अनुक्रम (Contents)
राजनीति की आधुनिक धारणा
प्राचीन यूनान में राजनीतिक चरित्र विकसित हुआ था वह राजनीति की चिरसम्मत धारणा का मूलाधार है। उसके अनुसार राज्य में सद्जीवन की प्राप्ति के लिए मनुष्य जो भी कुछ करता है, जिन-जिन गतिविधियों में भाग लेता है या जो-जो नियम, संस्थाएँ और संगठन बनाता है। उन सबको अरस्तू ने राजनीति के अध्ययन का विषय माना। इस युग में मनुष्य के समस्त सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन राजनीति के अंतर्गत होता था। लेकिन आधुनिक राजनीति की धारणा बहुत बदल गई है क्योंकि समाज के प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी सामाजिक स्थिति का संज्ञान लेने की चेष्टा की है। अब उसकी प्रवृत्ति प्राचीन कलाओं और इतिहास के वीरता अध्ययनों से हट कर अपनी ओर लग गई है। तब उसके पास यदि विचारने को कुछ कह लो या तो राजनीति थी, या इतिहास था, और उसी के प्रसंग में वह अपने सामाजिक जीवन को छूने वाले विषयों जैसे नैतिकता, आर्थिकता, कला आदि पर विचार करता था, लेकिन आज ऐसा नहीं है। इतिहास को छूने वाले मानव जीवन के विभिन्न पक्षों का अध्ययन विभिन्न शास्त्र या विषयों के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है। किन्तु यह भले ही कहा जाए कि सामाजिक क्षेत्र का दिग्दर्शन करने वाले विषयों की सत्ता स्वाधीन है लेकिन ऐसा है नहीं। राजनीतिक व्यवहार तथा नीतियों और उनसे प्रस्फुटित होने वाला वातावरण समाज तथा सामाजिक शासकों पर सीधा असर डालता है, उसी कारण सामाजिक संस्कृति के प्रवाह में अनेकों भंवर भी पैदा होते हैं, तथा लहरें भी उठती हैं। और हम भ्रम में पड़कर यह सोचते हैं कि सामाजिक व्यवहार और संस्कृति का विवेचन करने वाले शास्त्र स्वाधीन हैं लेकिन वह सभी राजनीति की आँखों से अपना रूप वाचते हैं। और ऐसा नहीं है कि प्रतिक्रिया स्वरूप सामाजिक रूपों के होने वाले विन्यास राजनीति को प्रभावित न करते हों, बल्कि वह भी राजनीति की धारणा को प्रभावित करने के लिए बराबर की रखकर देते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति आज की राजनीति से जुड़ा हुआ है, कहने को तो यह कहा जाता है कि वर्तमान में राजनीति का प्रत्येक क्षेत्र सीमित हो गया है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता ही होता है क्योंकि सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न संगठनों का आविर्भाव ऐसी प्रतीति देता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इन्हीं संस्थाओं के माध्यम से राजनीति में भाग लेने वालों की संख्या बहुत बढ़ गई है। दूसरी ओर राजनीतिक दर्शन के विचारक भी इसी कारण मनुष्य के समस्त सामाजिक जीवन पर या उसकी गतिविधियों पर विचार नहीं करते। वह भी समाज में गठित सामाजिक संस्थाओं (जो प्रायः अर्द्धराजनीतिक होती हैं) के दृष्टिकोण से ही समाज की उन गतिविधियों पर विचार करते हैं जो सार्वजनिक नीति और सार्वजनिक निर्णयों को प्रभावित करती हैं। इसी प्रक्रिया में, यह एक वास्तविकता हैं कि आज के युग में सार्वजनिक नीतियाँ और निर्णय इने-गिने शासकों, विधायकों या सत्ताधारियों की इच्दा को व्यक्त नहीं करते बल्कि समाज के भिन्न-भिन्न समूहों की परस्पर क्रिया के फलस्वरूप उभरकर सामने आते हैं। इस तरह राजनीति जनसाधरण की उन गतिविधियों का संकेत देती है जिनके द्वारा भिन्न-भिन्न समूह अपने-अपने