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राजनीतिक आधुनिकीकरण के प्रतिमान
राजनीतिक आधुनिकीकरण के प्रतिमानों से तात्पर्य है कि क्या सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक दृष्टि से आधुनिकीकरण का कोई निश्चित क्रम और प्रतिमान होता है? इस सम्बन्ध में दो बातें महत्त्वपूर्ण है— प्रथम आधुनिकीकरण की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि उसका कोई सुनिश्चित प्रतिमान नहीं बन पाता है। द्वितीय, राजनीतिक आधुनिकीकरण का कोई अनुक्रम प्रतिमान भी नहीं हो सकता है। इसका कारण उन परिवर्त्यो की अनेकता है जिनसे राजनीतिक आधुनिकरण प्रभावित और नियमित होता है।
राजनीतिक आधुनिकीकरण का कोई अनुक्रम प्रतिमान तो निश्चित नहीं किया जा सकता किन्तु एडवर्ड शिल्स ने ‘पोलिटिकल माडर्नाइजेशन’ के अपने लेख में यह बताने का प्रयास किया है कि आधुनिकीकरण के आधार पर अगर सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं को देखा जाय तो मोटे तौर पर पाँच मॉडल उल्लेखनीय लगेंगे। उनके अनुसार सभी राजनीतिक व्यवस्थाएँ राजनीतिक आधुनिकीकरण की निरन्तर रेखा पर कहीं-न-कहीं अंकित की जा सकती है। ये मॉडल है—
(i) राजनीतिक लोकतन्त्र,
(ii) अभिभावकी लोकतन्त्र,
(iii) आधुनिकीकरणशील वर्गतन्त्र,
(iv) सर्वाधिकरणशील वर्गतन्त्र,
(v) परम्परागत वर्गतन्त,
(1) राजनीतिक लोकतन्त्र
राजनीतिक लोकतन्त्र से शिल्स का आशय उस व्यवस्था से है जिसकी ओर आधुनिकीकरणशील राज्य उन्मुख है। इसे उसने प्रतिनिध्यातक संस्थाओं और सार्वजनिक स्वतन्त्रताओं के माध्यम से नागरिक शासन का राज्य के रूप में परिभाषित किया है। इस व्यवस्था के मुख्य लक्षण हैं (क) सार्वभौमिक मताधिकार द्वारा नियत समय पर निर्वाचित होने वाला विधायी निकाय (संसद) (ख) राजनीतिक दलों का अस्तित्व जिसमें चुनाव में बहुमत प्राप्त में करने वाले दल की सरकार बने, (ग) राजनीतिक सत्ता तुलनात्मक रूप से अल्पकाल के लिए ही ग्रहण की जाये, (घ) सत्ता के निरंकुश और स्वेच्छाचारपूर्ण दुरुपयोग की किसी भी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन न मिले, (ङ) स्वतन्त्र न्यायपालिका का अस्तित्व हो ।
राजनीतिक लोकतन्त्र प्रभावशाली और स्थायी हो, इसके लिए आवश्यक है कि उपर्युक्त संस्थात्मक प्रबन्धों को कतिपय सामाजिक और सांस्कृतिक पूर्व दशाओं का समर्थन और सहारा मिले-जैसे, राजनीतिक कार्यों में भाग लेने वाले व्यक्ति लोकतान्त्रिक आत्म-संयम का प्रदर्शन का करें, सत्ता से चिपके रहने की प्रवृत्ति न अपनायें, विरोधी दल अनावश्यक मामलों पर सत्ताधिकारी दल के साथ सना की होड़ में न उलझें, राजनीतिज्ञों के निर्णयों को लागू करने के लिए समुचित रूप से प्रशिक्षित और संगठित सिविल सर्विस की व्यवस्था हो।
(2) अभिभावकी लोकतन्त्र
अभिभावकी लोकतन्त्र और राजनीतिक लोकतन्त्र में मौलिक अन्तर इस बात में निहित है कि अभिभावकी लोकतन्त्र में राजनीतिक लोकतन्त्र की संरचनात्मक व्यवस्थाएं व्यावहारिक रूप में सक्रिय नहीं रहती हैं।
अनेक समाजों में कुछ लोग राजनीतिक लोकतन्त्र के सिद्धान्तों और प्रक्रियाओं में आस्था तो रखते है किन्तु इसकी स्थापना की परिस्थितियों के अभाव में लोकतन्त्र लाने के लिए प्रयत्नशील ही हो सकते हैं। वास्तव में लोकतान्त्रिक व्यवहार की असम्भावना के कारण ऐसे लोकतन्त्र के रक्षक या अभिभावक बन जाते हैं। ये लोग व्यवस्थापिका और राजनीतिक दलों की शक्ति को सीमित रखकर कार्यपालिका में शक्तियों का केन्द्रण कर लेते हैं जिससे देश में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना की परिस्थितियों को पैदा किया जा सके। अभिभावकी लोकतन्त्र में राजनीतिक नेताओं की लोकतन्त्र में दृढ़ आस्था होती है। इसमें राजनीतिक लोकतन्त्र का संरचनात्मक रूप बना रहता है, किन्तु व्यवहार में सम्पूर्ण शक्तियाँ अभिभावक नेताओं में विद्यमान रहती हैं जिससे लोकतन्त्र की स्थापना के लिए आवश्यक सामाजिक, आर्थिक और अभिवृत्तात्मक स्थितियों को बहुत तेजी से विकसित किया जा सके। यह राजनीतिक आधुनिकीकरण की तरफ समस्या को धकेलने के समान है।
(3) आधुनिकीकरणशील वर्गतन्त्र
