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सम्प्रभुता के भेद
‘सम्प्रभुता’ शब्द को अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। इस सम्बन्ध में भ्रम दूर करने के लिए सम्प्रभुता के कुछ प्रचलित रूपों की व्याख्या निम्न प्रकार की जा सकती है-
सिद्धान्तों तथा जनमत की उपेक्षा कर सके। इसी प्रकार डायसी ने लिखा है कि “वैध सम्प्रभुता कानून बनाने वाली वह शक्ति है जो अन्य किसी भी कानून या विधि से मर्यादित नहीं होती है।” इंग्लैण्ड में संसद सहित सम्राट को इसी प्रकार एक वैधानिक सम्प्रभु कहा जा सकता है। डायसी इंग्लैण्ड के इस वैधानिक सम्प्रभु के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “संसद कानून की दृष्टि से इतनी सर्वशक्ति सम्पन्न है कि एक बच्चे को पूरी उम्र का, मृत्यु के बाद किसी व्यक्ति को राजद्रोही या अवैध सन्तान को वैध घोषित कर सकती है अथवा उचित समझे तो किसी व्यक्ति को स्वयं से सम्बन्धित मामले में भी न्यायाधीश बना सकती है।”
कानूनी सम्प्रभुता की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी जाती हैं-
1. यह निश्चित होती है और न्यायालय इसे स्वीकार करता है।
2. यह किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह में निहित हो सकती है।
3. यह निश्चित रूप से संगठित, स्पष्ट और विधि द्वारा मान्य होती है।
4. वैधानिक दृष्टि से राज्य की इच्छा की घोषणा केवल यही कर सकती है।
5. व्यक्तियों को सभी अधिकार कानूनी सम्प्रभुता से ही प्राप्त होते हैं। अतः स्वाभाविक रूप से व्यक्ति को इस सम्प्रभुता के विरुद्ध कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते।
6. यह असीमित और सर्वोच्च होती है।
राजनीतिक सम्प्रभुता
प्रत्यक्ष प्रजातंत्रीय शासन व्यवस्था वाले देशों में तो वैधानिक सम्प्रभुता और राजनीतिक सम्प्रभुता में कोई अन्तर नहीं होता, लेकिन जिस प्रकार का प्रतिनिध्यात्मक प्रजातंत्र वर्तमान समय में विश्व के अधिकांश राज्यों में प्रचलित है, उसके अन्तर्गत वैधानिक सम्प्रभु और राजनीतिक सम्प्रभु अलग-अलग इकाईयाँ होती हैं। वैधानिक दृष्टि से तो इंग्लैण्ड में पार्लियामेण्ट सम्प्रभु है, किन्तु वास्तविक रूप में पार्लियामेण्ट की सत्ता पर अनेक प्रतिबन्ध हैं। पार्लियामेण्ट जनता के -कल्याण और इच्छाओं के विरुद्ध किसी प्रकार के कानून का निर्माण नहीं कर सकती, क्योंकि जनता पार्लियामेण्ट के सदस्यों को निर्वाचित करती और उन पर नियंत्रण रखती है। वैधानिक सम्प्रभु की सत्ता पर नियंत्रण रखने वाली इस शक्ति को ही राजनीतिक सम्प्रभु कहा जाता है। डायसी के शब्दों में, “जिस सम्प्रभु को वकील लोग मानते हैं, उनके पीछे एक दूसरा सम्प्रभु रहता है। इस सम्प्रभु के सामने वैधानिक सम्प्रभु को सिर झुकाना ही पड़ता है। जिसकी इच्छा से अन्तिम रूप में राज्य के नागरिक मानते हैं वही राजनीतिक सम्प्रभु है।” गार्नर ने भी कहा है कि वैध सम्प्रभुता के पीछे एक दूसरी सम्प्रभुता भी है जो वैध रूप से अज्ञात एवं असंगठित है और जिसमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वह राज्य की इच्छा को वैध आदेश के रूप में व्यक्त कर सके, परन्तु फिर भी जो ऐसी सत्ता है जिसके सम्मुख सम्प्रभुता को नतमस्तक होना पड़ता है और वह है राजनीतिक सम्प्रभुता।” कार्लायल के शब्दों में पार्लियामेण्ट को इस राजनीतिक सम्प्रभु के प्रति यह कहना होता है कि “मैं उनका नेता हूँ और मुझे उनकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए।”