परस्पर विरोधी हितों में तालमेल स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। यह जरूरी नहीं कि इससे सचमुच न्यायसंगत समाधान ही निकले। कुछ समूह अधिक संगठित, अधिक साधन-संपन्न, अधिक मुखर और अधिक व्यवहार कुशल होते हैं। अतः वे अपने हितों को अन्य समूहों के हितों से ऊपर रखने में सफल हो जाते हैं जिससे सामाजिक जीवन में असंतुलन पैदा हो जाता है। परंत यह आशा की जाती है कि राजनीति की प्रक्रिया में अन्य समूहों को अपने हितों को संगठित करने और बढ़ावा देने की अवसर मिलता रहेगा जिससे आगे चलकर न्यायसंगत समाधान की संभावना बनी रहेगी।
परंपरागत राजनीतिशास्त्र का मुख्य सरोकार राज्य से था, इसलिए इसकी परिभाषा राज्य के विज्ञान के रूप में दी जाती थी। राजनीतिशास्त्र के परंपरागत विद्वानों और लेखकों ने अपना ध्यान मुख्य रूप से इन समस्याओं पर केंद्रित किया— (क) राज्य के लक्षण, मूल तत्व और संस्थाएँ क्या हैं, और (ख) सर्वगुणसंपन्न राज्य का स्वरूप कैसा होगा? परंतु आधुनिक लेखक यह अनुभव करते हैं कि ‘राजनीति’ मनुष्य की एक व्यापक क्रिया है; यह केवल ‘राज्य’ की गतिविधि नहीं है। बल्कि संपूर्ण सामाजिक संगठन के साथ जुड़ी हुई गतिविधि है। अतः आज के युग में राजनीति को राज्य की औपचारिक संस्थाओं और उनके कार्यों का समुच्चय नहीं माना जाता, बल्कि एक व्यापक सामाजिक प्रक्रिया माना जाता है। अब यह जानना जरूरी है कि यह प्रक्रिया किस प्रकार चलती है?
राजनीति का सरोकार संघर्ष और उसके समाधान से है
राजनीति एक विशेष मानवीय क्रिया है। परंतु उसकी प्रत्येक गतिविधि ‘राजनीति’ के दायरे में नहीं आती। हम यह कह सकते हैं कि एक विशेष स्थिति में मनुष्य जो क्रियाएँ करते हैं। ये राजनीति की परिभाषा में आती हैं। इस स्थिति को हम ‘राजनीतिक स्थिति’ कहते हैं। एलेन बाल ने अपनी पुस्तक ‘मॉडर्न पॉलिटिक्स एंड गर्वनमेंट’ (आधुनिक राजनीति और शासन) के अंतर्गत लिखा है, “राजनीतिक क्रिया में मतभेद और उन मतभेदों का समाधान निहित होता है। राजनीतिक स्थिति का सार तत्व संघर्ष और उस संघर्ष का समाधान है।” इसी प्रकार स्टीफेन एल. वास्बी ने अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिक्स साइंस- द डिसिप्लिन एंड इट्स डायमेंशन्स- एन इंट्रोडक्शन’ (राजनीति विज्ञान की भूमिका – विषय और उसके आयाम) के अंतर्गत लिखा है, “जहाँ राजनीति है, वहाँ कोई-न-कोई विवाद रहता है; जहाँ कोई-न-कोई समस्याएँ होती हैं, वहाँ राजनीति होती है। जहाँ किन्हीं समस्याओं पर वाद-विवाद नहीं चल रहा होता, वहाँ राजनीति भी नहीं होती। ” जे. डी. बी. मिलर ने अपनी पुस्तक ‘द नेचर ऑफ पॉलिटिक्स (राजनीति का स्वरूप) के अंतर्गत यह संकेत दिया है कि राजनैतिक स्थिति में संघर्ष के समाधान के लिए शासन या सरकार का प्रयोग किया जाता है। मिलर के शब्दों में, “राजनीतिक गतिविधि मतभेद की स्थिति से पैदा होती है, और इसका सरोकार संघर्ष के समाधान के लिए शासन के प्रयोग से है, चाहे वह कोई परिवर्तन लाने के लिए किया जाए या परिवर्तन को रोकने के लिए। यदि राजनीति को एक सुनिश्चित गतिविधि के रूप में पहचाना हो तो इसके लिए पहले तो विभिन्न पक्षों या व्यक्तियों के बीच कोई आरंभिक मतभेद होना चाहिए, और फिर किसी-न-किसी दिशा में इस मतभेद के समाधान के लिए सरकार भी उपस्थित होनी चाहिए।”
