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प्राच्य-पाश्चात्य विवाद क्या है?
जैसा कि आप 1813 के आज्ञापत्र के अन्तर्गत ऊपर पढ़ चुके हैं कि पुनर्शोध न (Renewal) के फलस्वरूप उसमें एक 43वीं धारा ( 43rd Section) को जोड़ा गया, जिसमें शिक्षा का उत्तरदायित्त्व कम्पनी को सौंपा गया तथा उसे एक लाख रुपये व्यय करने को बाध्य किया गया। इसी सन्दर्भ से जो सबसे बड़ा विवाद उछला, वह था – ‘प्राच्य पाश्चात्य विवाद’। एक बहुत बड़ा कम्पनी कर्मचारियों का वर्ग इस बात को स्वीकार करता था कि प्राचीन भारतीय साहित्य, संस्कृति एवं विरासत का नये सिरे से शिक्षण एवं उन्नयन हो, ताकि प्राचीन भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित किया जा सके। इन्हीं लोगों के वर्ग को प्राच्यवादी (Orientalist) कहा गया। इस दल का नेतृत्त्व बंगाल के प्रसिद्ध शिक्षा सचिव एच. टी. प्रिन्सेप (H. T. Prinsep) ने किया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा गठित शिक्षा समिति के मन्त्री एच. एल. विल्सन (H. L. Wilson) भी उनको पूर्ण सहयोग प्रदान कर रहे थे। किन्तु इन दोनों व्यक्तियों की भारतीय व्यक्तियों तथा संस्कृति के सम्बन्ध में ध रणाएँ पृथक-पृथक थीं। जहाँ प्रिन्सेप महोदय भारतीय प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति से प्रभावित थे, वहीं विल्सन अहम् भावना से ग्रस्त थे। वे नहीं चाहते थे कि भारतीय अंग्रेजी भाषा या माध्यम से पढ़कर अंग्रेजों के साथ कन्धे से कन्धे मिलाकर चलें।
पाश्चात्यवादी (Occidentalist) दूसरा विरोधी दल था, जो कि प्राच्यवादियों के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं को नकारता था। ये सभी नवयुवक अंग्रेज अधिकारी थे, जो देश, भाषा, संस्कृति में गर्व का अनुभव करते थे। वे प्राच्य भारतीय संस्कृति को हीन भावना से देखते थे तथा मानते थे कि उस प्राचीन संस्कृति को न तो पुनर्जीवन प्रदान किया जा सकता है और न ही तात्कालिक भारतीय समाज तथा अंग्रेज साम्राज्य के लिए उससे कोई लाभ ही होगा।