अनुक्रम (Contents)
शिक्षण के सूत्र (Maxime of Teaching)
शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों के अलावा शिक्षकों तथा विद्वानों के द्वारा कुछ शिक्षण सूत्र भी प्रतिपादित किये गये हैं । शिक्षण सूत्र वस्तुतः शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को एक स्पष्ट दिशा प्रदान करते हैं। प्रत्येक शिक्षण सूत्र पाठ्य वस्तु को शिक्षार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए अधिगमन (Approach) सम्बन्धी संकेत व दिशा को इंगित करता है। जिसका अनुशरण करके शिक्षक को अपनी पाठ योजना का निर्माण करना होता है । यद्यपि विभिन्न शिक्षण सूत्रों में एक प्रकार की अन्तर्निहित (Inherent) उभयनिष्ठता पायी जाती है फिर भी शिक्षार्थियों के स्तर व पाठ्यवस्तु की प्रकृति के अनुरूप शिक्षकों के द्वारा शिक्षण हेतु आवश्यकतानुसार शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है। शिक्षण सूत्र सार्वभौमिक (Universal) प्रकृति के होते हैं एवं औपचारिक, अनौपचारिक व गैर औपचारिक सभी प्रकार के शिक्षण में इनका उपयोग किया जाता है। कुछ प्रमुख शिक्षण सूत्रों को निम्नवत् ढंग से लिखा जा सकता है-
1. सरल से कठिन की ओर (From Simple to Complex)
2. ज्ञात से अज्ञात की ओर (From Known to Unknown)
3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From Concrete to Abstract)
4. अनिश्चित से निश्चित की ओर (From Indefinite to Definite )
5. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (From Direct to Indirect )
6. विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Specific to General)
7. सम्पूर्ण से अंश की ओर (From whole to Part)
8. अनुभव से तर्क की ओर (From Emoirical to Rationale)
9. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From Analysis to synthesis)
10. मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर (From Psychological to Logical)
11. अनुभूत से गैर अनुभूत की ओर (From Observed to Unobserved)
1. सरल से कठिन की ओर (From simple to Complex)
सरल से कठिन की ओर का शिक्षण सूत्र बताता है कि शिक्षक को कक्षा में पढ़ाते समय पहले सरल पाठ्यवस्तु प्रस्तुत करके धीरे-धीरे कठिन पाठ्यवस्तु की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। वस्तुतः ऐसा करना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अपेक्षित होता है। विद्यार्थियों में अपनी अधिगम योग्यता व क्षमता के प्रति आत्मविश्वास पैदा करने के लिए शिक्षक को अपने शिक्षण कार्य को सरल से कठिन के के सूत्र अनुसार सम्पादित करनी चाहिए। सरल से कठिन प्रकरणों की ओर अग्रसर किया जाता है। यही कारण है कि पाठ्य पुस्तकों में प्रकरणों व प्रश्नों को सरल से कठिन के क्रम से प्रस्तुत किया जाता है ताकि सरल प्रकरण व प्रश्नों को हल कर लेने के उत्साह में कमजोर विद्यार्थी भी पठन-पाठन में रुचि लेते हुए आगे बढ़ने लगते हैं।
2. ज्ञात से अज्ञात की ओर (From Known to Unknown)
ज्ञात से अज्ञात की ओर का शिक्षण सूत्र इंगित करता है कि शिक्षक को शिक्षण करते समय छात्रों को ज्ञात बातों व प्रकरणों से प्रारम्भ करके उसे अज्ञात बातों व प्रकरणों की जानकारी प्रदान करनी चाहिए। यही कारण है कि प्रायः सभी शिक्षक प्रतिदिन के अपने शिक्षण कार्य पाठों का शिक्षण उस ज्ञान व बोध से प्रारम्भ करता है। जो विद्यार्थी पहले से ही अर्जित कर चुके होते हैं। इसे पूर्व ज्ञान कहते हैं एवं शिक्षक अपने शिक्षण कार्य को छात्रों के इस पूर्वज्ञान पर ही आधारित करके प्रारम्भ करता है। यदि अध्यापक ऐसा नहीं करता तो छात्रों को प्रत्येक नया पाठ अपने-आप में अलग-अलग प्रतीत होता है तथा पाठ में रुचि नहीं ले पाते हैं जिसके फलस्वरूप शिक्षण प्रभावी नहीं हो पाता है। वस्तुतः यह शिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण, उपयोगी व प्रभावी सूत्र है । ज्ञात से अज्ञात की ओर शिक्षण सूत्र को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य करने पर विद्यार्थियों