इस तरह, राजनीतिक प्रक्रिया के लिए दो बातें जरूरी हैं: (क) एक तो किन्हीं पक्षों के बीच कोई मतभेद या संघर्ष हो; और (ख) दूसरे, सरकार की सत्ता (Authority) के माध्यम से उस संघर्ष के समाधान का प्रयास किया जाए। एलेन बाल ने राजनीतिक स्थिति का जो उदाहरण दिया है, वह उपर्युक्त उदाहरण प्रतीत नहीं होता। उसने लिखा है, “यदि किसी शिशुगृह में दो बच्चे हों, और एक खिलौना हो, और दोनों बच्चे एक साथ उस खिलौने को पाना चाहते हैं तो वहाँ राजनीतिक स्थिति उपस्थित होगी। ऐसे में दोनों बच्चे मारपीट कर सकते हैं ताकि जो ज्यादा ताकतवर हो, वह, खिलौना ले जाए, या माता वहाँ आकर अपनी सत्ता का प्रयोग करते हुए झगड़ा करने वाले बच्चों का फैसला करा सकती है।” इस उदाहरण में दो कमियाँ हैं। एक तो यह कि इसमें दो बच्चों के निजी संघर्ष का संकेत दिया गया है जो कि राजनीतिक स्थिति का उपयुक्त उदाहरण नहीं है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जो कि राजनीति की परिधि में नहीं आते। जैसे कि घर में बजट को लेकर पति-पत्नी में होने वाला मतभेद या विवाद ‘राजनीतिक स्थिति’ प्रस्तुत नहीं करता। केवल ऐसे ही संघर्ष, मतभेद या विवाद को राजनीति का उपयुक्त विषय मान सकते हैं जो सार्वजनिक स्तर पर पैदा हो, अर्थात् जो ऐसी सामाजिक स्थिति में पैदा हो कि उसके साथ दो या दो से अधिक प्रमुख समूह जुड़े हों, चाहे वह विवाद स्थानीय स्तर पर पैदा हो, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, चाहे वह आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषाई, जातीय या ऐसे ही किसी अन्य स्तर पर पैदा हो। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक संघर्ष का सरोकार हमेशा सार्वजनिक समस्याओं से होता है, निजी समस्याओं से नहीं: वह ‘सार्वजनिक’ समाधान की माँग करता है, निजी समाधान की नहीं, सामान्य भाषा में हम धार्मिक संगठन, विश्वविद्यालय या कारखाने की राजनीति की बात करते हैं। जब तक यह तथाकथित राजनीति किसी अकेले संगठन तक सीमित रहती है, और सार्वजनिक जीवन पर विशेष प्रभाव नहीं डालती, तब तक हम उसे राजनीति विज्ञान के अध्ययन का उपयुक्त विषय नहीं मानते। परंतु कई बार निजी स्तर के संघर्ष सार्वजनिक सरोकार के विषय बन जाते हैं, और राजनीति के दायरे में आने लगते हैं। जब पति-पत्नी का निजी विवाद परिवार में स्त्रियों की स्थिति या समाज में स्त्रियों के अधिकारों की समस्या बन जाता है तब वह राजनीति का विषय हो जाता है, क्योंकि वह सार्वजनिक समाधान की माँग करने लगता है। एलेने बाल के उदाहरण में दूसरी कमी यह है कि उसमें बच्चों के संघर्ष के समाधान का एक यह तरीका सोचा गया है कि वे मार-पीठ कर सकते हैं, अर्थात् हिंसा का सहारा ले सकते हैं। परंत ‘हिंसा’ या युद्ध का सहारा लेना राजनीतिक समाधान की कोटि में नहीं आता। इसमें संदेह नहीं कि कुछ राजनीतिक विवादों की परिणति युद्ध के रूप में होती है। परंतु युद्ध राजनीतिक समाधान की विफलता का प्रतीक है। इसके विपरीत, राजनीतिक समाधान में बातचीत, समझाने-बुझाने, पंच निर्णय, सुलह-समझौते, दबाव, वोटों की गिनती, या ऐसे ही अन्य तरीके से आते हैं जिनमें युद्ध या लड़ाई का सहारा नहीं लिया जाता। युद्ध के बाद संबद्ध पक्षों के बीच समझौते की प्रक्रिया फिर राजनीति का विषय होती है। कुछ भी हो, यह समाधान विवादग्रस्त पक्षों को स्वीकार अवश्य होना। चाहिए। अब यह जानना जरूरी है कि समाधान उन पक्षों को स्वीकार कैसे होता है ?
