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धर्म-निरपेक्षता से आप क्या समझते हैं?
धर्म-निरपेक्ष समाज में धर्म का कोई स्थान नहीं होता किन्तु भारत जैसे धर्म-प्राण देश में यह अर्थ नहीं लिया जा सकता। भारतीय समाज में इसका जो अर्थग्रहण किया गया है वह ‘सर्व धर्म समभाव’ है अर्थात् राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान होंगे, किसी भी धर्म विशेष को राज्य प्रश्रय नहीं देगा।
42वें संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में समाज के विशेषण के रूप में धर्म-निरपेक्ष (Secular) शब्द जोड़ दिया गया। धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा संविधान में प्रयुक्त विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता की पदावली में अन्तर्निहित है।
अर्थात् “धर्म-निरपेक्ष राज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है जो किसी धर्म विशेष को राज्य-धर्म के रूप में मान्यता नहीं प्रदान करता है।”
यह ऐसा समाज है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को मानने, आचरण करने तथा प्रचार , करने में पूर्ण स्वतंत्र है । इस प्रकार समाज-व्यवस्था सर्व धर्म सद्भाव पर आधारित है । इस समाज-व्यवस्था की पुष्टि के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं-
1. संविधान के अनुच्छेद 25 से 28— ये इसी उद्देश्य से शामिल किये गये थे कि राज्य का धर्म के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाये। ये उपबन्ध एक ओर जहाँ प्रस्तावना में दी गई विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का विस्तार है वहीं दूसरी ओर राज्य को धर्म विशेष से दूर रखने की ओर प्रयास भी है।
2. अनुच्छेद-25 (1) — इसमें सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने का अधिकार है।
3. अनुच्छेद-26– प्रचार, प्रसार एवं धार्मिक आचरण हेतु धार्मिक संस्थाएँ चाहिए । इन संस्थाओं के प्रबंध की स्वतंत्रता के बिना धार्मिक स्वतंत्रता अधूरी ही रहती है।
4. अनुच्छेद-28— यह राज्य पोषित शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना का निषेध करता है और निम्नांकित उपबन्ध करता है-
(A) राज्य निधि से पूरी तरह से पोषित किसी शिक्षा-संस्था में कोई शिक्षा नहीं दी जायेगी ।
(B) राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य-कोष से पोषित होने वाली शिक्षा संस्था में किसी व्यक्ति को धार्मिक शिक्षा या उपासना में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा। उपर्युक्त विवेचना से भारतीय धर्म-निरपेक्ष राज्य व्यवस्था के बारे में निम्नांकित बातें स्पष्ट होती हैं—
1. राज्य किसी धर्म विशेष को आश्रय प्रदान नहीं करता है।
2. सभी धर्मों को समानता की दृष्टि से देखते हुए उनके मानने, प्रचार करने आदि की स्वतंत्रता देता है।
3. प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने, प्रचार करने का अधिकार देता है।
4. धार्मिक संस्थाओं के प्रबंध की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
5. धार्मिक संस्थाओं, न्यासों को धार्मिक शिक्षा की स्वतंत्रता देता है।
इस प्रकार वर्तमान भारतीय समाज को पूर्णरूपेण धर्म-निरपेक्ष समाज बनाने के लिए सभी प्रावधान किये हैं जिससे कि हमारे बहुधर्मी समाज में सर्व धर्म सद्भाव के माध्यम से समन्वित समाज की व्यवस्था स्थापित हो सके।
शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Education)
1. लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास- प्रत्येक समाज कुछ मूल्यों के अनुसार आचरण करता है। मूल्यों की आधारशिला हट जाने पर सामाजिक भवन धाराशायी हो जाता है। अतः लोकतंत्र के विकास के लिए शिक्षा का दायित्व है कि वह बालकों एवं वयस्कों में लोकतांत्रिक मूल्यों (आत्म नियंत्रण, सहनशीलता, सद्भाव, सेवा आदि) का विकास करें।
2. लोकतंत्र को जीवन-शैली के रूप में अपनाना- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य लोकतंत्र को केवल शासन-प्रणाली के रूप में न अपनाकर अपितु एक जीवन-शैली के रूप में अपनाने का प्रयास होना चाहिए।