लेकिन यह राजनीतिक सम्प्रभुता कानून द्वारा ज्ञान नहीं होती। यह तो असंगठित और अनिश्चित होती है। संकीर्ण दृष्टिकोण से एक देश के निर्वाचकों को राजनीतिक सम्प्रभु कहा जा सकता है क्योंकि वे ही वैधानिक सम्प्रभु का निर्णय करते हैं, लेकिन दलीय राजनीति, लोकमत और प्रचार के साधनों का भी वैधानिक सम्प्रभु पर नियंत्रण रहता है। इसलिए गिलक्राइस्ट के शब्दों में कहा जा सकता है कि “राजनीतिक सम्प्रभु एक राज्य के अन्तर्गत उन सभी प्रभावों का योग होता है, जो कानूनी सम्प्रभु के पीछे निहित रहते हैं।”
वैधानिक और राजनीतिक सम्प्रभुता के बीच सम्बन्ध
प्रत्यक्ष लोकतंत्रीय शासन में वैध और प्रभुता में कोई अन्तर नहीं होता है और वे क्रियात्मक रूप में मिल जाती हैं, क्योंकि विधि निर्माण में जनता का प्रत्यक्ष हाथ होता है, किन्तु अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता के प्रतिनिधि विधि निर्माता होते हैं। ऐसी स्थिति में जन-प्रतिनिधियों से निर्मित व्यवस्थापिका वैधानिक सम्प्रभु और उस वैधानिक सम्प्रभु पर नियंत्रण रखने वाले निर्वाचक राजनीतिक सम्प्रभु कहलाते हैं।
कानून निर्वाचक समूह की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए और व्यवस्थापिका सभा को सब तरह से उनके आदेशों का पालन करना चाहिए। यदि व्यवस्थापिका ऐसा नहीं करती, तो निर्वाचकों और व्यवस्थापिका में एक-दूसरे के साथ सामंजस्य नहीं रहता और इनमें परस्पर राजनीतिक संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। वैध और राजनीतिक सम्प्रभु दो भिन्न वस्तुएँ नहीं है। वे राज्य की प्रभुता के दो पक्ष हैं यद्यपि उनकी अभिव्यक्ति भिन्न मार्गों से होती है। अतः इन दोनों के बीच अधिकाधिक सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए। प्रो. रिची ने ठीक ही का है कि “श्रेष्ठ शासन की समस्या अधिकांश में वैधानिक सम्प्रभु तथा राजनीतिक सम्प्रभु के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने की समस्या है।”
एक श्रेष्ठ व्यवस्था अंतर्गत वैधानिक सम्प्रभुता को राजनीतिक सम्प्रभु की इच्छा के दर्पण के रूप में कार्य करना चाहिए। वैध प्रभुता या सत्ता राजनीतिक प्रभुता या सत्ता की इच्छा के विरुद्ध आचरण करने का साहस नहीं कर सकती। यदि वह ऐसा करती है तो वैध सत्यता राजनीतिक असत्यता में परिणत हो जाती है।
लोक प्रभुता