की रुचि व तन्मयता पाठ में बनी रहती है जिससे वे अधिक सीख पाते हैं। शिक्षक को स्थूल 3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From Concrete to Abstract) — इस सूत्र को मूर्त से अमूर्त की ओर का शिक्षण सूत्र भी कहा जाता है । इस सूत्र के अनुसार से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्त होते हुए अपना शिक्षण कार्य करना चाहिए। स्थूल से तात्पर्य ज्ञानेन्द्रियों से अर्थात् आँख, कान, जिह्वा व त्वचा से देखे, सुने, सूँघे, स्वाद किये व महसूस किये अनुभवों से होता है। स्थूल की जानकारी इन्द्रिय जनित अनुभवों से होती है । जबकि सूक्ष्म बातों की जानकारी व्यक्ति को स्थूल बातों के विश्लेषण के फलस्वरूप होती है। स्थूल से शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने पर विद्यार्थियों को जो प्रारम्भिक अनुभव प्राप्त होते हैं उनके आधार पर ही वे कालान्तर में सूक्ष्म रूप से विचार करने में समर्थ हो पाते हैं अत: शिक्षक द्वारा प्रारम्भ में विद्यार्थियों को अधिक से अधिक स्थूल अनुभव कराए जाने से उनकी सूक्ष्म रूप से चिन्तन-मनन करने की सामर्थ्य अधिक विकसित होती है।
4. अनिश्चित से निश्चित की ओर (From Indefinite to Definite)
अनिश्चित से निश्चित की ओर का शिक्षण सूत्र बताता है कि शिक्षक को शिक्षण करते समय विद्यार्थियों के अनिश्चित विचारों, सूचनाओं, समझ या सम्बन्धों आदि को निश्चितता प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए। वस्तुतः विद्यार्थी अपनी रुचि, प्रवृत्ति, पसन्द व आवश्यकता के अनुरूप विभिन्न प्रकार की धारणाएँ बना लेते हैं। शिक्षक को इनसे प्रारम्भ करके उदाहरणों, चित्रों, स्थूल वस्तुओं आदि का प्रयोग करके उनके ग्रन्थों व संदेहों को मिटाकर उनके विचारों को एक स्पष्ट व निश्चित स्वरूप प्रदान करना चाहिए। अतः बालकों के अस्पष्ट विचारों को ही शिक्षण के द्वारा परिशोधित करके एक स्पष्टता व निश्चितता की ओर प्रवृत्त करना ही इस शिक्षण सूत्र का मुख्य अभिप्राय कहा जा सकता है।
5. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (From Direct to Indirect)
प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष के शिक्षण सूत्र के अनुसार जो वस्तुएँ, संस्थाएँ और घटनाएँ बालकों के परिवेश में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान होती है। शिक्षक को शिक्षण में उनका उपयोग पहले करना चाहिए। गणित, विज्ञान, कृषि, सामान्य ज्ञान, भूगोल जैसे विषयों में अनेक प्रकरणों को पढ़ाते समय इस सूत्र का प्रयोग प्रभावी ढंग से किया जाता है। यदि शिक्षक समीप के पर्यावरण में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान नदी, पहाड़, वनस्पति, पशु खाने कृषि सामाजिक संस्थाएँ आदि से प्रारम्भ करके विभिन्न राज्यों महाद्वीपों तथा सम्पूर्ण विश्व में विद्यमान वस्तुओं, संस्थाओं और घटनाओं का शिक्षण करते हैं तो छात्र अच्छे ढंग से सीखते हैं। शिक्षण के लिए शिक्षक को प्रत्यक्ष से परोक्ष की ओर के शिक्षण सूत्र को ध्यान में रखकर अपने शिक्षण कार्य को करना चाहिए।
6. विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Particular to General)
शिक्षण को प्रभावी बनाने एवं अधिगम को जीवन से जोड़ने की दृष्टि से इस सूत्र को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। जब शिक्षार्थियों को विशिष्ट उदाहरणों के आधार पर सामान्यीकरण करने की क्षमता विकसित करने की ओर अग्रसर किया जाता है तो वे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय होकर रुचि लेते हैं वस्तुतः शिक्षण का यह सूत्र आगमन विधि पर आधारित है इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है और वे स्वयं अन्वेषण की तरह सामान्यीकरण करना शुरू कर देते हैं। जैसे त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोण के बराबर होता है।” प्रमेय सिखाते समय शिक्षक को त्रिभुजों का यह सामान्य गुण छात्रों को अपनी ओर से नहीं बताना चाहिए। वरन् उसे विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार के त्रिभुज बनाकर उनमें से प्रत्येक के तीनों कोणों को नापकर उनका योग अपनी-अपनी पुस्तिका में अंकित करने को कहना चाहिए। जब विद्यार्थी ऐसा करते हैं तो वे स्वयं यह सामान्यीकरण कर लेते हैं कि तीनों कोणों का योग सदा दो समकोण के बराबर होता है।
