10वीं से 14वीं शताब्दी में शिवज्ञान बोधम, कैवल्य नवनीतम, तमिल साहित्य में प्रमुख कृतियां हैं । रामलिंगर, सुन्दर व, वेदनायकम, गोपालकृष्ण भारती, तिरूकूडराज्यप्प, कविरायर तथा बीसवीं शताब्दी के सुब्रह्मण्यम भारती श्रेष्ठ रचनाकार हैं ।

तमिल में नाट्‌य परम्परा पी॰ सबंध मुदलियार से प्रारम्भ हुई । तमिल के प्रसिद्ध नाटककार वी०के० सूर्यनारायण, पार्थ सारथी हैं । टी॰वी॰ कल्याणसुन्दरम को तमिल गद्य का जनक कहा जाता है । लोकसाहित्य, चरित्रसाहित्य में तमिल साहित्य का काफी योगदान रहा है ।

10. तेलुगु: यह दविड़ परिवार की भाषा है । संस्कृत से प्रभावित है । तेलुगु का प्रारम्भ 600 ई॰ से हुआ है । तेलुगु साहित्य का पौराणिक काल 1000 से 1500 तक का है । इस काल की अधिकांश रचनाएं रामायण तथा महाभारत पर आधारित हैं । कवि भास्कर 13वीं शताब्दी में हुए हैं । उनकी रामायण तेलुगु में काफी प्रसिद्ध रही है ।

उत्तर हरिवंशम एवं वसन्त विलासम उनकी प्रमुख कृतियां हैं । 17वीं शताब्दी में कामेश्वर प्रमुख हैं, जिनके सत्यभामा, सांतवनु प्रसिद्ध गन्ध हैं । 19वीं शताब्दी के कवियों में शेषमु वेंकटपति, लक्ष्मणकवि, लिंगमूर्ति, सोमशेखर प्रसिद्ध हैं ।

18वीं शताब्दी में कृष्णमूर्ति शास्त्री, जगन्नाथ कवि, वेंकटाचार्य प्रमुख हैं । कवियों में विश्वनाथ सत्यनारायण का तथा विरेषलिंगम का जीवनी व आत्मकथा में प्रमुख स्थान है । वर्तमान समय में उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आलोचना, पत्र विधाओं में भी श्रेष्ठ साहित्य का विकास हुआ ।

11. नेपाली:  यह आर्य परिवार की प्राकृत प्रसूत भाषा है । सुबंदन दास इसके पहले कवि हैं । भानुभक्त ने आध्यात्म रामायण का अनुवाद किया, तो भानुदत ने हितोपदेश तथा मित्र-लाभ का । कृष्णचरित्र नेपाली का पहला खण्डकाव्य माना जाता है । इसके रचयिता बसन्त शर्मा हैं । पंचतन्त्र के नेपाली अनुवाद को नेपाली कथा के लिए केन्द्र बिन्दु माना जाता है ।

नारायण भट्ट रचित हितोपदेश, पंचतन्त्र एवं जातक कथाओं की रचना संस्कृत के आधार पर हुई । सन 1821 में नेपाली में स्वस्थानी व्रत कथा ने नेपाली साहित्य को नयी दिशा दी । नेपाली कथा को प्रारम्भिक प्रेरणा ऐश्वारी कथाओं से मिली । लालहीरा, हातिमताई की कथा, गुलबकावली, दशावतार, तीजको कथा, श्रीमच्छिन्द्रनाथ की कथा कहानी की दृष्टि से धरोहर है ।

आधुनिक नेपाली कथा सन 1934 के बाद सामने आयी । बनारस से प्रकाशित गोरखा भारत जीवन, उपन्यास तरंगिणी दो महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएं हैं । इस काल में नेपाली कथा साहित्य में शिवकुमार राई, असीत राई, लीला बहादुर, भवानी भिक्षु गोविन्द गोथाले, पारिजात, विश्वप्रसाद कोइराला, ध्रुवचन्द गौतम ने नेपाली उपन्यास साहित्य को नया आयाम दिया ।

