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बालक का विकास- शैशव अवस्था,बाल्यअवस्था,किशोरावस्था

3 years ago
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दोस्तों आज के इस आर्टिकल में बालक का विकास Development of Child in Hindi, Balak ka Sharirik Vikas के बारे में  बतायेंगे. जिसके अंतर्गत हम शैशव अवस्था में शारीरिक विकास,बाल्यअवस्था में शारीरिक विकास,किशोरावस्था में शारीरिक विकास,शैशव अवस्था में मानसिक विकास,मानसिक विकास किशोरावस्था,मानसिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक,शैशव अवस्था में सामाजिक विकास,बाल्यावस्था में सामाजिक विकास,किशोरावस्था में सामाजिक विकास,शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास,बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास,किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास,संवेगात्मक विकास,समाजिक विकास,मानसिक विकास, इत्यादि के बारे में विस्तार से बतायेंगे.प्रतिवर्ष uptet,ctet,stet,kvs,dssb,btc आदि सभी एग्जाम में इससे प्रश्न पूछे जाते है।

अनुक्रम (Contents)

  • बालक का विकास Development of Child in Hindi
  • विकास के प्रकार :-
  • शैशव अवस्था में शारीरिक विकास :-
  • बाल्यअवस्था में शारीरिक विकास :-
  • किशोरावस्था में शारीरिक विकास
  • मानसिक विकास :-
  • शैशव अवस्था में मानसिक विकास
  • मानसिक विकास किशोरावस्था :-
    • मानसिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक :-
  • समाजिक विकास :-
  • शैशव अवस्था में सामाजिक विकास :-
  • बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
  • किशोरावस्था में सामाजिक विकास :-
  • संवेगात्मक विकास
  • शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास :-
  • बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास :-
  • किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास :-
      • बाल्यावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएं,विशेषताएं,बाल्यावस्था में शिक्षा
      • शैशवावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएं,विशेषताएं,शैशवावस्था में शिक्षा
      • बाल विकास का अर्थ, परिभाषा, आवश्यकता एवं महत्व
      • अधिगम का अर्थ एवं परिभाषा,अधिगम के नियम, प्रमुख सिद्धान्त एवं शैक्षिक महत्व
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बालक का विकास Development of Child in Hindi

विकास के प्रकार :-

शारीरिक विकास :- शारीरिक विकास का अभिप्राय शारीरिक अंगों के विकास में आकार में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली शारीरिक कार्य कुशलता है।

शैशव अवस्था में शारीरिक विकास :-

1.भार :-

नवजात शिशु (बालक) का भार :– 7.15 पौण्ड या 3 किलो 245 ग्राम

नवजात शिशु (बालिका) का भार :-7.13 पौण्ड या 3 किलो 240 ग्राम

प्रथम 4-6 माह में भार दुगुना व 1 वर्ष के अन्त में तीगुना हो जाता है।

दूसरे वर्ष में भार आधा पौण्ड प्रतिमाह की दर से बढ़ता है और शैशव अवस्था के अंत में 38-43 पौण्ड हो जाता है।

2.लम्बाई :- नवजात शिशु (बालक की ऊचाई) 20.5 इंच होती है।

नवजात शिशु (बालिका की लम्बाई) 20. इंच होती है।

प्रथम वर्ष में लम्बाई 10-12 इंच बढ़ती है तथा बाद में गति धीमी हो जाती

3.सिर का आकार व मस्तिष्क का भाग :- नवजात शिशु सिर का आकार उसकी कुल लम्बाई का 1/2 या
25% होता हैं।

प्रथम दो वर्ष में सिर का आकार तेज गति से बढ़ता है लेकिन इसके बाद धीमी गति से बढ़ता हैं।