कई बार लोकतान्त्रिक संरचनाओं का विद्यमान रहना अपने आप में राजनीतिक आधुनिकीकरण के मार्ग में बाधा बनने लगता है। आम जनता स्वतन्त्राओं को असीमित और निरपेक्ष मान लेती है जिससे अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। विकासशील देशों में अक्सर ऐसा देखने को मिला है। ऐसी परिस्थितियों में आधुनिकीकरण गुटतन्त्र सत्ता में आ जाते हैं। यह स्वार्थी लोगों के गुट या समूह नहीं होते हैं। ऐसी राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक आधुनिकीकरण से अधिक बल आर्थिक और सामाजिक आधुनिकीकरण पर दिया जाता है। वे लोकतान्त्रिक शासनतन्त्र से परे हटकर एक अधिक अधिकारवादी राज्य की और उन्मुख होते हैं। यदि किसी समाज में सौभाग्य से ऐसा नेता मिल जाये जिसकी दृढ़ आस्था समाज को आधुनिक बनाने में है तब तो ऐसा गुटतन्त्र समाज में तेज गति से आधुनिकता ला पायेगा। नेरेर केनेथ कौण्डा, केन्याता, आदि नेताओं के प्रयत्नों से इनके देशों में आधुनिक अर्थव्यवस्था की स्थापना के प्रयत्न बहुत कुछ सफल हो रहे हैं।
(4) सर्वाधिकारी वर्गतन्त्र
सर्वाधिकारी वर्गतन्त्र राजनीतिक आधुनिकीकरण के मुकाबले में आर्थिक व सामाजिक लोकतन्त्र को प्राथमिकता देता है। ऐसे गुटतन्त्र में एक विचारधारा के आधार पर संगठित एकाधिकारवादी राजनीतिक दल के नेतृत्व में आधुनिकीकरण के सभी पक्षों को एक साथ आगे धकेलने का प्रयत्न किया जाता है।
सर्वाधिकारवादी शासन के कुछ प्रमुख लक्षण होते हैं—(1) यह विश्वास छाया रहता है कि प्रशासक समूह को ही ‘श्रेष्ठ जीवन’ का और उसे प्राप्त करने के साधनों का समुचित ज्ञान है, समाज में दूसरों को नहीं। (2) सभी सामाजिक मामलों में शासनतन्त्र की सर्वोच्चता मानी जाती है। और शासनतन्त्र जीवन के सभी क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण और प्रभाव रखता है। (3) सत्तारूढ़ शासकों के अलावा समाज में शक्ति के अन्य विरोधी केन्द्र नहीं होते। (4) विशिष्ट वर्ग के लोग अत्यधिक अनुशासित और एकीकृत निकाय के रूप में होते हैं। (5) दल एक अनिवार्य अंग होता है जिसके माध्यम से विशिष्ट वर्ग अपना कार्य संचालन करता है; दल अपनी स्वयं की नौकरशाही स्थापित करता है। (6) दल शक्ति पर एकाधिकार रखता है और अन्य किसी दल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। (7) संसदीय संस्थाएँ केवल प्रचारात्मक और प्रदर्शनात्मक उद्देश्यों के लिए होती है, उन्हें पहल करने या संशोधन की शक्तियाँ नहीं होती।
( 5 ) पराम्परागत वर्गतन्त्र
परम्परागत वर्गतन्त्र का प्रतिमान सही अर्थों में राजनीतिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का खुला विरोध है क्योंकि आधुनिकता और परम्परागत साथ-साथ नहीं चल सकते।
इस श्रेणी में परम्परागत धार्मिक विश्वासों में सम्बद्ध शक्तिशाली राज्यवंशीय संविधानों पर आधारित शासन व्यवस्थाएँ आती हैं। शासक या तो केवल रक्त सम्बन्ध के आधार पर बनते हैं। अथवा रक्त सम्बन्धी रिश्तों और चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने के लिए उनके द्वारा स्वीकृत व्यक्तियों द्वारा चुनाव इन दोनों के संयोग से बनते हैं। शासक अपने सलाहकारों और विश्वासपात्रों को अपनी पसन्द के अनुसार अपने सम्बन्धियों, मित्रों, आदि से चुनता है। इस प्रकार के परम्परावादी अभिजाततन्त्र में किसी विधि निकास की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि थोड़े-बहुत जो भी नए कानून बनाने पड़ते हैं शासक और सलाहकारों द्वारा बनाए और लागू किए जाते हैं। परम्परावादी वर्गतन्त्र जनता को बहुत कम सेवाएँ- प्रायः आधारभूत सेवाएँ ही प्रदान करता है और लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में यथासम्भव हस्तक्षेप नहीं करता।
परम्परावादी वर्गतन्त्र में केन्द्रीय सरकार कभी शक्तिशाली नहीं होती, चूँकि सामन्ती रक्त सम्बन्धी समूह तथा प्रादेशिक इकाइयों के पास काफी शक्ति होती है और ये केन्द्रीय सरकार से लगभग स्वतन्त्र रूप में अपनी शक्तियों का उपयोग करते हैं। इस प्रकार के राज्यों की प्रवृत्ति आधुनिकता विरोधी होती है और वे अपना औचित्य इस आधार पर प्रस्तुत करते हैं कि वे परम्परागत संस्कृति की रक्षा कर रहे है। नेपाल, भूटान तथा मध्य पूर्व के कुछ राज्यों में वह व्यवस्था पायी जाती है।
शिल्स की मान्यता है कि राजनीतिक आधुनिकीकरण का यह प्रतिमान अर्थात् ‘राजनीतिक लोकतन्त्र’ राजनीतिक व्यवस्थाओं की आधुनिकता के स्तर पर पहुँचने का संकेतक है। राजनीतिक आधुनिकीकरण का श्रेष्ठतम रूप राजनीतिक लोकतन्त्र का है।
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