7. सम्पूर्ण से अंश की ओर (From Whole to Part)
सम्पूर्ण से अंश की ओर को शिक्षण का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूत्र माना जाता है। इसके अनुसार शिक्षण कार्य को सम्पूर्ण से अंश की दिशा में प्रवृत्त किया जाना चाहिए। निःसंदेह अंश को सम्पूर्ण के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है जैसे यदि शिक्षक को वृक्ष के सम्बन्ध में अध्ययन कराना हो तो पहले उसे छात्रों को सम्पूर्ण वृक्ष को या उसका चित्र दिखाकर तत्पश्चात् उसके विभिन्न अंगों तना, टहनी, पत्ते व जड़ आदि के बारे में बतलाना चाहिए। पूर्ण से अंश की ओर बढ़ते हुए शिक्षण करना वस्तुतः मनोविज्ञान के गेस्टाल्ट सम्प्रदाय की विचारधारा पर आधारित है। इस सम्प्रदाय के अनुसार प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया पूर्ण से अंश की ओर होती है अर्थात् पहले किसी वस्तु का समग्र चित्र व्यक्ति के मस्तिष्क पर अंकित होता है। तत्पश्चात् उसका ध्यान वस्तु के विभिन्न अंशों की ओर जाता है। अतः शिक्षक को शिक्षण करते समय इस सूत्र का समुचित प्रकार उपयोग करना चाहिए।
8. अनुभव से तर्क की ओर (From Empirical to Rational)
विद्यालय में आने से पूर्व ही विद्यार्थियों को तरह-तरह के अनेकानेक अनुभव हो चुके होते हैं परंतु प्रायः वे इन अनुभवजनित घटनाओं का कारण नहीं समझ पाते हैं। इसके लिए शिक्षक को विद्यार्थियों के अनुभवों का विश्लेषण करके उनकी तार्किक व्याख्या करना सीखना चाहिए। अनुभव से तर्क का शिक्षण सूत्र सुझाता है कि शिक्षक को दैनिक जीवन की विभिन्न परिस्थिति में अर्जित अनुभवों तथा अनुभूत तथ्यों के आधार पर कक्षा में घटनाओं के घटित होने के कारण को ज्ञात करने का प्रयास करना चाहिए।
9. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From Analysis to Syntesis)
विश्लेषण तथा संश्लेषण वस्तुतः किसी भी समस्या को हल करने के लिए सामान्यतः अपनायी जाने वाली स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया है। जब व्यक्ति किसी समस्या का अनुभव करता है तो वह विश्लेषण करके उस समस्या को भली-भाँति समझता है तत्पश्चात् संश्लेषण के द्वारा उस समस्या का समाधान खोजने का प्रयास करता है निःसन्देह समस्याओं को हल करने का यही एक स्वाभाविक तरीका है। यह सूत्र काफी हद तक सम्पूर्ण से अंश की ओर के शिक्षण-सूत्र का विलोम प्रतीत होता है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि किसी समस्या का पूर्ण ज्ञान हुए बिना उसका विश्लेषण करना कदापि सम्भव नहीं हो सकता है एवं विश्लेषण मात्र से समस्या का समाधान।
10. मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर (From Pscyological to Logical)
मनोवैज्ञानिक ढंग से विषय वस्तु की प्रस्तुति का सम्बन्ध विद्यार्थियों के व्यक्तित्व, अभिवृत्तियों, आवश्यकताओं आदि की अनुकूलताओं से होता है जबकि तार्किक क्रम में प्रस्तुति का सम्बन्ध विषय वस्तु को व्यवस्थित व क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत करने से होता है। यदि शिक्षक मनोवैज्ञानिक क्रम को अपनाते हुए शिक्षण कार्य करता है तो छात्रों की विषय-वस्तु में रुचि विकसित हो जाती है तथा वह अध्ययन विषय व शिक्षण के प्रति धनात्मक अभिवृत्तियाँ विकसित कर लेता है । इसके उपरान्त शिक्षक द्वारा विद्यार्थी के समक्ष विषय-वस्तु की तार्किक प्रस्तुति करने पर वे उसे शीघ्रता व सहजता से सीख सकते हैं। वस्तुत: तार्किक क्रिया अपनाये बिना छात्रों को विषय का सुव्यवस्थित ज्ञान प्रदान करना संभव नहीं हो पाता है । नि:संदेह मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर का यह शिक्षण सूत्र विद्यार्थियों में विषय के प्रति रुचि विकसित करके विषयवस्तु को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है।