नवजात शिशु के मस्तिष्क का भार 350 ग्राम होता है।

प्रथम दो वर्ष में यह दुगुना हो जाता है।

5 वर्ष की आयु में परिपक्व मस्तिष्क का 80% विकास हो जाता हैं।

4.दाँत :- जब शिशु छ: महीने का होता है तो दूध के दाँत निकलने प्रारम्भ हो जाते हैं। सर्वप्रथम नीचे वाले आगे के दो दाँत आते है । जिनकी संख्या 1 वर्ष के अन्त में 8 दाँत हो जाते है। और 4-5 की आयु में सभी (20) दूध दाँत निकल जाते है।

5.हड्डियाँ :- जब नवजात शिशु का जन्म होता है तो हड्डियों की संख्या 270 होती हैं।

ये हड्डियाँ कोमल व लचीली होती है, जो भली प्रकार से जुडी हुई नहीं रहती है। लेकिन केल्सियम, फास्फोरस जै
तत्वों के कारण दिन प्रतिदिन हड्डियाँ मजबूत होती है। इसे अस्थि निर्माण कहते है।

अन्य अंग :- नवजात शिशु की मांसपेशियों का भार कुल भार 23 % होता है।

नवजात शिशु के हृदय की धड़कन 1 मिनट में 140 बार धड़कती है।

टाँगें :- डेढ़ गुनी भुजाएँ, दो गुनी हो जाती है

बाल्यअवस्था में शारीरिक विकास :-

भार:- बालक या बालिका दोनों का भार बढ़ता है और भार 80 से 95 पौंड हो जाता है।

ऊंचाई:- ऊँचाई बहुत धीमी गति से बढ़ती हैं ऊँचाई में कुल वृद्धि 10-12 इंच होती है।

 सिर का आकार व मस्तिष्क का भार :- 9 वर्ष की आयु में सिर का आकार प्रौढ़ सिर का 90 % हो व 10 वर्ष की आयु में प्रौढ़ सिर का आकार 95% हो जाता है। मस्तिष्क का भार 9 वर्ष की आयु में लगभग 90% हो जाता है।

दाँत:- 6 वर्ष की आयु से दूध के दाँत गिरने प्रारम्भ हो जाते है। व 11 व 12 वर्ष की आयु तक सभी दूध के
दाँत गिर जाते हे। व उनके स्थान पर स्थाई दाँत आ जाते है।
हड्डिया :- छोटी छोटी हड्डियों के बनने के कारण हड्डियाँ की संख्यों की संख्या 270 से बढ़कर 350 हो जाती है।

अन्य अंग :- 9 वर्ष की आयु में मांसपेशियों का भार 27% और 12 की आयु में मांसपेशियों का भार 33% हो जाता है।

6 वर्ष की आयु में हृदय की धडकन 1 मिनट में 100 बार हो जाती

12 वर्ष की आयु में 85 बार हो जाती हैं

यौन अंगों का विकास हो जाता है।

किशोरावस्था में शारीरिक विकास

भार :- किशोर व किशोरियों दोनों का भार बढ़ता हैं और भार में अन्तर 25 पौण्ड का होता है।

ऊंचाई :- 16 वर्ष की आयु तक किशोरियां अधिकतम ऊँचाई ग्रहण कर लेती है। जबकि किशोर 18 वर्ष के बाद भी बढते है।

सिर का आकार व स्तष्क का भार :- सिर अपना प्रौढ आकार ग्रहण कर लेता है। और मस्तिष्क का भार
1200 से 1400 ग्राम हो जाता है।

दाँत :- यहाँ दाँतों की संख्या 28 हो जाती है। और प्रज्ञा दंत (अक्ल दांत) आने होते है। जिनकी संख्या 4 होती
है। किशोरावस्था के अन्त में या प्रौढ अवस्था के प्रारम्भ में आ जाते है।

हड्डिया :- छोटी छोटी हड्डियों के जुड़ने के कारण हड्डियों की संख्या 206 रह जाती हैं

अन्य अंग :- हदय की धडकन 1 मिनट में 72 बार होती है और यौन अंगों का पूर्ण विकास हो जाता है।मांसपेशियों का भार कुल भार का 44% हो जाता हैं ।