आचलिक कथाकारों में शंकर कोईराला, सुभाष घीसिंग का नाम प्रसिद्ध है । नासो पराईघर, सपना को संझना, स्वप्न ने नेपाली कहानियों की नयी जमीन तैयार की । आधुनिक युग के प्रमुख साहित्यकारों में शंकर सुखा फागो, गोपीचन्द प्रधान, इन्द्र बहादुर राई, डॉ॰ कुमारप्रधान घनश्याम का नाम उल्लेखनीय है ।

12. पंजाबी:  भारतीय आर्य भाषाओं की तरह पंजाबी का उदगम प्राकृत अपभ्रंश से हुआ । पंजाबी तीन लिपियों में लिखी जाती है: देवनागरी, फारसी, गुरुमुखी । इसकी असली लिपि गुरुमुखी है । पंजाबी साहित्य फरीदशंकर गज की रचनाओं से माना जाता है ।

उनकी रचनाओं में आदर्श पंजाबी, हिन्दवी, मुलतानी है । पंजाबी भाषा में भक्तिभाव का काफी प्रभाव मिलता है । यूसुफ जुलेखा, शिरी फरहाद, लैला मजनूं हीर रांझा, सोहिनी महिवाल प्रेमपरक रचनाएं हैं । फारसी, पंजाबी, हिन्दी छन्दों में गुरुनानक देव ने 16 ग्रन्थों की रचना की ।

इस काल में गुरु अंगददेव, अमरदास, अर्जुनदेव, तेगबहादुर, गुरुगोविन्द सिंह का प्रमुख स्थान है । पंजाबी लेखकों ने फारसी में काफी रचनाएं लिखी हैं । पंजाबी साहित्य में निबन्ध विद्या में लिखने वाले गुरुबक्श सिंह, तेजा सिंह, गंडा सिंह तथा कथा साहित्य में बूटा सिंह, चन्दन नेगी, अजीत कौर, सुरजीत पातर, महिन्दर सिंह सरना प्रमुख हैं । आत्मकथा, डायरी, स्केच, रिपोर्ताज विद्याओं में भी पंजाबी साहित्य में काफी कुछ लिखा जा रहा है ।

13.बंगला:  बंगला का जन्म मागधी अपभ्रंश से हुआ । इसकी लिपि शारदा है । बंगला की पहली रचना महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्रीजी की चर्यापद है । बंगला में कुछ पूजागीत गाथा, लोकगीत व्रतकथाएं मिलती

हैं । 12वीं शताब्दी में जयदेव का प्रभाव मिलता है । कृतिवास ओझा की रामायण इस काल की रचना है ।

मालाधार बासु की कृष्णलीला, श्रीकृष्ण विजय, श्रीधर कृत विद्यासुन्दर, चण्डीदास की कृष्णकीरती तथा विद्यापति की कल्पलता प्रमुख रचनाएं हैं । मुद्रणकाल के विकास के साथ-साथ बंगला साहित्य में गीतकल्पतरू, पदकल्पतरू नामक काव्य ग्रन्थ प्रकाशित हुआ ।

इसमें 150 कवियों की रचनाएं संकलित हैं । 1851 से 1900 के बीच के चौथे चरण में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बंगला में अनुदित बेतालपंचविशति, जीवनचरित, बोधोदय, शकुन्तला चरितावली आदि के साथ-साथ व्याकरण कौमुदी की रचना की ।

धर्म तथा नीतिपरक रचनाओं की इस शृंखला में युग प्रवर्तक कवि आये, जिनमें माइकल मधुसूदन दत्त प्रमुख हैं । उनका महाकाव्य मेघनाथ वध आमित्राक्षर छन्द है । महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर का बंगला साहित्य में उल्लेखनीय योगदान था ।

इनकी ज्ञानाकुर, संगीत, चित्रांगदा, सोनारतरी, चैताली, गीतांजलि प्रसिद्ध रचनाएं हैं । गीतांजलि पर उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला । विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद बंकिमचन्द्र चटर्जी का आनन्दमठ, कपालकुण्डला आदि प्रसिद्ध उच्चकोटि की रचनाएं हैं ।