3. सामाजिक न्याय- सामाजिक न्याय का आधार आर्थिक है। सभी को समुचित सामाजिक न्याय तभी मिल सकता है जब हम सभी नागरिकों को आर्थिक विकास के अवसर प्रदान करें।
4. लोकतांत्रिक समाज- व्यवस्था एवं राष्ट्रीय एकीकरण को सुदृढ़ करना लोकतांत्रिक सामाजिक न्याय का आधार राष्ट्रीय एकता होगी। राष्ट्रीय एकता को मजबूत किये बिना सम्पूर्ण समाज-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायेगी। समाज विघटित हो जाएगा। अतः शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करना होना चाहिए ।
5. धर्म-निरपेक्ष, समाज व्यवस्था एवं धर्म सद्भाव की भावना का विकास- भारत एक बहुधर्मी देश है। इसे ध्यान में रखकर भारतीय संविधान में धार्मिक लोकतंत्र की कल्पना की गई है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी आस्था के अनुसार उपासना आदि करने के लिए स्वतंत्र होगा । इस तरह शिक्षा धर्म-निरपेक्ष, समाज व्यवस्था एवं धर्म सद्भाव की भावना का विकास करती है।
पाठ्यक्रम (Curriculum)
वर्तमान भारतीय समाज-व्यवस्था के अनुरूप पाठ्यक्रम की निम्नांकित विशेषताएँ होनी चाहिए-
1. जनता की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति- सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता छात्र/छात्राओं में शारीरिक श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करना जिससे कि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके और राष्ट्रीय विकास में सहायता कर सके।
2. व्यवसायात्मक पाठ्यक्रम- देश की पहली आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान की है। देश की 60 से 70 प्रतिशत जनता को इनकी सही ढंग से प्राप्ति नहीं होती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार मिल जाये तो इनकी पूर्ति सम्भव हो सकती है। रोजगार मिलना तभी सम्भव हो सकता है जबकि पाठ्यक्रम व्यवसायात्मक होगी।
3. विज्ञान एवं तकनीकी को अनिवार्य स्थान- आज का युग विज्ञान एवं तकनीकी का युग है इनके बिना दैनिक जीवन निर्वाह सम्भव नहीं है। अतः 10 वर्ष की सामान्य शिक्षा में विज्ञान एवं तकनीकी को अनिवार्य स्थान दिया जाना चाहिए।
4. पाठ्यक्रम में लचीलापन – पाठ्यक्रम में लचीलेपन के बिना लोकतांत्रिक सिद्धांत की अवहेलना होती है। अतः पाठ्यक्रम में लचीलापन होना आवश्यक है जिससे कि छात्र-छात्राओं की आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन किया जा सके।
5. बहुमुखी पाठ्यक्रम — व्यक्तियों में वैयक्तिक भिन्नताएँ होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से पाठ्यक्रम बहुमुखी होना चाहिए जिससे कि विभिन्न रुचियों, क्षमताओं की पूर्ति की जा सके ।
6. आठ वर्षीय सामान्य शिक्षा का अनिवार्य पाठ्यक्रम – भारतीय संविधान में 6 से 14 वर्ष तक के बालकों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान है। आठ वर्ष की इस सामान्य शिक्षा के पाठ्यक्रम में शारीरिक श्रम, विज्ञान, शारीरिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य विज्ञान, नैतिक, धार्मिक आदि शिक्षा अनिवार्य रूप से शामिल करने होंगे।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
1. बाल-केन्द्रितता- लोकतंत्र में व्यक्ति प्रमुख है। अतः भारतीय शिक्षण-संस्थानों में अपनाई जाने वाली शिक्षण-विधियों में केन्द्रबिन्दु बालक होना चाहिए। इसमें निम्न शिक्षण-विधियों को शामिल करना चाहिए-
(i) बालक स्वयं अपने अनुभव द्वारा सीखे ।
(ii) बालक स्वयं क्रिया करके सीखे।
2. क्रियात्मकता, प्रयोगशीलता को केन्द्रीय स्थान- क्रिया द्वारा सीखने से सीखना अधिक स्थायी होता है। अतः शिक्षण विधियों में क्रिया एवं प्रयोग विधि को प्रमुख स्थान मिलना चाहिए।
3. लोकतांत्रिक शिक्षण विधियाँ- मॉण्टेसरी, डॉल्टन, प्रोजेक्ट आदि शिक्षण-विधियों को लोकतांत्रिक विधियों में स्थान मिला है। अतः इन पद्धतियों में प्रयुक्त शिक्षण-विधियों को अपनाना चाहिए।