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द्वितीय विश्व युद्ध क्यों हुआ था, इसके कारण व परिणाम (Second World War kyu hua, World war 2 history, Reason, Result in hindi)
द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War)
1 सितम्बर, 1939 को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण के साथ ही घटनाओं का वह सिलसिला शुरू हुआ, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध को व्यापक आधार प्रदान किया | द्वितीय विश्व युद्ध वर्साय-संधि की कठोरता, विश्वव्यापी आर्थिक मंदी, तानाशाही राजनीति, इंग्लैंड की तुष्टीकरण की नीति, शस्त्रीकरण, शक्ति-संतुलन की गड़बड़ी जैसे कुछ मूलभूत कारणों का समन्वित परिणाम था | प्रथम विश्व युद्ध के बाद गंभीर आर्थिक समस्याओं एवं विषाक्त राजनीतिक परिदृश्य के रूप में
उभरती चुनौतियों का सामना करने में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ‘राष्ट्र संघ’ सफल नहीं हो सका | संदेह एवं शक्ति-संतुलन की राजनीति में कोई भी देश एक-दूसरे के ऊपर विश्वास करने को किसी भी हालत में तैयार नहीं था | संयोग से यूरोपीय राजनीति में इटली एवं जर्मनी में क्रमशः मुसोलिनी एवं हिटलर जैसे तानाशाहों के अधीन सत्ता स्थापित हुई | द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में एक धारणा जो प्रचलित है वह यह कि द्वितीय विश्व युद्ध एक प्रतिशोधात्मक युद्ध था | इसमें कोई दो राय नहीं कि 1919 ई. के पश्चात् विभिन्न यूरोपीय देशों में अधिनायक तंत्र अस्तित्व में आया, जो इस बात की पुष्टि करता है कि ये देश अपने अपमान का बदला लेने के लिए तैयार थे | इन सभी कारणों के समन्वित परिणाम से द्वितीय विश्व युद्ध अवश्यंभावी हो गया |
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण (Causes of Second World War)
यह कहना बिलकुल जायज़ है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बीज 1919 ई. के पेरिस शांति समझौते में अंतनिर्हित थे | इस सम्मेलन में जर्मनी के साथ अपमानजनक, कठोर एवं आरोपित वर्साय की संधि की गयी थी और यह बात तो निश्चित ही थी कि जर्मनी इन कठोर शर्तों को लम्बे समय तक व्यवहार में नहीं ला सकता था | शस्त्रों की होड़, उग्र राष्ट्रवादी भावनाएं एवं राष्ट्रसंघ की कमजोरी जैसे कुछ ऐसे निर्णायक कारक भी थे, जिन्होंने परिस्थिति को द्वितीय विश्व युद्ध में परिवर्तन कर दिया | इस विश्व युद्ध के प्रमुख कारण निन्मलिखित थे-
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण
वर्साय संधि की त्रुटियाँ
- वर्साय की संधि में ही द्वितीय विश्व युद्ध के बीज निहित थे | पेरिस शांति संधि के समय यह बात खुलकर सामने आई कि वर्साय संधि द्वारा एक ऐसे विष वृक्ष का बीजारोपण किया जा रहा है जो जल्द ही भयंकर विनाशलीला को दस्तक देगा एवं इसका फल समस्त मानव जगत को भुगतना पड़ेगा |
- जर्मनी के साथ की गयी वर्साय की संधि में वुडरो विल्सन के आदर्शवादी सिद्धांतों की सर्वथा उपेक्षा की गयी थी | पराजित जर्मनी के समक्ष आरोपित, अपमानित एवं कठोर संधि को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं था | इस स्थिति में जर्मनी के लिए यही बुद्धिमानी थी कि वह वर्साय संधि के इस कड़वे घूँट को पी जाए |