लोक प्रभुता का विचार आधुनिक लोकतंत्र का आधारभूत सिद्धान्त है। इस धारणा के अनुसार अन्तिम प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है। लोक प्रभुता के विचार को मध्य युग में मार्सिग्लिओ ऑफ पेडुआ और विलियम ऑफ ओकम आदि विचारकों के द्वारा जन्म दिया गया, परन्तु इस धारणा का प्रमुख प्रतिपादक रूसों है जिसने ‘सामान्य इच्छा’ को ही लोक प्रभुता माना है। ‘सामान्य इच्छा’ से रूसो का तात्पर्य सबकी इच्छा के उस भाग से था जिसमें सामान्य हित निहित हो। उन्नीसवीं सदी में जनतंत्र के विकास के साथ-साथ लोक प्रभुता के सिद्धांत को भी लोकप्रियता मिली और आजकल तो निर्विवाद रूप से यह स्वीकार कर लिया गया है कि राजनीतिक सत्ता का अन्तिम संरक्षण जनता-जनार्दन के हाथों में ही है और जैसा कि ब्राइस ने कहा है, “आधुनिक युग में लोक प्रभुता, लोकतंत्र का आधार और पर्याय बन चुकी है।” परन्तु लोक प्रभुता के सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पष्ट रूप से यह नहीं बताते कि ‘जनता’ शब्द से उनका तात्पर्य क्या है? एक अर्थ में नवजात शिशु से लेकर मृतप्राय व्यक्ति तक, निम्नतम अपराधी से लेकर आदर्शतम नागरिक तक, सभी इस शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। दूसरे अर्थ में, इस शब्द में केवल उन्हीं व्यक्तियों का बोध होता है। जिनमें राजनीतिक चेतना हो, जो उत्तरदायित्वपूर्ण हों, जिन्हें, मताधिकार प्राप्त हो और जो जनसंख्या के बहुमत का निर्माण करते हों। प्रथम अर्थ वाली जनता को प्रभु मानना तो कोरी मूर्खता होगी। इस प्रकार लोक प्रभुता से केवल मताधिकार प्राप्त जनसंख्या के बहुमत का ही बोध हो सकता है और इस अर्थ में राजनीतिक प्रभुता तथा लोक प्रभुता में काई अन्तर नहीं रह जाता। इसीलिए गार्नर ने लिखा है कि “लोकप्रिय सम्प्रभुता का अर्थ निर्वाचक समूह की जनसंख्या की शक्ति से अधिक कुछ नहीं होता और वह उन्हीं देशों में सम्भव है जिनमें व्यापक मताधिकार की प्रणाली प्रचलित करने के लिए वैध रूप से स्थापित मार्गों द्वारा उनकी इच्छा को व्यक्त और प्रसारित करने के लिए क्रियान्वित होती है।” डॉ. आशीर्वादम के अनुसार लोक प्रभुता के सिद्धान्त में निम्न गुण विशेष उल्लेखनीय हैं—
1. शासन का अस्तित्व जनहित के लिए होता है।
2. यदि जान बूझकर जन इच्छाओं की अवहेलना की जाती है तो क्रान्ति की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है।
3. जनमत की अभिव्यक्ति के लिए सरल वैधानिक साधनों की व्यवस्था होनी चाहिए।
4. निश्चित अवधि के बाद चुनाव, स्थानीय स्वायत्त शासन, लोक निर्णय, आरम्भक और प्रत्याह्वान द्वारा सरकार जनता के प्रति प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होनी चाहिए।
5. शासन के द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत ही किया जाना चाहिए, स्वेच्छाचारिता से नहीं।
विधितः और यथार्थ सम्प्रभुता – एक देश के संविधान द्वारा जिस व्यक्ति या समुदाय को शासन करने का अधिकार प्रदान किया जाता है उसे विधितः सम्प्रभु कहते हैं और एक देश के अन्तर्गत व्यवहार में अथवा वास्तव में, जिस व्यक्ति या समुदाय द्वारा शासन किया जाता है, दूसरे शब्दों में, जनता से जो व्यक्ति समुदाय वास्तव में अपनी आज्ञाओं का पालन कराता है, उसे यथार्थ सम्प्रभु कहते हैं। ब्राइस के शब्दों में, “यथार्थ सम्प्रभु वह है जिसकी आज्ञाओं व आदेशों का वास्तव में पालन होता हो, चाहे उसकी प्रभुता के आधार कानूनी हों या न हों।” सामान्यतः विधितः और यथार्थ प्रभु अलग-अलग नहीं होते, क्योंकि कानून द्वारा जिस इकाई को शासन करने का अधिकार प्रदान किया जाता है, व्यवहार में भी उसी के द्वारा शासन किया जाता