अब प्रश्न यह उठ सकता है कि क्या यह बात पहले राजनीति के परम्परात्मक रूप में नहीं थी ? निश्चय ही यह तत्व राजनीति में सदा से विद्यमान रहा है क्योंकि उसका सम्बन्ध प्रशासन से हैं, और समाज में प्रशासनिक विधि द्वारा शान्ति बनाये रखना उसका कर्तव्य है, कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक काल में संघर्षों के क्षेत्र कई कारणों से बढ़ गए हैं। राजनीति ने भी उनके समाधानों के लिए अपने वृहत् क्षेत्र का विभाजन कर रखा है। आधुनिक काल में इस संदर्भ में जो परिवर्तन देखने में आया है, वह यह है कि प्राचीन राजनीतिक परम्परा में राजनीतिक संज्ञानिक प्रजा राजनीति को उस प्रकार नहीं कर पाती थी, जिस प्रकार आज के युग में कर पाती है।
राजनीति का सम्बन्ध ‘मूल्यों’ के अधिकाधिक आवंटन से है
वर्तमान राजनीति को सार्वजनिक सहयोग को प्राप्त करने के लिए मूल्यों का अधिकारिक आवंटन करना पड़ता है। मूल्य चिन्तन वैसे तो सदा से ही राजनीति के क्षेत्र का विषय था, लेकिन वर्तमान युग से पहले कभी वह किसी सार्वजनिक अधिकार के रूप में प्रजा से जुड़े हुए नहीं थे। लेकिन ज्यों-ज्यों व्यक्तियों का राजनीतिक परिदृष्य में महत्व बढ़ा और साधारण प्रजा की संगठित शक्ति का अनुभव राजनीति को होने लगा, स्वाभाविक रूप से उसे ‘मूल्यों’ का संज्ञान लेना पड़ा। सार्वजनिक स्तर पर भी यह अनुभव किया जाने लगा कि अपने मूल्यों पर समाज का अधिकार किसी भी दशा के कारण नहीं है, बल्कि उन पर उसका नैसर्गिक अधिकार है। उनका अधिकारिक आवंटन भी होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो स्वयंमेव संघर्ष की स्थिति पैदा होगी ही। ऐसी स्थिति ने आए इसके लिए राजनीति को ‘मूल्यों’ के अधिकारिक आवंटन की ओर ध्यान न देना एक भारी भूल ही कही जा सकती है। डेविड ईस्टन ने अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिकल सिस्टम : एन इंक्वायरी ईंटू द स्टेट ऑफ पॉलिटिकल साइंस’ (राजनीतिक प्रणाली राजनीति विज्ञान की वर्तमान दशा का अन्वेषण) के अंतर्गत लिखा है कि राजनति का संबंध समाज में ‘मूल्यों के आधिकारिक आवंटन से है। इस संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित परिभाषा में तीन महत्वपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनका स्पष्ट विवेचन आवश्यक है। ये शब्द हैं, मूल्य, आवंटन और आधिकारक। मूल्यों से ईस्टन का अभिप्राय है, समाज में मिलने वाली ये वस्तुएँ (लाभ या सेवाएँ, सुख-सुविधाएँ, इत्यादि) जो दुर्लभ हैं और जिन्हें मूल्यवान समझा जाता है या जिनकी कामना की जाती है, चाहे वे भौतिक हों या आध्यात्मिक हों। जैसे कि हम सब रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, परिवहन सेवा, शिक्षा और मनोरंजन के अवसरों, मान-प्रतिष्ठा, इत्यादि की कामना करते हैं, इसलिए ये सब मूल्यों के उदाहरण हैं। दूसरे शब्दों में, मूल्य ऐसी इष्ट वस्तुएँ लाभ या सेवाएँ हैं जिन्हें हर कोई पाना चाहता है, परंतु उनकी कमी है कि उन्हें कोई-कोई ही पा सकता है। अतः इनके मामले में समाज के अंदर एक अनार सौ बीमार’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। आवंटन से उसका अभिप्राय है, विभिन्न व्यक्तियों या समूहों में इन वस्तुओं का वितरण या बँटवारा अर्थात् यह निर्णय करना कि किसे क्या मिलेगा? यह कार्य नीति के द्वारा संपन्न किया जाता है जिसमें निर्णयों का समुच्चय आ जाता है। दूसरे शब्दों में, जैसे बहुत सारे तंतुओं का जाल बुनकर वस्त्र बनाया जाता है, वैसे ही बहुत सारे निर्णयों को मिलाकर नीति तैयार की जाती है, और समाज में मूल्यवान वस्तुओं, लाभों या सेवाओं का बँटवारा इस नीति के अनुसार किया जाता है। निर्णय का अर्थ है, अनेक विकल्पों (Alternatives) में से एक का चयन। उदाहरण के लिए, जब बसें थोड़ी हों और बहुत सारी बस्तियों के लोग बस सेवा की माँग कर रहे हों तब बसें कहाँ-कहाँ से चलाई जाएँ इस बारे में अनेक विचाराधीन हो सकते हैं। इनमें से उपयुक्त प्रस्ताव के चुनाव को ‘निर्णय’ कहेंगे। ‘नीति’ तक पहुँचना और उसे कार्यान्वित करना भी शामिल है। अब ‘आधिकारिक, शब्द की परिभाषा देना रह जाता है। ईस्टन के शब्दों में, कोई नीति जिन लोगों के लिए बनाई जाती है, लागू की जाती है या जिन्हें प्रभावित करती है, वही लोग जब उसका पालन करना आवश्यक या उचित समझते हैं, तब वह नीति आधिकारिक होती है। दूसरे शब्दों में, आधिकारिक सत्ता का ध्येय लोगों को बाध्य करना या विवश करना नहीं है। इसका अर्थ है, किसी विशेष निर्णय या कार्रवाई को लागू करने के लिए लोगों से सहर्ष आज्ञापालन कराने की क्षमता ।
जब हम राजनीति की परिभाषा ‘मूल्यों’ के आधिकारिक आवंटन के रूप में दे देते हैं। तब हम उसे एक सार्वजननी सामाजिक घटना के रूप में पहचानते हैं। दूसरे शब्दों में, राजनीति एक विश्वव्यापी गतिविधि है। किसी भी समाज में अभीष्ट वस्तुएँ, लाभ और सेवाएँ, इत्यादि थोड़ी होती हैं। और उनकी माँग करने वाले लोग ज्यादा होते हैं। अतः ऐसी आधिकारिक सत्ता की जरूरत होती है जो परस्पर विरोधी माँगों को सामने रखकर कोई ऐसा रास्ता निकाल सके जिसे सब लोग स्वीकार कर लें। इसका अर्थ यह नहीं है कि सबकी माँगें पूरी कर दी जाती है, या कोई समाधान हमेशा के लिए स्वीकार कर लिया जाता है। वास्तव में, एक समाधान स्वीकार कर लेने के बाद नई माँगें नए-नए रूपों में प्रस्तुत की जाती हैं, और फिर नए समाधान की तलाश की जाती है। अतः राजनीति एक निरंतर प्रक्रिया है। हम ऐसे किसी समाज की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें राजनीति शुरू ही हुई हो, या समाप्त हो गई हो। राजनीति के इस दृष्टिगोचर के रूप से पहचानते हैं। राजनीति का यह एक आधुनिक दृष्टिकोण है।
इसी भी पढ़ें…
- राजनीतिक आधुनिकीकरण का अर्थ व परिभाषा | राजनीतिक आधुनिकीकरण की विशेषतायें
- राजनीतिक आधुनिकीकरण के प्रतिमान से आप क्या समझते हैं। इसके प्रमुख प्रतिमानों की विवेचना कीजिए।
- राजनीतिक समाजीकरण के साधन | राजनीतिक सामाजीकरण के अभिकरण
- संघवाद का अर्थ | संघवाद की परिभाषायें | संघ निर्माण के लिए आवश्यक शर्तें
- संघीय सरकार के गुण | संघीय सरकार के दोष
- विधि के शासन की सीमाएँ | विधि के शासन के अपवाद