इसके साथ काजी नजरूल इस्लाम, बुद्धदेव बसु, सुकांत भट्टाचार्य, गिरीश घोष सरीखे रचनाकार आये । बंगला साहित्य में शरतचन्द्र तथा विमल मित्र हिन्दी में भी बहुत माने जाते हैं । शरतचन्द्र की देवदास, शेष प्रश्न, चरित्रहीन, मंझली दीदी, स्वामी जैसी रचनाए काफी लोकप्रिय रहीं । नारी मैन के अन्तर्भावों को सजीवता के साथ चित्रित करने वाले शरतचन्द्र के बाद आशापूर्णादेती, महाश्वेता देवी, विपिनचन्द्र पाल काफी प्रशसित रहे हैं ।

14. मणिपुरी:  यह तिब्बती बर्मी भाषा भी कहलाती है । कई जातियों द्वारा बोली जाने वाली इस भाषा की सुदीर्घ परम्परा में लोकसाहित्य काफी समृद्ध रहा है । तुमति काव्य, नेकोनितन, खोतफबल, काब का समय न हवीं सदी का है । 16वीं सदी की प्रमुख रचनाएं है-पंतोईबि खोगुंड । 18वीं सदी में रामनो गवा प्रमुख रचनाए हैं ।

राजकुमार शीतल सिंह के दो कहानी संग्रह-लैकोनुइन्दा और लैनुडंस काफी उल्लेखनीय रहे । डॉ॰ देवराज का इमागी पूजा प्रसिद्ध कहानी संग्रह है । मणिपुरी साहित्य परिषद एव मणिपुरी हिन्दी परिषद सरीखी रचनाओं ने एक रचनात्मक माहौल दिया । वर्तमान में कु॰ मधुवीर, कुंजरानी, बरकन्या देवी, हिजम इरावत सिंह, दोनेश्वर कोन्सम, मेमचोबी, लोडजम चनु साहित्यकारों ने मणिपुरी के विकास को गति दी ।

15. मराठी:  मराठी की लिपि देवनागरी है । इसका जन्म महाराष्ट्री अपभ्रंश से हुआ । मराठी पर पैशाची, मागधी, अर्द्धमागधी का प्रभाव भी है । इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग काफी मिलता है । मुकुन्दराज कृत विवेकसंधु मराठी का पहला ग्रन्थ है ।

एक शताब्दी के बाद ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी लिखी । मराठी का उदभव ईसा पूर्व वीं सदी से माना जाता है । पंचतन्त्र का मराठी अनुवाद मराठी साहित्य में मिलता है । 12वीं शताब्दी में ज्ञानेश्वर के बाद नामदेव, मुक्ताबाई, परसा भगत जैसे भक्त कवि सामने आये ।

एकनाथ स्वामी ने जनभाषा मराठी में लिखी हुई ज्ञानेश्वरी को जन-जन तक पहुंचाया । इस काल में दासोपंत ने भी रचनाएं लिखीं । शिवाजी मराठी को फारसी के प्रभाव से दूर रखना चाहते थे । शिवाजी के काल में स्वामी समर्थ रामदास व तुकाराम ने रचनाएं कीं । पेशवा काल में मराठी फारसी के प्रभाव से आकर्षित होने लगी थी । सन् 1800 में पण्डित विद्यानाथ ने मराठी कोश का निर्माण करवाया ।

इस काल के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों में सदाशिव काशीनाथ, बालगंगाधर शास्त्री, अप्पाजी गाडगिल प्रमुख थे । तिलक द्वारा महाराष्ट्र का नेतृत्व संभालते ही उनकी अनुदित रचना गीताभाष्य आयी । इसी के साथ भोपटकर, सावरकर, परांजपे की अंग्रेजी अनुदित रचनाएं आयीं । सन् 1921 में चन्द्रशेखर नामदेव, साने गुरुजी, कुसुमाग्रज प्रमुख रहे । वहीं कवयित्रियों में संजीवनी मराठे, इन्दिराबाई प्रमुख थीं ।