- संधि ने जर्मनी को सैन्य एवं आर्थिक दृष्टिकोण से पंगु बना दिया | जर्मनी से अल्सास-लॉरेन के क्षेत्र एवं श्लेसविग के छोटे राज्य छीन लिए गये थे, पोलैंड गलियारा निर्मित कर जर्मनी का विच्छेद कर दिया गया था, उसे अपने सभी उपनिवेशों से हाथ धोना पड़ा, सार क्षेत्र की प्रसिद्ध खानों से 15 वर्षों के लिए वंचित कर दिया गया था | इसके अतिरिक्त जर्मनी को आर्थिक साधनों से वंचित कर उस पर क्षतिपूर्ति की भारी रकम थोप दी गई एवं उसे वसूलने के लिए कठोर साधन अपनाए गए |
आर्थिक मुद्दे (Economic Issues) – प्रथम विश्व युद्ध ने कई देशों की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला था, हालांकि यूरोपियन आर्थिक अवस्था 1920 तक बहुत ही अच्छी स्थिति में थी, लेकिन यूनाइटेड स्टेट में आये परिवर्तन ने यूरोप में भी मंदी का दौर ला दिया था. और ऐसी खराब आर्थिक स्थिति में कम्युनिज्म और फासिज्म में अपनी शक्तियाँ बढा ली थी.
नेशनलिज्म (Nationalism) – प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप में देशभक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा था, वो भी विशेषकर उन देशों में जो युद्ध में हार गये थे.
डिक्टेटरशिप (Dictatorships) – राजनीतिक अस्थिरता और प्रतिकूल आर्थिक स्थिति के कारण कुछ देशों में डिक्टेटरशिप बढने लगा. जिनमें भी जर्मनी, इटली, जापान और सोवियत संघ मुख्य थे.
विफल अपीलें और संधि वार्ता (Failure of Appeasement) – पहले विश्व युद्ध के पश्चात चेकोस्लोवाकिया एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया था, लेकिन 1938 तक, जर्मन क्षेत्र से घिरा हुआ था. हिटलर पश्चिमी चेकोस्लोवाकिया के एक क्षेत्र सुडेनेटलैंड को भी जर्मनी में जोड़ना चाहता था, जहां कई जर्मन रहते थे. ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन हिटलर को प्रसन्न करना चाहते थे और हिटलर के वादे के बाद सुडेनलैंड के लिए अपनी मांगों पर सहमत हुए थे, कि वह अधिक क्षेत्र की मांग नहीं करेंगे. मार्च 1939 के दौरान ही बचे हुए चेकोस्लोवाकिया पर भी हिटलर ने कब्जा कर लिया.
दो पक्षों का बनना और विभिन्न देशों की स्थिति
इस तरह पूरी दुनिया के देश दो प्रतिध्वन्धियों में बंट गये, जिनमें भी कुछ देश ऐसे थे, जो उदासीन थे और जिनका ना प्रथम विश्व युद्ध और ना ही द्वितीय विश्व युद्ध में कोई योगदान था, लेकिन साथ ही भारत जैसे कई ऐसे देश भी थे, जिन पर किसी यूरोपीय राष्ट्र का शासन था, इस कारण उन्हें उसके पक्ष में ही रहने का दबाव था. लेकिन फिर भी दूसरे विश्व युद्ध के मुख्य खिलाड़ियों में जर्मनी, जापान और इटली के लोगों के नाम सामने आते हैं, जिनमें एडोल्फ हिटलर, डेर फर्दर (Der Furher), जापान के प्रधानमंत्री एड्माईरल हिडेकी तोजो, इटली के प्रधानमंत्री बेंटो मुस्सोलीनी बड़े नाम थे. इस तरह जर्मनी, जापान और इटली ने एक्सिस पावर नामक एक गठबंधन बनाया. बुल्गारिया, हंगरी, रोमानिया और दो जर्मन निर्मित राज्य – क्रोएशिया और स्लोवाकिया – अंत में शामिल हो गए.
