अनुक्रम (Contents)
शिक्षा में व्यावसायीकरण एवं इसके नियन्त्रण के उपाय
व्यावसायीकरण एवं शिक्षा एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। जहाँ शिक्षा के द्वारा व्यावसायीकरण के विभिन्न मार्ग प्रशस्त होते हैं वहीं शिक्षा का व्यावसायीकरण व्यापक रूप से राष्ट्र एवं समाज को प्रभावित करता है। व्यावसायीकरण एवं शिक्षा के सम्बन्ध को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) शिक्षा के द्वारा व्यावसायीकरण के विभिन्न क्षेत्रों का विकास किया जाता है।
(2) व्यवसाय विशेष के लिये प्रशिक्षण प्रदान करने की नवीनतम तकनीकों का अनुसन्धान शिक्षा द्वारा किया जाता है ।
(3) व्यावसायीकरण की प्रक्रिया का विकास समाज एवं देश की शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करता है । जिस देश की शिक्षा व्यवस्था उत्तम होती है, उस देश का, व्यावसायीकरण भी तीव्र गति से होता है ।
(4) व्यावसायीकरण से सम्बद्ध शिक्षा ही मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। अत: क्रिया प्रधान शिक्षा की वर्तमान समय में अधिक माँग है ।
(5) शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव को उचित व्यवसाय की ओर ले जाना है, जिसकी वह योग्यता रखता हो ।
(6) शिक्षा के द्वारा ही मानव की व्यावसायिक रुचियों एवं योग्यताओं को विकसित किया जाता है जिससे वह सफल व्यवसायी बन सके ।
(7) शिक्षा के द्वारा ही व्यावसायीकरण के विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान मानव को प्रदान किया जाता है जिससे वह अपनी इच्छानुसार क्षेत्र का चयन कर सके ।
(8) शिक्षा के द्वारा ही छात्रों को अपने भावी जीवन के लिये उचित व्यवसाय के चयन करने में दिशा प्राप्त होती है ।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा एवं व्यावसायीकरण एक-दूसरे से विशिष्ट रूप से सम्बन्धित हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. एस. के. दुबे का कथन है, “व्यक्ति अपने जीविकोपार्जन के अभाव में पथभ्रष्ट एवं चरित्रहीन हो सकता है। इस आशंका को व्यावसायीकरण के माध्यम से निर्मूल सिद्ध किया जा सकता है।” अतः व्यावसायीकरण एवं शिक्षा मानव जीवन के लिये परमावश्यक हैं ।
वर्तमान समय में व्यावसायीकरण इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि शिक्षा का भी व्यावसायीकरण कर दिया गया है। शिक्षा को आज एक प्रमुख व्यवसाय के रूप में देखा जा रहा है। प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में व्यावसायीकरण प्रवेश कर गया है। निजी शिक्षण संस्थाओं की भूमिका बढ़ती जा रही है जो शिक्षा शुल्क और सुविधाओं के नाम पर मोटी फीस वसूलती हैं और अपना व्यवसाय चलाती हैं। जैसे-जैसे इन संस्थाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। शिक्षा शुल्क भी बढ़ता जा रहा है और शिक्षा के व्यावसायीकरण में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। नगरीय क्षेत्रों में ये विद्यालय अर्थोपार्जन की दृष्टि से चल रहे हैं। धनोपार्जन की अपेक्षा वालकों की शिक्षा पर कम ध्यान दिया जाता है। बाल मन्दिर तथा बालवाड़ियों के संस्थापक प्राय: ऐसे लोग होते हैं जो धनोपार्जन हेतु इनकी स्थापना करते हैं। उन्हें बाल मनोविज्ञान तथा शिक्षा के सिद्धान्तों से कोई लेना-देना नहीं है। फलस्वरूप ऐसे विद्यालय व्यवसाय का केन्द्र बने हुए हैं। अत: वहाँ बालकों को माता-पिता तथा अच्छे अभिभावक का प्यार नहीं मिल पाता। इससे बालक प्राथमिक स्तर पर ही विकृत तथा असन्तुलित व्यवहार के हो जाते हैं। शिक्षा के इस अन्धाधुन्ध व्यावसायीकरण से जहाँ शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ा है वहीं निर्धन वर्ग से लोगों की पहुँच से शिक्षा दूर होती जा रही है। अत: आवश्यक है कि शिक्षा के बढ़ते व्यावसायीकरण को नियन्त्रित किया जाय। शिक्षा के व्यावसायीकरण के नियन्त्रण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका सरकार की है। सरकार को चाहिये कि वह प्रारम्भिक शिक्षा के साथ-साथ उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा को भी प्रोत्साहन दे और न्यूनतम शिक्षा शुल्क पर सरकारी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करे जिससे निजी शिक्षण संस्थाओं के प्रभुत्व को चुनौती मिले और वे अपने शिक्षा शुल्क को जनसामान्य की पहुँच के अनुरूप बनायें। इसके अतिरिक्त निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश हेतु निर्धन छात्रों के लिये आरक्षण की व्यवस्था भी उपयोगी है साथ ही शिक्षा को व्यवसाय के रूप में अपनाने वालों के लिये ऐसे नियम और नीतियाँ बनायी जायें जिससे शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभाव न पड़े।