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अधिगम के नियम व सिद्धांत | थार्नडाइक का नियम
अधिगम के तत्परता के नियम से क्या तात्पर्य है?
अधिगम के तत्परता के नियम – बालक के विकास की प्रक्रिया में शिक्षा का प्रमुख स्थान है। विकास की इस प्रक्रिया में अधिगम का सर्वाधिक महत्त्व होता है। विशेषकर मानसिक पक्ष का विकास करने के लिये वांछित अनुभवों को प्रदान करना आवश्यक होता है। इनके आधार पर ही बालक के विकास की प्रक्रिया को सम्पन्न कर पाना सम्भव हो पाता है। इस प्रकार अधिगम विकास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधार है। इसी कारण विभिन्न मनोवैज्ञानिकों के द्वारा अधिगम के विभिन्न सिद्धान्तों का विकास किया गया है। शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में इन सिद्धान्तों का विशेष महत्त्व है।
अधिगम के नियम बताइए।
अधिगम के नियम– व्यक्ति के विकास में अधिगम की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण है। यह प्रक्रिया किसी-न-किसी नियम के आधार पर ही संचालित होती है। हमारी सीखने की प्रवृत्ति किसी नियम के अनुसरण का ही परिणाम होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों एवं परीक्षणों के आधार पर इन नियमों को खोज निकाला है। इन नियमों के अन्तर्गत थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित नियमों का विशेष महत्त्व है। इसके साथ ही स्किनर, गैस्टाल्ट, लैविन आदि मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित अधिगम के सिद्धान्त भी सार्थक अधिगम की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। अभिप्रेरणा की विभिन्न विधियाँ व अध्ययन इन नियमों एवं सिद्धान्तों पर ही आधारित हैं। इनकी अवहेलना करके परिवर्तन का कोई भी प्रयास सार्थक नहीं हो सकता है।
20वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही मनोवैज्ञानिकों द्वारा सीखने से सम्बन्धित नियमों की खोज की जाती रही है। सीखने से सम्बन्धित जिन नियमों को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त हुई है, उनमें ई.एल. थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित नियमों का विशेष महत्त्व है।
थार्नडाइक का विश्व के मनोवैज्ञानिकों में विशिष्ट स्थान है। अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक “एजुकेशनल साइकोलॉजी” में थार्नडाइक ने इन नियमों एवं सिद्धान्तों का उल्लेख किया है।
थार्नडाइक के अनुसार, “अधिगम एक मानसिक प्रक्रिया है जो प्राणी को किसी विशिष्ट प्रकार का व्यवहार करने की दिशा में प्रेरित करती है। एक विशिष्ट प्रकार की परिस्थिति में किसी उद्दीपन का सम्बन्ध एक विशिष्ट अनुक्रिया से होने पर प्राणी को कुछ न कुछ सीखने का अवसर प्राप्त होता है।”
अधिगम के अभ्यास एवं प्रभाव के नियम बताइए।
थार्नडाइक का “उद्दीपन अनुक्रिया” के नाम से सम्बोधित किया है। थार्नडाइक ने अपनी पुस्तक में अधिगम के जिन नियमों का उल्लेख किया है, उनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है.
(क) मुख्य नियम-
1. तत्परता अथवा तैयारी का नियम, 2. अभ्यास का नियम, 3. प्रभाव का नियम।
अधिगम से सम्बन्धित मुख्य नियमों के अन्तर्गत तैयारी का नियम, अभ्यास का नियम तथा प्रभाव के नियम को सम्मिलित किया गया है। ये निम्न प्रकार हैं
तैयारी का नियम-थार्नडाइक के अनुसार, कार्य के प्रति तत्परता, प्राणी के सीखने की गति एवं मात्रा को विशेष रूप से प्रभावित करती है। स्वाभाविक रूप से यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने हेतु मानसिक व शारीरिक रूप से तत्पर रहता है तो वह उस कार्य में अपना ध्यान अधिक समय तक केन्द्रित कर पाता है तथा उस कार्य को आनन्दपूर्वक करते हुये अधिकाधिक सीखने का अवसर प्राप्त करता है। इसके विपरीत अवस्था में व्यक्ति का ध्यान एकाग्र नहीं हो पाता तथा असन्तोषजनक स्थिति में कार्य करते हुये सफल नहीं हो सकता।
अभ्यास का नियम-अभ्यास द्वारा किसी कार्य को सफलतापूर्वक सीखा जा सकता है। इसके माध्यम से व्यक्ति के कौशल में वृद्धि होती है। इस नियम को उपयोग व अनुपयोग के नियम के नाम से भी जाना जाता है।
थार्नडाइक के अनुसार-“यदि विषय-वस्तु जीवन से सम्बन्धित अथवा उपयोगी है तो वह विषय-वस्तु अधिक रुचिकर एवं प्रेरणादायी सिद्ध होती है तथा उस विषय-वस्तु को अपेक्षाकृत अधिक सहजता से ग्रहण किया जा सकता है।” गणित एवं विज्ञान से सम्बन्धित विषय-वस्तु का अधिगम कराने में अभ्यास का नियम अत्यधिक सहायक है।
प्रभाव का नियम-थार्नडाइक के अनुसार, कक्षा में इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न की जानी चाहिए जिसमें विद्यार्थियों को अधिकाधिक सफलता प्राप्त हो सके। अपने प्रयासों के फलस्वरूप जब किसी शिक्षार्थी को सन्तोषजनक सफलता प्राप्त होती है या उसके कार्यों का परिणाम सकारात्मक रूप में सामने आता है तो स्वाभाविक रूप से उसे सुख एवं सन्तोष की अनुभूति होती है। सुख एवं संतोष की यह अनुभूति ही उन्हें सतत् रूप से सीखने के लिए प्रेरित करती है।
अधिगम के गौण नियम कौन-से हैं ?
थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित गौण नियम इस प्रकार हैं-
(क) गौण नियम-
1. बहु प्रतिक्रिया का नियम। 2. साहचर्य परिवर्तन का नियम। 3. आत्मीकरण का नियम। 4. आंशिक क्रिया का नियम। 5. मनोवृत्ति का नियम।
1. बहुप्रतिक्रिया का नियम-
इस नियम के अनुसार, अधिगम की दिशा में अपना कोई निर्णय थोपने के विपरीत जहाँ आवश्यक हो, व्यक्ति को अपना निर्देशन प्रदान करना चाहिये। थार्नडाइक के अनुसार-“जब कोई प्राणी किसी कार्य को सीखना प्रारम्भ करता है तो स्वाभाविक रूप से वह विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियायें करता है, परन्तु धीरे-धीरे अपने प्रयासों के आधार पर ही उसे यह ज्ञात हो जाता है कि सीखने की दृष्टि से कौन-से उपाय या विधि सर्वश्रेष्ठ है।”
2. साहचर्य परिवर्तन का नियम (Law of Associative Shifting)-
इस नियम को सम्बद्ध परिवर्तन के नियम के नाम से भी जाना जाता है। इस नियम के आधार पर पूर्व अधिगम से सम्बन्धित परिस्थितियों का सृजन किया जाना आवश्यक होता है। थार्नडाइक के अनुसार, “यदि छात्रों के समक्ष नवीन ज्ञान प्रदान करते समय उन्हीं परिस्थितियों का निर्माण कर दिया जाये जो परिस्थितियाँ उसके समक्ष, पूर्व ज्ञान प्रदान करते समय विद्यमान थीं तो वह परिस्थिति की साम्यता के प्रभावस्वरूप अधिक गति के साथ सीखने में सक्षम हो पाता है।”
3. आत्मीकरण का नियम (Law of Assimilation)-
इस नियम के आधार पर पूर्व ज्ञान का नवीन ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है तथा प्रदत्त ज्ञान को शिक्षार्थियों के मस्तिष्क का स्थायी अंग बनाया जाता है। ‘ज्ञात से अज्ञात’ का शिक्षण सूत्र इसी नियम पर आधारित है। इस नियम के आधार पर नवीन ज्ञान के पूर्व ज्ञान से सम्बद्ध करने तथा सम्बद्धीकरण की प्रक्रिया के बाद उसे ग्रहण कर लेने में सहायता प्राप्त होती है।
4. आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)-
इस नियम के अन्तर्गत अंश से पूर्ण की ओर’ शिक्षण सूत्र का अनुसरण किया जाता है। पाठ-योजना को छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त करके प्रस्तुत करना इसी नियम पर आधारित है। वास्तव में जिस ज्ञान का विकास हम छात्रों में करना चाहते हैं, यदि उस ज्ञान को छोटे-छोटे खण्डों में छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाये तो वे उस ज्ञान को अधिक सरलता के साथ ग्रहण कर सकते हैं। इसी प्रकार विभिन्न कौशलों का अधिगम भी, छोटे-छोटे कार्य परक खण्डों में अधिक सहजता के साथ कराया जा सकता है।
5. मनोवृत्ति का नियम (Law of Disposition)-
इस नियम के अनुसार, अधिगम का प्राणी की मनोवृत्ति के निकट सम्बन्ध होता है। किसी ज्ञान को प्राप्त करने अथवा कौशल को विकसित करने के प्रति जिस प्रकार का मानसिक दृष्टिकोण जिस छात्र का होगा, वह उसी के अनुरूप सीख सकेगा। इसके विपरीत स्थिति में शिक्षण की प्रक्रिया को कितना भी प्रभावशाली क्यों न बना दिया जाये ? यदि बालक की अभिवृत्ति अथवा उसका रुझान सीखने के प्रति नहीं है तो वह वांछित अधिगम की दिशा में प्रेरित नहीं किया जा सकता। इसका प्रमुख कारण यह है कि सीखने के लिये जिन गुणों; यथा-रुचि, तत्परता, ध्यान आदि की आवश्यकता होती है, उनका उदय सकारात्मक अभिवृत्ति के अभाव में सम्भव नहीं। अत: कुछ भी सीखने से पूर्व अधिगम के प्रति वांछित मनोवृत्ति का विकास प्रत्येक शिक्षार्थी की प्राथमिक आवश्यकता है।
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