इनके सामने यूनाइटेड स्टेट्स, ग्रेट ब्रिटेन, चाइना और सोवियत संघ ने गठबंधन बनाया था, और ये ग्रुप ध्रुवीय शक्तियों के सामने खड़ा हुआ था. 1939 से लेकर 1944 तक लगभग 50 देश आपस में कोई ना कोई कारण से लड़ चुके थे. और 1945 में 13 और देश इस युद्ध में शामिल हो गये थे, जिनमें ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, ब्राजील, ब्रिटिश कामनवेल्थ ऑफ़ नेशनस, कनाडा, भारत, न्यूजीलैंड, साउथ अफ्रीका, चेकोस्लोवाकिया, डेनमार्क, फ्रांस, ग्रीस, नीदरलैंड, नोर्वे, पोलैंड, फिलिपिन्स और यूगोस्लाविया बड़े नाम हैं. जिनमें भी यूनाइटेड स्टेट्स के प्रेसिडेंट फ्रेंक्लिन.डी.रूजवेल्ट, ग्रेट ब्रिटेन के प्राइम मिनिस्टर विंस्टन चर्चिल,चाइना के जनरल चिआंग काई-शेक,सोवियत यूनियन के जनरल जोसफ स्टॅलिन मुख्य नाम हैं.
इस तरह पूरे युद्ध में गठबंधन वाले राष्ट्र और ध्रुवीय देशों को मिलाकर कुल 70 मिलियन लोगों की फ़ौज लड़ी थी. फीनलैंड ने किसी भी पक्ष को आधिकारिक रूप से जॉइन नही किया था, लेकिन इसके और सोवियत संघ के युद्ध ने विश्व युद्ध द्वितीय की शुरुआत कर दी थी. 1940 में जरूरत को देखते हुए फिनिश ने सोवियत रूस को पछाड़ने के लिए नाजी जर्मनी को जॉइन कर लिया था. 1944 में जब फीनलैंड और सोवियत के मध्य शांति की घोषणा हो गयी, तो फीनलैंड ने सोवियत को हटाने के लिए जर्मनी के साथ मिल गया था.
स्विट्जरलैंड, स्पेन, पुर्तगाल और स्वीडन ने युद्ध के समय उदासीन रहने की घोषणा की थी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव
जन-धन का अत्याधिक विनाश
द्वितीय विश्वयुद्ध पूर्ववर्ती युद्धों की तुलना में सर्वाधिक विनाशकारी युद्ध माना जाता है। इस युद्ध में संपत्ति और मानव-जीवन का विशाल पैमाने पर विनाश हुआ, उसका सही आँकलन विश्व के गणितज्ञ भी नहीं कर सके। इस युद्ध का क्षेत्र विश्वव्यापी था तथा इसे विनाशकारी परिणामों का क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक था।
इस युद्ध में अनुमानत: एक करोड़ पचास लाख सैनिकों तथा एक करोड़ नागरिकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा तथा लगभग एक करोड़ सैनिक बुरी तरह घायल हुए। मानव जीवन की क्षति के साथ-साथ यह युद्ध अपार आर्थिक क्षति, बरबादी तथा विनाश की दृष्टि से भी अविस्मरणीय है। ऐसा अनुमान है कि इस युद्ध में भाग लेने वाले देशों का लगभग एक लाख कराडे रूपये व्यय हुआ था। अकेले इंग्लैण्ड ने लगभग दो हजार करोड़ रूपये व्यय किया था। जबकि जर्मनी, फ्रांस, पोलैण्ड आदि देशों के आर्थिक नुकसान का अनुमान लगाना कठिन है। इस प्रकार इस युद्ध में विश्व के विभिé देश्ज्ञों की राष्ट्रीय संपत्ति का व्यापक पैमाने पर विनाश हुआ था।
औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत
द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप में स्थित यूरोपीय शक्तियों के औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत हो गया। जिस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् बहुत से राज्यों को स्वतंत्रता प्रदान कर दी गयी थी, ठीक उसी प्रकार भारत, लंका, बर्मा, मलाया, मिस्र तथा कुछ अन्य देशों को द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् ब्रिटिश दासता से मुक्त कर दिया गया। इसी प्रकार हॉलैण्ड, फ्रांस तथा पुर्तगाल के एशियाई साम्राज्य कमजोर हो गये तथा इन देशों के अधीनस्थ एशियाई राज्यों को स्वतंत्र कर दिया गया। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप का राजनीतिक मानचित्र पूरी तरह परिवर्तित हो गया, तथा वहाँ पर यूरोपीय साम्राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया।
