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मार्क्सवादी पद्धति
मार्क्स ने अपनी इतिहास की आर्थिक व्याख्या के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि पूँजीवाद का अन्त और साम्यवाद का आगमन निश्चित है। उसका विश्वास है। कि इतिहास की शक्तियाँ साम्यवाद के पक्ष में हैं और पूँजीवादी समाज जैसे ही परिपक्वावस्था की प्राप्त होगा, वैसे ही उसका पतन अनिवार्य हो जायेगा, किन्तु मार्क्स नियमिवादी नहीं है और उसका कथन है कि इसके आधार पर साम्यवाद की प्रतीक्षा में चुपचार नहीं बैठ जाना चाहिए। उसके लिए सक्रिय प्रयत्न किया जाना चाहिए।
मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष की सामाजिक परिवर्तनों की पूँजी है और पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों द्वारा निरन्तर शोषित होते रहने से श्रमिक वर्ग में क्रान्तिकारी भावनाएँ आ जाती हैं। अतः पूँजीवादी का अन्त कर साम्यवाद की स्थापना करने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी इसी वर्ग पर है और वही समाजवादी क्रान्ति का नेतृत्व करेगा।
परिवर्तन की पद्धति के सम्बन्ध में मार्क्स का विश्वास था कि पूँजीवाद का अन्त और साम्यवाद की स्थापना शान्तिपूर्ण तरीकों से नहीं की जा सकती। पूँजीपति वर्ग भी कभी अपनी इच्छा से सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों पर से स्वामित्व छोड़ना नहीं चाहेगा, इन साधनों पर उसका अधिकार समाप्त करने के लिए बल और शक्ति का प्रयोग करना ही होगा। ‘साम्यवाद घोषणा-पत्र’ में मार्क्स और एंजिल्स लिखते हैं, “साम्यवादियों को अपने विचारों और उद्देश्यों क छिपाने से घृणा है। वे खुले तौर पर घोषणा करते हैं कि उनके लक्ष्य की प्राप्ति वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का बलपूर्वक उन्मूलन करके ही की जा सकती है। यदि शासक वर्ग साम्यवादी क्रान्ति से काँपता है तो उसे काँपने दो । श्रमिकों के पास अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त खोने के लिए और कुछ नहीं है और जीतने के लिए सारा विश्व पड़ा है।”
मार्क्स और एंजिल्स का कथन था कि क्रान्ति के लिए श्रमिक वर्ग को एक लम्बी तैयार करनी होगी। सर्वप्रथम उसके द्वारा अपने आपको एक वर्ग के रूप में संगठित किया जाना चाहिए। इसी दृष्टि से उसके द्वारा श्रमिक संघों के निर्माण में सक्रिय योग दिया गया था। 1818 का प्रसिद्ध ‘साम्यवादी घोषणा-पत्र’ ‘कम्यूनिस्ट लीग’ नाम की पार्टी का घोषणा-पत्र था और 1864 में उसके प्रयत्नों से ही ‘अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ’ की स्थापना हुई, जो ‘प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय’ के नाम से प्रसिद्ध है। श्रमिक वर्ग द्वारा वर्ग चेतना जागृत कर और विशाल संगठनों की स्थापना का राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष चलाया जाना चाहिए। उनके द्वारा वेतन वृद्धि, काम के घण्टों में कमी और काम की परिस्थितियों में सुधार के लिए आन्दोलन किया जाना चाहिए। इन आन्दोलनों से श्रमिक वर्ग को कुछ सुविधाएँ तो प्राप्त होंगी ही, किन्तु इन आन्दोलनों का महत्व सुविधाएँ प्राप्त करने की दृष्टि से नहीं, वरन् इस दृष्टि से है कि इन आन्दोलनों के द्वारा श्रमिक वर्ग को पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध अन्तिम संघर्ष के लिए तैयार करने का कार्य किया जाता है। श्रमिम क्रान्ति की के लिए मार्क्स का निर्देश है कि प्रत्येक देश में श्रमिक के द्वारा समाज के अन्य सभी वर्गों को संघर्ष में अपने साथ लेकर चलने का प्रयत्नं किया जाना चाहिए। मार्क्स का यह विचार उसकी व्यवहारिकता का ही परिचय देता है।
मार्क्स की कुछ रचनाओं से यह भी संकेत मिलता है कि वह हर अवस्था में क्रान्ति और बल प्रयोग को आवश्यक नहीं मानता था। अपने बाद के जीवन में वह यह सोचने लगा था कि शक्ति प्रयोग के बिना भी पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त किया जा सकता है। 1872 ई. में हेग के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मलेन में मार्क्स ने कहा था, “हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि विभिन्न देशों की संस्थाओं, आचार-विचार तथा रुचियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए और हम इस बात से इंकार नहीं करते है कि इंग्लैण्ड और अमेरिका की तरह ऐसे देश है और यदि मैं आपकी व्यवस्था को अच्छी तरह समझता तो मैं हालैण्ड को भी उनमें सम्मिलित कर लेता, जहाँ कि श्रमिक शान्तिपूर्ण तरीकों से अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु सब देशों में ऐसा नहीं हो इस प्रकार कुछ देशों में उसके द्वारा शान्तिपूर्ण तरीकों से पूँजीवाद के अन्त की आशा की गयी है, किन्तु यह बात अपवादस्वरूप है और सामान्यतया उसका विचार यही है कि पूँजीवाद के विनाश हेतु बल प्रयोग और क्रान्ति जरूरी है। मार्क्स के शब्दों में, “बल एक नवीन समाज को जन्म देने वाले प्रत्येक पुराने समाज की दाई है।’
मार्क्सवादी पद्धति की आलोचना
हिंसा तथा रक्तपात का मार्ग अनुचित – मार्क्स अपने दर्शन में क्रान्तिकारी पद्धति पर ही अधिक जोर देता है, जिसे आलोचकों द्वारा अत्यधिक अनुचित कहा गया है। यह आवश्यक नहीं है कि क्रान्ति के मार्ग को अपनाने से वांछित लक्ष्य प्राप्त हो ही जाए। हिंसा को अपनाने का परिणाम असभ्यता और वर्बरता होता है और इस बर्बरता के आधार पर शान्तिपूर्ण, न्यायपूर्ण तथा व्यवस्थित समाज की स्थापना नहीं की जा सकती है। लॉस्की कहते हैं कि “पूँजीवाद का अन्त साम्यवाद में न होकर ऐसी अराजकता में हो सकता है जिससे साम्यवादी आदर्शों से असम्बद्ध कोई निरंकुशवाद निकले।” पोपर का तो यहाँ तक कहना है कि “व्यावहारिक राजनीति के दृष्टिकोण से हिंसात्मक क्रान्ति की भविष्यवाणी मार्क्सवाद का सम्भवतः सबसे अधिक हानिकारक तत्व है।’
मार्क्सवादी धारणा यह है कि उचित साध्य की प्राप्ति के लिए सभी प्रकार के साधन अपनाएँ जा सकते हैं, किन्तु राजनीति को नैतिकता से पृथक् करने का यह विचार सवयं साम्यवादी अवस्था के लिए अत्यधिक अनिष्टकर है। जोसेफ ई. डैविस ने माक्सवाद की इस त्रुटि के सम्बन्ध में कहा है, “यह एक गम्भीर और मूलभूत त्रुटि है, जिससे वर्तमान सरकार को सदेव ही भय बना रहेगा । “
पद्धति की दृष्टि से तो मार्क्सवाद निश्चित रूप से दोषपूर्ण है और मार्क्सवाद की तुलना में प्रजातान्त्रिक विकासवादी समाजवाद का मार्ग निश्चित रूप से श्रेष्ठ है। प्रो. जोड ठीक ही लिखते हैं कि यह “सोचने का पर्याप्त आधार है कि मन्द गति से प्राप्त सुधारों की नीति, जिसका प्रतिपादन विकासवादी समाजवादियों ने किया है क्रान्ति और वर्ग संघर्ष की विधियों की अपेक्षा, अधिक स्थायी और फलदायक है, भले ही वह अपनी विस्मयजनक न हो।”
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