मानसिक विकास :-

मानसिक विकास :- मानसिक विकास का अभिप्राय मानव ज्ञान भण्डार में वृद्धि होना और उसे नवीन परिस्थितियों में काम लाने की योग्यता के विकसित होने से हे। इसके अन्तर्गत विभिन्न मानसिक शक्तियों, चिन्तन, मनन, तर्क, समस्या, समाधान, निर्णय लेना आदि का विकास शामिल है।

शैशव अवस्था में मानसिक विकास

सारेन टेलफोर्ड के अनुसार :- शिशु जैसे-जैसे प्रतिदिन, प्रतिसप्ताह, प्रतिमाह, प्रतिवर्ष बढ़ता जाता हैं। उसकी शक्तियों में परिवर्तन आ जाता है।

जन्म के समय व प्रथम सप्ताह :-

जॉन लॉक के अनुसार:- जब शिशु का जन्म होता है तो उसका मस्तिष्क कोरे कागज के समान होता है जिस पर वह धीरे-धीरे अनुभव दिखता हैं।

 द्वितीय सप्ताह :- शिशु प्रकाश व चमकीली वस्तुओं की तरफ आकर्षित होता है।

प्रथम माह :- शिशु को कष्ट व भूख का अनुभव होने पर भिन्न-भिन्न प्रकार से रोता है।

द्वितीय माह :- शिशु आवाज सुनने के लिए सिर घुमाता है। और सभी शोर ओर ध्वनियाँ उत्पन्न करता है ।

तीसरा महिना :- अपनी माँ को पहचानने लगता है।

चौथा महिना :- शिशु सभी पीड़ाओं व्यंजनों की ध्वनियाँ उत्पन्न करने लगता है।

पाँचवा व छठा महिना :- शिशु अपना नाम समझने लगता हैं व प्रेम व क्रोध में अन्तर करने लगता है।

सातवा व आठवा महिना :- शिशु अपनी पंसद का खिलौना छाँट लेता है।

नवा व दशवा महिना :- खिलौना छिनने पर रोकर विरोध प्रकट करता है।

एक वर्षः- शिशु चार शब्द बोलने लगता है “पा. मा, दा, का’

दो वर्ष :- दो शब्दों को बोलने लगता है । 2 वर्ष के अन्त में उसका शब्द भण्डार 100 से 200 शब्दों का
हो जाता है।

तीन वर्ष :- शिशु पूछने पर अपना नाम बता देता है। सीधो व लम्बी रेखा को देखकर वैसी बनाने की कोशिश करेगा।

चौथा वर्ष :- शिशु चार तक की गिनती गिन लेता है। छोटी व बडी रेखा में अन्तर बता देता है। अक्षर लिखना प्रारम्भ कर देता है।

पाँचवा वर्ष :- शिशु भारी व हल्की वस्तुओं मे अंतर कर लेता है व 10, 11 शब्दों का जटिल वाक्य बोलता है।

8 वर्ष :- बालक छोटी छोटी कहानियों व कविताओं को दोहराने की योग्यता प्राप्त कर लेता है व एक पेराग्राफ की कहानी से 5-6 प्रश्नों के उत्तर दे देता हैं।

9 वर्ष :- बालक को दिन, समय, दिनाक, मुद्रा, नाप, तोल, गणना, द्रव्यमान, आयतन आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

10 वर्ष :- बालक 3 मिनट में 60 से 70 शब्द बोलता है। वह दैनिक जीवन में जो नियम, परम्पराएँ होती है उनसे परिचित हो जाता है।

11 वर्ष :- बालक में निरीक्षण व जिज्ञासा की योग्यता विकसित हो जाती है।

12 वर्ष :- बालक में तर्क व समस्या समाधान की योग्यता विकसित हो जाती है।

मानसिक विकास किशोरावस्था :-

1. मानसिक स्वतन्त्रता
2. मानसिक योग्यताएँ प्राप्त हो जाती है।
3. ध्यान शक्ति का विकास
4. कल्पना शक्ति का विकास, अर्द्ध सपनों, मन तरंग का विकास
5. तर्क शक्ति का विकास
6. चिन्तन शक्ति का विकास
7. रूचियों की विविधता
8. बुद्धि का अधिकतम विकास