किन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में विविधः और यथार्थ सम्प्रभु अलग-अलग हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति एक श्रेणी या बहुसंख्यक जनसमूह राज्य के विद्यमान संविधान और कानून की उपेक्षा कर क्रान्ति, विद्रोह या शक्ति के प्रयोग द्वारा शासन अपने हाथ में लेकर अपनी सरकार स्थापित कर लेता है, तो ऐसी स्थिति में विधितः सम्प्रभु तो पुरानी सरकार ही रहती है, लेकिन नवीन स्थापित सरकार उस राज्य की वास्वतिक ने बेल्जियम, फ्रांस, आदि राज्यों पर कब्जा स्थापित कर 1939-40 में, क्रामवैल ने 1949 में इंग्लैण्ड में और लेनिन ने प्रारम्भ में 1917 में रूस में जो सरकार स्थापित की थी, वह यथार्थ सम्प्रभु ही थी। 1958 में मार्शल अय्यूब ने क्रान्ति के आधार पर पाकिस्तान की शासन शक्ति अपने हाथ में ले ली। लगभग 10 वर्षों तक वे पाकिस्तान के सर्वेसर्वा बने रहे, किन्तु 1968 में सेना की सहायता से याह्याखाँ ने मार्शल अय्यूब को पदच्युत कर शासन की शक्ति पर अधिकार कर लिया।
1973 की दो घटनाओं के आधार पर विविधितः और यथार्थ सम्प्रभुता का भेद किया जा सकता है। 27 जुलाई, 1973 को सरदार मोहम्मद दाऊद ने क्रान्ति के आधार पर अफगानिस्तान के शाह जहीरशाह को अपदस्थ कर सत्ता प्राप्त कर ली। इस प्रकार सरदार मोहम्मद दाऊद की सरकार यथार्थतः सम्प्रभु हो गयी। इसी प्रकार 11 सितम्बर को चिली में राष्ट्रपति साल्वेदोर आयेंद्रे की सरकार के विरूद्ध सफल विद्रोह करके जनरल पानीचेत की सैनिक सरकार ने चिली के यथार्थ सम्प्रभु की स्थिति प्राप्त कर ली। ये यथार्थं सम्प्रभु अच्छे भी हो सकते हैं और आततायी भी। जब विधितः सम्प्रभु आततायी होता है तो जनता परिवर्तन का स्वागत करती है और नवीन शासक को अपना समर्थन प्रदान कर देती है।
लेकिन विधितः सम्प्रभु और यथार्थतः सम्प्रभु अधिक समय तक एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते हैं। या तो विधितः सम्प्रभु थोड़े समय के बाद इस प्रकार के विद्रोह द्वारा स्थापित शक्ति का अन्त करके पुनः यथार्थ सम्प्रभु बन जाते है या विद्रोह द्वारा स्थापित नयी सरकार संविधान में परिवर्तन करके या किसी और प्रकार से जनता की स्वीकृति प्राप्त कर अथवा अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करके विधितः सम्प्रभु भी बन जाती है। उदाहरणार्थ, लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी द्वारा किये गए परिवर्तनों को जब रूसी जनता ने स्वीकार कर लिया तो क्रान्ति द्वारा स्थापित नवीन सरकार यथार्थ सम्प्रभु होने के साथ साथ विधितः सम्प्रभु भी बन गयी। जुलाई, 1973 में सरदार मुहम्मद दाऊद की सरकार ने पहले यथार्थ सम्प्रभुता प्राप्त की और थोड़े ही समय में व्यापक जन समर्थन के आधार पर विधितः सम्प्रभुता भी प्राप्त कर ली।
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