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क्या भारत की शासन-प्रणाली संघात्मक है?
भारत की संघीय प्रणाली के अंतर्गत ऐसी अनेक व्यवस्थाएं हैं जिनसे केंद्र की शक्ति बहुत बढ़ गई है। भारत के संविधान (1950) के अंतर्गत संघ और राज्यों दोनों को अपनी-अपनी शक्तियां एक ही संविधान से प्राप्त होती हैं। संघ की शक्ति संसद में निहित है। संसद के दो सदन हैं। अवर सदन लोक सभा है। इसके 552 सदस्य हैं जो देश की संपूर्ण जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। उच्च सदन राज्य सभा है। इसके 250 सदस्य हैं। इनमें 12 मनोनीत सदस्यों को छोड़कर शेष सब राज्यों की विधान सभाओं के द्वारा चुने जाते हैं। इस तरह राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाला सदन अपेक्षाकृत छोटा है। विधि-निर्माण के अधिकवेशन बुलाया जाता है। उसमें मतदाता के समय स्वभावतः लोक सभा की इच्छा ही विजयी सिद्ध होती है।
संघ के स्तर पर राज्य का अध्यक्ष राष्ट्रपति है जिसे संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधान सभाओं के सदस्यों के द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुना जाता है। राज्य के स्तर पर राज्य का अध्यक्ष राज्यपाल होता है जिसे राष्ट्रपति के द्वारा मनोनीत किया जाता है। यदि राज्यपाल की राय में किसी समय राज्य की सांविधानिक व्यवस्था विफल हो जाए तो वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। ऐसी हालत में जब तक वहां फिर से सामान्य स्थिति स्थापित नहीं हो जाती, वहां संघ का शासन चलता है।
संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के वितरण के लिए संविधान में संघ सूची और राज्य सूची के अलावा समवर्ती सूची की व्यवस्था की गई है। समवर्ती सूची के विषयों पर संघ और राज्य दोनों विधि-निर्माण कर सकते हैं। ऐसे किसी विषय पर संघ और राज्य के कानूनों में असंगति पैदा होने पर संघ का कानून मान्य होगा। अवशिष्ट शक्तियां संघ के पास रहती हैं। कुछ क्षेत्रों को केंद्र- प्रशासित क्षेत्रों के रूप में संघ के अधीन रखा गया है।
यदि राज्य सभा दो-तिहाई बहुमत से यह संकल्प पारित कर दे कि राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए राज्य सूची के किसी विषय पर संसद को विधि-निर्माण करना चाहिए तो संसद को उस विषय पर विधि-निर्माण का अधिकार मिल जाता है। जब आपात काल की उद्घोषणा लागू हो तब संसद को राज्य सूची के किसी भी विषय पर विधि-निर्माण की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
संविधान के संशोधन की शक्ति केवल संसद को प्राप्त है। बहुत थोड़े मामलों में (अर्थात् संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची में संशोधन के लिए, संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व के मामले में और संविधान संशोधन की प्रक्रिया के मामले में) संविधान संशोधन अधिनियम पर कम-से-कम आधे राज्यों की विधान सभाओं का अनुसमर्थन जरूरी होता है।
भारत में एकीकृत न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। अतः न्याय प्रवर्त्तन के स्तर पर यहां राज्यों और संघ के कानूनों में कोई भेदभाव नहीं किया जाता। संयुक्त राज्य अमरीका में किसी राज्य के कानून को उस राज्य का न्यायालय ही लागू करता है जबकि संघ के कानून को संघ का न्यायालय लागू करता है। परंतु भारत में संघ के काननू का मुद्दा किसी राज्य के उच्च न्यायालय में भी उठाया जा सकता है, और किसी राज्य के कानून से जुड़ा हुआ मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय में भी उठाया जा सकता है। इस तरह भारत की न्यायपालिका के गठन में संघीय सिद्धांत लागू नहीं होता।
इन सब विशेषताओं के कारण भारत की शासन प्रणाली को कभी-कभी संघीय या संघात्मक प्रणाली कहने में संकोच किया जाता है, और इसे संघात्मकवत् प्रणाली कहना उपयुक्त समझा जाता है।
संघीय प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन में अफ्रीकी देश नाइजीरिया की शासन प्रणाली के पर विचार कर लेना भी उपयुक्त होगा। जहां विश्व के प्रमुख देशों में केवल लोकतंत्रीय व्यवस्था के अंतर्गत संघीय प्रणाली स्थापित की गई है।
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