हारमोन के द्वारा 15 वर्ष तक
जोन्स व कोमाड 16 वर्ष तक
स्पीयरमेन 14-15 वर्ष तक

वुडवर्थ ने कहा :- “15 से 20 वर्ष तक मानसिक विकास उच्चतम स्तर प्राप्त कर लेता है।”

मानसिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक :-

1. वंशानुक्रम
2. परिवार का वातावरण
3. परिवार की सामाजिक स्थिति
4. माता-पिता की शिक्षा
5. विद्यालय का वातावरण
6. शिक्षक का व्यहार
7. शारीरिक स्वास्थ्य
8.समाज का वातावरण

समाजिक विकास :-

सामाजिक विकास का अर्थ :- सामाजिक सम्बन्धों में परिपक्वता प्राप्त करना हैं।

सामाजिक विकास अभिप्राय :- समाज स्वीकृत व्यवहार प्रतिमानों के सीखने की प्रतिक्रिया से है।

शैशव अवस्था में सामाजिक विकास :-

क्रो एण्ड क्रो के अनुसार :- जन्मजात शिशु ना तो सामाजिक प्राणी होता हे ना असामाजिक प्राणी होता हैं । लेकिन इस अवस्था में वह अधिक समय तक नहीं रह पाता है।

प्रथम महिना:- वह मानव की आवाज को नहीं पहचानता ।

द्वितीय महिना:– केवल मानव की आवाज को पहचानता ।

तीसरा महिना:- वह अपनी माँ को पहचानता हैं।

चौथा महिना:- शिशु अपने पास आने वाले व्यक्ति को बड़े ध्यान से देखता है। और यदि उसके साथ कोई खेलता है तो वह भी खेलता व मुस्कुराता है

पाँचवा व छठा महिना :- परिचित व अपरिचित व्यक्तियों को ध्यान से देखता है व पहचानने लगता हैं। प्रेम व क्रोध में अन्तर करने लग जाता है।

सातवा व आठवा महिना :- शिशु बोले जाने वाली आवाज का अनुकरण करता है।

नवा व दशवा:- महिना शिशु किए जाने वाले व्यवहार का अनुकरण करता है।

प्रथम वर्ष :- मना वाले कार्य को नहीं करता हैं।

द्वितीय वर्ष :- परिवार का सक्रिय सदस्य बन जाता है और पारिवारिक कार्यों में भाग लेना प्रारम्भ कर देता हैं। 

तीसरा वर्ष :- शिशु गली के बच्चों के साथ खेलना प्रारम्भ कर देता है।

चौथा वर्ष :- शिशु का व्यवहार आत्मकेन्द्रित होता है उसे किण्डर गार्डन विद्यालय में भर्ती करवा दिया जाता है। जहाँ पर वह नए सामाजिक सम्बन्धों की रचना करता है।

पाँचवा वर्ष :-  शिशु अपनी वस्तुओं का आदान-प्रदान व साझा करना सीख जाता है।

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

1. बाल्यावस्था का बालक प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश लेता है।जिसके कारण सर्वप्रथम वह स्वयं को नए वातावरण में समायोजित करता है।

2. इसके बाद वह विद्यालय के क्रिया कलापों में भाग लेता है। जिससे उसके सामाजिक व्यवहार में उन्नति देखी
जाती है।

3. बालक का सामाजिक विकास सबसे ज्यादा क्रीडा समुह (खेल का मैदान) के कारण विकसित होता है।

4. बाल्यावस्था का बालक अपने शिक्षक का सम्मान तो करता है । लेकिन उसकी परिहास करने की प्रवृति का
दमन नहीं कर पाता है

बाल्यावस्था का बालक अपने विद्यालय व परिवार और आस पास के व्यक्तियों के बारे में कोई गोपनीय बात का पता करना चाहता है। और उसको सबके सामने बताकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है।