भारतीय नाट्‌य साहित्य ने मराठी साहित्य में काफी योग दिया । में दलित आन्दोलन ने मराठी साहित्य को एक नयी दिशा दी । मराठी में लघु निबन्ध, उपन्यास, कहानी की अच्छी परम्परा रही है । अन्य मराठी लेखकों में पिरोज आनन्दकर, शशिकला, कमलाबाई, मालतीबाई दांडेकर चिपलूणकर, आगरकर, मि॰ जोशी, देशपाण्डे ने विविध विधाओं पर रचनाएं कीं ।

16. मलयालम: मलयालम को मूल द्रविड़ी की भाषा माना जाता है । इस भाषा में संस्कृत व तमिल के शब्द प्रचुरता से मिलते हैं । मलयालम के साहित्यिक विकास को हम तीन स्थितियों में-आदिकाल 16वीं सदी, मध्यकाल 19वीं सदी, आधुनिक काल 19वीं सदी से आज तक-विभक्त करते हैं ।

मलयालम का प्रथम सन्देश काव्य मेघदूत है । लीला तिलकम, भगवतगीता, रामायण और महाभारत का भी मलयालम में अनुवाद हुआ । गद्य लेखन की शुरुआत मलयालम के कौटिल्य से मानी जाती है । नंबूतिरि रामपण्णिकर मलयालम के श्रेष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं ।

रामायण के रचयिता संकल रामानुजाचार्य सत्रहवीं सदी के रचनाकार है । रामायण चंपू की तर्ज पर 200 चंपू काव्य रचे गये । केरल वर्मा ने मलयालम भाषा में कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम का मलयालम में श्रेष्ठ अनुवाद किया । सी॰वी॰ रामन मलयालम के प्रख्यात उपन्यासकार माने जाते हैं । तकषि श्रेष्ठ कथाकार हैं ।

17. मैथिली: मैथिली साहित्य का विकास वीं तथा 11वीं सदी की प्रथम रचना चर्या पद से हुआ माना जाता है । यह बौद्ध सिद्धों के गीतों का संकलन है । 13वीं तथा 14वीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर ने नाटक, काव्य व गद्य साहित्य के माध्यम से नयी दिशा दी ।

विद्यापति की कृष्ण पदावली से सम्बन्धित रचनाएं तथा यात्री की कहानी, उपन्यास, निबन्ध प्रशंसित रचनाएं रहीं । राजकमल चौधरी ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने राजनीतिक विकृतियों और विसंगतियों पर आम आदमी की तकलीफ को नयी अभिव्यक्ति दी ।

इनका संग्रह स्वर गंधा शिल्प व कथ्य की संवेदना के साथ विशिष्ट है । अन्य साहित्यकारों में आर॰सी॰ प्रसाद सिंह, उदयचन्द झा, मायानाथ मिश्र, नचिकेता, हरिकृष्ण झा, सुधांशुशेखर चौधरी, प्रभास कुमार चौधरी, राजमोहन झा, रामदेव झा प्रमुख हैं ।

18. राजस्थानी:  वैदिक संस्कृत और शौर सेनी प्राकृत से निकली आर्य भाषा राजस्थानी है । देवनागरी लिपि में लिखे इस साहित्य का प्रारम्भ 1050 ई॰ से माना जाता है । प्रारम्भिक काल में जैन रचनाएं मिलती हैं । भक्तिमूलक, युद्धभूमि व पौराणिक पृष्ठभूमि पर लिखे गये इस भाषा के साहित्य में लोकगाथाओं को विशेष महत्त्व मिला है । उलझन, बांतारी, फुलवारी, अलेसू हिटलर राजस्थानी साहित्य की प्रमुख कृतियां हैं । इस भाषा के साहित्यकारों में मणिमधुकर, रामेश्वरदयाल श्रीमाली, मिठेश निर्मोही; मदन सैनी प्रमुख हैं ।

19. संस्कृत:  संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा है तथा समस्त भाषाओं की जननी है । वेद, उपनिषद, सूत्र, ब्राह्मण गन्ध, आरण्यक, संहिताएं संस्कृत में लिखी गयी हैं । आदिभाषा संस्कृत की लिपि देवनागरी है । संस्कृत के जन्मदाता पाणिनी माने जाते हैं । पतंजलि ने भाष्य लिखा । इसी भाषा में रामायण, महाभारत तथा गीता की भी रचना हुई ।