शक्ति-संतुलन का हस्तांतरण
विश्व के महान राष्ट्रों की तुलनात्मक स्थिति को द्वितीय विश्वयुद्ध ने अत्यधिक प्रभावित किया था। इस युद्ध से पूर्व विश्व का नेतृत्व इंग्लैण्ड के हाथों में था, किंतु इसके पश्चात् नेतृत्व की बागडोर इंग्लैण्ड के हाथों से निकलकर अमेरिका व रूस के अधिकार में पहुँच गयी। विश्वयुद्ध में जर्मनी, जापान तथा इटली के पतन के फलस्वरूप रूस, पूर्वी यूरोप का सर्वाधिक प्रभावशाली व शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। एस्टोनिया, लेटेविया, लिथूएनिया तथा पोलैण्ड व फिनलैण्ड पर रूस का पुन: अधिकार हो गया। पूर्वी यूरोप में केवल टर्की व यूनान दो राज्य ऐसे थे जो साेि वयत संघ की सीमा से बाहर थे। दूसरी और , पश्चिमी यूरोप के देशों का ध्यान अमेरिका की तरफ आकर्षित हुआ। फ्रांस , इटली तथा स्पेन ने अमेरिका के साथ अपने राजनीतिक संबंध स्थापित कर लिये। इस प्रकार संपूर्ण यूरोप महाद्वीप दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं में विभाजित हो गया। एक विचारधारा का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था, जबकि दूसरी विचारधारा की बागडोर रूस के हाथों में थी। पूर्वी यूरोप के देशों पर रूस का प्रभाव स्थापित हो गया, पाकिस्तान, मिस्र, अरब, अफ्रीका आदि रूस की नीतियों से प्रभावित न हुए। इस प्रकार शक्ति का संतुलन रूस एवं अमेरिका के नियंत्रण में स्थित हो गया।
अंतर्राष्ट्रीय की भावना का विकास
द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाशकारी परिणामों ने विभिन्न देशों की आँखें खोल दी थी। वे इस बात का अनुभव करने लगे कि परस्पर सहयोग, विश्वास तथा मित्रता के बिना शांति व व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि समस्याओं का समाधान युद्ध के माध्यम से नहीं हो सकता। इसी प्रकार की भावनाओं का उदय प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् भी हुआ था तथा पारस्परिक सहयागे की भावना को कार्यरूप में परिणित करने के लिए राष्ट्र-संघ की स्थापना की गयी थी। किंतु विभिन्न देशों के स्वार्थी दृष्टिकोण के कारण यह संस्था असफल हो गयी और द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो गया। किंतु इस युद्ध के समाप्त होने के बाद देशों ने पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता एवं महत्व का पुन: अनुभव किया, तथा उन्होनें अपनी समस्याओं को शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने का निश्चय किया ताकि युद्ध का खतरा सदैव के लिए समाप्त हो सके तथा विश्व-स्तर पर शांति की स्थापना की जा सके। संयुक्त राष्ट्र-संघ, जिसकी स्थापना 1945 ई. में की गयी थी, पूर्णत: इसी भावना पर आधारित था। इस संस्था का आधारभूत लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा की भावना कायम करना तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं मैत्री-भावना का विकास करना था।
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