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आधुनिक संविधानवाद की समस्याएँ
द्वितीय विश्व युद्ध के पञ्चात् यद्यपि संविधानवाद पहले की अपेक्षा अधिक मजबूत स्थिति में हैं तथापि एक ओर जहाँ साम्यवादी शासन व्यवस्था में एक दलीय व्यवस्था होने के कारण सीमित शासन कोरी कल्पना है, वहाँ दूसरी ओर नवोदित एशियाई देशों में अधिक सैनिक सरकारें होने के कारण संविधानवाद का विकास ही नहीं हो पाया है। आधुनिक संविधानवाद को अनेक समस्याओं एवं बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
1. बाह्य एवं आन्तरिक संकट की सम्भावना
बाह्य संकट की सम्भावना को दृष्टि में रखते हुए केन्द्रीय सरकार को अनेक शक्तियाँ सौंप दी जाती हैं, जिसमें शासन निरंकुश हो जाता है। युद्ध काल की अस्थायी तानाशाही शीघ्र ही स्थायी अधिनायकवाद में परिवर्तित हो जाती है जिससे संविधानवाद को खतरा उत्पन्न हो जाता है। उदाहरण के लिए श्रीलंका में तमिलों से निपटने के लिए जयवर्द्धने की सरकार एक प्रकार से तानाशाह गई थी। पाकिस्तान में संवैधानिक सरकार का अभाव पाया जाता है।
2. निरंकुश शासन
अधिनायक और निरंकुश शासन संविधानवाद का प्रमुख शत्रु सिद्ध हुआ है। निरंकुश शासन के अनेक रूप हो सकते हैं। यह सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के नाम पर साम्यवादी दल की असीमित शक्ति हो सकती है या फिर लोकतन्त्र के बहाने सैनिक शासन या एक दल का शासन हो सकता है। के. सी. ह्यीयर के अनुसार संविधानिक शासन का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि विभिन्न रूपों में निरंकुशवाद की शक्ति कितनी है। जैसे-जैसे वह बढ़ता है वैसे-वैसे ही संविधानिक शासन पीछे हटता जाता है।”
3. संस्थागत समस्या
संविधानवाद की सम्भवतया सबसे बड़ी समस्या आधुनिक संसदीय प्रणाली की क्रियाशीलता और गतिशीलता को लेकर है। आर्थिक महत्व के विषय आधुनिक राज्य के लिये अधिक आवश्यक हो गये हैं। जो संसदीय प्रणाली की केन्द्रीय ढाँचे में सफलतापूर्वक हल नहीं किये जा सकते। प्रभुता के
4. राज्य और नागरिक के सम्बन्धों की समस्या
संविधानवाद के मार्ग में राज्य और नागरिकों के सम्बन्धों की भी एक बहुत बड़ी समस्या है। लोकतान्त्रिक शासन में प्रत्येक व्यक्ति को एक समझा जाता है और वहाँ श्रमिकों की समस्याएँ हल नहीं हो जाती है। इस प्रकार समाज का एक वर्ग असन्तुष्ट हो जाता है। यदि राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों में किसी प्रकार का तनाव रहेगा तो इससे संविधानवाद का खतरा उत्पन्न होगा।
5. लोकतन्त्र की संवैधानिक शासन बनाने की समस्या
यह प्रायः विश्वास किया जाता है कि लोकतांत्रिक शासन ही संवैधानिक शासन होता है। वास्तव में संविधानवाद का इतिहास यह बताता है कि शासन की पद्धति चाहे कोई भी हो यदि वह शासकों को सीमित कर सके तो उसे संवैधानिक शासन कर सकते हैं। ह्वेअर का मत है कि “आधुनिक संविधानवाद के शुभ चिन्तकों के लिए समस्या यह है कि लोकतांत्रिक शासन को किस प्रकार संवैधानिक शासन भी बनाया जाये।” लोकतंत्र के स्थान पर विशिष्ट वर्ग का शासन संविधानवाद को सीमित कर देता है।
6. संविधानवाद शासन की पुनर्स्थापना की समस्या
संविधानवाद की एक प्रमुख समस्या यह है कि एक बार किसी कारणवश अस्थायी तौर पर स्थगित संविधानिक शासन की पुनर्स्थापना प्रायः कठिन हो जाती है। युद्ध अथवा किसी संकट के समय संविधानिक शासन को प्रायः इसलिए सीमित या स्थगित कर दिया जाता है कि देश स्वाधीनतापूर्वक जीवित रह सके और संकट समाप्त हो जाने पर फिर से संविधानिक शासन स्थापित हो सके। संविधानिक शासन का प्रसार इस उद्देश्य के लिए स्थगित किया जाना सिद्धान्तः कोई बुरी नहीं हैं, लेकिन व्यवहार में सदैव एक डर रहता है कि जिन लोगों को यह विशेष अधिकार सौंपे जाएँ, हो सकता है वे बाद में छोड़ने को राजी न हों। इससे भी संविधानवाद को गम्भीर आघात पहुँचता है।
7. समाजवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीयवाद की समस्या
एक प्रमुख समस्या संविधानवाद की यह भी है कि संविधानवाद को समाजवाद और अन्तर्राष्ट्रीयवाद या विश्व-व्यवस्था के दो मसलों का भी विशेष रूप से सामना करना पड़ रहा है। यद्यपि अनेक व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीयवाद और समाजवाद को परस्पर सम्बन्धित मानते हैं लेकिन दोनों मसले स्वभावतः एक-दूसरे से भिन्न हैं। समाजवाद में योजना निहित है और योजना अन्तर्राष्ट्रीयवाद की प्रगति को रोकती है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि लोकतान्त्रिक संविधानवाद के समर्थक भी इन बातों के सापेक्षिक महत्व पर एकमत नहीं है।
संविधानवाद की समस्याओं के निराकरण हेतु सुझाव
संविधानवाद के मार्ग में आने वाली समस्याओं का समाधान करने और इसके अधिकाधिक प्रसार के लिए कुछ प्रभावशाली कदम उठाए जाने आवश्यक है। सी.एफ. स्ट्रांग ने इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये हैं
1. सम्प्रभुता शक्ति से युक्त राज्य-समाज को अराजकता तथा अव्यवस्था से बचाने के लिए एक सुदृढ़ सम्प्रभुता शक्ति से युक्त राज्य का होना आवश्यक है। राज्य का यह कर्तव्य है कि वह देखे कि कोई व्यक्ति विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का लाभ उठाकर अराजकता तो नहीं फैला रहा है।
2. बुद्धिमतापूर्ण शासन- संविधानवाद को जीवित रखने के लिये आवश्यक है कि समाज का बहुत बड़ा भाग शासन में रुचि ले। बुद्धिजीवियों को भी इस बात का आभास कराया जाये कि वे भावी राजनीति के स्वयं निर्माता है तथा शासक के तीनों अंगों का प्रजातान्त्रिक ढंग से संगठन किया जाना चाहिए और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को किसी प्रकार की चोट नहीं पहुँचनी चाहिये।
3. प्रशासन सम्बन्धी सुधार- एकात्मक शासन व्यवस्था में प्रशासन के सुधार की समस्याएँ भी संविधानवाद के लिये एक खतरा है। प्रो. स्ट्रांग का विचार है कि एकात्मक राज्य को ही संघात्मक राज्य के अनुरूप अपनी अनेक राजनीतिक संस्थाओं की रचना इस प्रकार करनी चाहिये जिससे उनके पास केवल वे ही शक्तियाँ रह जायें समाज हित के लिये आवश्यक हों।
4. जनता के कल्याण हेतु कार्य-शासक को शासन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि आधुनिक संविधानवाद में सम्प्रभुता जनता में निहित होती है, अतः शासक को सदैव ही नियमानुसार जनता के कल्याण के लिये कार्य करना चाहिये।
5. अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का निर्माण- प्रो. स्ट्रांग का विचार है कि, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राजनीतिक संविधानवाद की निरन्तर सुरक्षा की आवश्यक शर्त है।” इस प्रकार उनका विचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन से ही अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता से बचा जा सकता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यद्यपि आधुनिक संविधानवाद की अनेक समस्याएँ हैं, किन्तु उनका समाधान सरलता से किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में आधुनिक राष्ट्र राज्यों की क्रिया, प्रणाली और संयुक्त राष्ट्र संघ का सफल संचालन काफी महत्वपूर्ण हो सकता है। इसके फलस्वरूप संविधानवाद का भविष्य उज्जवल हो सकता है।
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