उश्दिकाल, मध्यकाल व आधुनिक काल में विभाजित सस्कृत के प्रमुख रचनाकारों में कालिदास, शूद्रक, वात्सायन भास, अश्वघोष, भारवि, क्षेमेन्द्र, दण्डी, भरतमुनि, सुबंधु, बाणभट्ट, विष्णु शर्मा आते हैं । स्वप्न वासवदत्ता, अभिज्ञानशाकुन्तलम, मालयिकाग्निमित्रम, रघुवंश,कुमारसम्भवम, विक्रमोशीर्य, मेघदूत, बुद्धचरित, मृच्छकटिकम, नाट्‌यशास्त्र, पंचतन्त्र, कथासरित्सागर, सिद्धातकौमुदी प्रमुख रचनाएं हैं ।

 

20. सिंधी: सिंधी संस्कृत की मूल भाषा है । यह अरबी, फारसी के सम्पर्क में आकर काफी समृद्ध हुई । सिंधी साहित्य का विकास 16वीं सदी से प्रारम्भ हुआ । तारीख मौसमी, तारीख ताहिरी, बेगलारनामा, शाहअचूल लतीफ श्रेष्ठ कवि माने गये है ।

रिसालो सिंधी का महत्त्वपूर्ण मथ है । मखदूम अकुल रौफभरी को कुछ विद्वान् सिंधी का प्रथम कवि एवं गद्य प्रवर्तक मानते हैं । कौडोमल, चन्दनमल, खिलमाणी, पकोपह इनकी मौलिक सिंधी कृति है । कला कलीच का उपन्यास जीनत सिंधी का पहला उपन्यास है । आधुनिक सिंधी साहित्य में रामप्रतापराय पंजवानी, तारामीरचंदानी, लेखराज किशनचंद अजीज प्रमुख हैं ।

21. हिन्दी: हिन्दी की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है । इसकी लिपि देवनागरी है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे 1050 से 1350 तक कार वीरगाथाकाल स्वीदिकाल माना है । 1350 से 1700 तक भक्तिकाल तथा 1700 से 1900 तक रीतिकाल एवं 1900 से अब तक आधुनिक काल चार भागो में बांटा गया है ।

वीरगाथाकाल के श्रेष्ठ कवि पृथ्वीराज रासो के रचयिता चन्दबरदाई हैं । इस काल में महाकवि जगनिक, श्रीधर, नरपति नाल भी हुए । भक्तिकाल, जो हिन्दी कविता का स्वर्ण युग है, इस युग में रामचरितमानस, सूरसागर, बीजक, पदमावत, गीत गोविन्द, नरसीजी का माहरा जैसी श्रेष्ठ रंचनाओं के महान् रचनाकार तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, जायसी, मीराबाई हुए हैं ।

रीतिकाल में रीति तथा लक्षण अन्यों पर आधारित विशिष्ट रचनाएं बिहारी सतसई, सुजानबेलि, सुजानसागर, कविकल्पदुम, कवित्तरत्नाकर, गंगालहरी, जगदविनोद, शिवाबावनी, शिवराजभूषण, छत्रसाल दशक है, जिनके कवि हैं: बिहारी, घनानन्द, सेनापति, पदमाकर, भूषण ।

सन् 1850 का आधुनिक काल का पूर्वार्द्ध गद्य काल से प्रारम्भ होता है । इस काल में कहानी, उपन्यास, निबन्ध, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, रेखाचित्र आदि विधाओं पर रचनाएं की गयीं । सन् 1760 में लिखा नासिकेतोपाख्यान (सदल मिश्र), सन् 1865 में रानी केतकी की कहानी (इंशाअल्लाखां), लल्लूलाल (प्रेममसागर) ने हिन्दी गद्य को नयी दिशा दी ।