किशोरावस्था में सामाजिक विकास :-

किशोर और किशोरियाँ एक-दूसरे के सामने अपनी श्रेष्ठ वेशभूषा व श्रृंगार के साथ उपस्थित होते है।

किशोर समूह में रहने के कारण प्रेम, स्नेह, सहानुभूति, सहयोग, सदभावना, सहनशीलता आदि सामाजिक गुण
विकसित हो जाते है।

किशोर विभिन्न प्रकार की चिन्ताओं में व कार्यों में असफललाओं के कारण उसके सामाजिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।

संवेगात्मक विकास

अन्दर से गती करना या उतेजित होना

अर्थ :- उत्तेजित दशा ।

वुडवर्थ के अनुसार:- संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।

संवेग दो प्रकार के होते है।

1. बुरे संवेग (निन्दनिय संवेग) क्रोध, घृणा, ईष्या, भय आदि।
2. अच्छे संवेग (अनिन्दनिय सवेंग) :- प्रेम, हर्ष, आनन्द, करूणा, दया आदि ।

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास :-

ब्रिजेस के अनुसार:- जन्म के समय शिशु में उत्तेजना नाम का संवेग होता है। और 2 वर्ष की अवधि में सभी
संवेग उत्पन्न हो जाते है।

स्पिट्रज के अनुसार :- जन्म के समय शिशु में कोई संवेग नहीं होता । जैसे जैसे बालक के अंगों का विकास
होता है। वैसे वैसे संवेगो का विकास हो जाता है।

1. शिशु अपने जन्म के समय से ही अपने संवेगो का प्रदर्शन करता है।
2. शिशु प्रारम्भ में संवेग अस्पष्ट करता है । तथा धीरे धीरे उनमें स्पष्टता आती है।
3. शिशु में संवेग अनिश्चित होते है।
4. शिशु में संवेग तीव्र आते है।
5. शिशु के संवेगात्मक अभिव्यक्ति का विकास धीरे धीरे होता है।
6. एलिस क्रो :- शिशु अपनों से बड़ों का संवेगात्मक व्यवहार का अनुकरण करता है। यही कारण हैं कि उसे उन सब बातों से डर लगता है। जिनसे उनसे बड़े लोगों का डर लगता है।
7. जोन्स :– 2 वर्ष के शिशु को साँप से डर नहीं लगता क्योंकि उसमें भय नाम का संवेग विकसित नहीं हुआ होता। लेकिन वहीं शिशु 3 वर्ष का होने पर अंधेरे से व जानवरों से डरने लगता है। क्योंकि उसने डर नाम का संवेग विकसित हो जाता है।

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास :-

क्रो एण्ड क्रों :- सम्पूर्ण बाल्यावस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति में निरन्तर परिवर्तन होते रहते है।

1. बाल्यावस्था में संवेग स्पष्ट व निश्चित होते है।
2. बाल्यावस्था में संवेगों की तीव्रता में अपेक्षाकृत कमी होती है।
3. बालक के संवेगात्मक विकास में विद्यालय का वातावरण व शिक्षक विशेष रूप से प्रभावित करता है। तथा परिवार का वातावरण ।
4. टोली या समूह में रहने के कारण बालक में ईर्ष्या, घृणा, द्वेष आदि बाधित संवेग आ जाते है।

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास :-

1. दया, प्रेम, क्रोध, करूणा आदि संवेग स्थाई रूप से विकसित हो जाते है।
2. किशोर की शारीरिक शक्ति का उसकी संवेगात्क रूचि उसके व्यक्तित्व पर स्पष्ट रूप से प्रभाव डालती है।
3. जैसे जैसे किशोर का ज्ञान एंव इच्छाएँ बढ़ती संवेगों के उत्पन्न होने की परिस्थितियों में अन्तर आ जाता है।
4. किशोर विभिन्न प्रकार की चिन्ताओं में होता है जिसके कारण वह क्रोधी व चिड़चिड़ा हो जाता है।

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