सन् 1885 से प्रारम्भ हुए हिन्दी गद्य काल के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने वैदिक हिंसा न भवति, चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी सरीखे नाटक व प्रहसन लिखे । नाटकों के साथ-साथ निबन्ध, कहानी, उपन्यास एवं एकांकी भी लिखे । लाल श्रीनिवासदास का ‘परीक्षागुरु’ हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है ।

इस युग के अन्य उपन्यासकारों में देवकीनन्दन खत्री का भूतनाथ, चन्द्रकांता संतति उल्लेखित उपन्यास रहे हैं । तिलस्मी एवं ऐप्यारी से भरे इन उपन्यासों ने पाठकों को लम्बे समय तक बांधे रखा । द्विवेदी युग के प्रवर्तक ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ ने सन में हिन्दी भाषा का परिष्कार व परिमार्जन कर उसे सुव्यवस्थित बनाया ।

उन्होंने सरस्वती नामक पत्रिका का भी सम्पादन किया । इस युग के अन्य, श्रेष्ठ रचनाकारों में निराला, प्रसाद, पंत, महादेवी वर्मा ने कविता को वायवी स्वरूप दिया । मनोरमा जैसी पत्रिकाओं ने इस भाषा के विकास में काफी योग दिया । निराला के साथ-साथ पंत, प्रसाद ने छायावाद के साथ प्रगतिवाद की भी स्थापना की । दिनकर, मुक्तिबोध ने सामाजिक असमानता को दूर कर मानवतावादी विचारधारा पर बल दिया ।

प्रयोगवाद के प्रवर्तक अजेय ने भाव व शिल्प की दृष्टि से अनेक प्रयोग किये । धर्मवीर भारती, दुष्यन्त कुमार ने भी नवीन प्रयोग किये । नवगीत, अकविता आदि ने अतुकांत कविता को नयी दिशा दी । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, डॉ॰ नगेन्द्र, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह ने निबन्ध तथा आलोचना साहित्य को भी समृद्ध किया ।

चिन्तामणि आचार्य शुक्ल का विशिष्ट निबन्ध संग्रह है । हिन्दी कहानी तथा उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं-गोदान, गबन, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, पंचपरमेश्वर, कफन, बूढ़ी काकी, ईदगाह, परीक्षा, मन्त्र, नमक का दरोगा से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया ।

हिन्दी नाटक सम्राट जयशंकर प्रसाद नें ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु, स्वान्दगुज, चन्द्रगुप्त आदि श्रेष्ठ नाटक लिखे । मधुवा गुंडा, पुरस्कार आकाशदीप, छाया प्रतिध्वनि जैसी स्तरीय कहानियां लिखीं । ऐतिहासिक उपन्यासकारों में वृन्दावनलाल वर्मा ने झांसी की रानी, अहिल्याबाई, विराटा की पकिनी तथा चतुरसेन शास्त्री ने वैशाली की नगरवधू गढ़कुण्डार जैसी श्रेष्ठतम रचनाएं लिखीं ।

आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु ने मैला चल, परती परिकथा, उपन्यास के साथ-साथ ठेस, पंचलाइट, संयदिया कहानियां भी लिखीं । मनोवैज्ञानिक कथाकारों में अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाश्चन्द्र जोशी प्रमुख रहे ।

नये कहानीकारों में कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव इस्मत चुगताई, मेहरून्निसा परवेज मन्तु भण्डारी, उषा प्रियंवदा शिवानी, अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, राजी सेठ, चित्रा मुदगल प्रमुख हैं ।

नवीन कथ्य शैली के उपन्यासकारों में मोहन राकेश की रचनाएं सशक्त हैं । लधुकथा भी आधुनिक संवेदना और भावबोध को चित्रित करने वाली नवीन विधा है । इस विधा में लिखने वाले कमलेश्वर, असगर वजाहत प्रमुख हैं ।

3. उपसंहार:

भारत की इन भाषाओं और उनके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने पर ज्ञात होता है कि भारतीय साहित्य में सभी भाषाओं की समस्त विधाओं में लेखन की काफी समृद्ध परम्परा रही है । भारतीय भाषाओं औए बोलियों की अत्यन्त सुदीर्घ एवं संपन्न विरासत रही है ।

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shubham yadav

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