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राजनीतिक संस्कृति के नियामक तत्व
आमण्ड की मान्यता है कि संस्कृतियों की विविधता के लिए कई कारण उत्तरदायी होते हैं। पार्सन्स के अनुसार हर समाज की संस्कृति के तीन नियामक होते हैं। ये हैं—
1. व्यक्तिपरक हित (Subjective Interest),
2. सहभागिता (Participation),
3. राजनीतिक विश्वास (Political beliefs) यथा –
1. व्यक्तिपरक हित- व्यक्ति के राजनीति के बारे में विचार राजनीतिक व्यवस्था द्वारा उसकी आवश्यताओं को पूरा कर सकने की सामर्थ्य या असामर्थ्य के आधार पर बनते हैं। अगर कोई राजनीतिक व्यवस्था, व्यक्ति के हितों की साधक है तो उसका राजनीतिक संस्कृति में सकारात्मक रुख होगा। और अगर व्यवस्था उनमें बाधक है तो उसका नकारात्मक रुख होगा। इसलिए व्यक्तिपरक हित राजनीतिक संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण नियामक माना जाता है।
2. सहभागिता – राजनीतिक व्यवस्था में व्यक्ति किसी उद्देश्य विशेष को प्राप्त करने में सक्रिय भूमिका निभाने आदि के लिए सहभागी हो सकता है। यह सहभागिता चाहे किसी उद्देश्य से प्रेरित हो, चाहे किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के प्रयत्न से संचालित हो, हर अवस्था में वह व्यक्ति की राजनीति सम्बन्धी मान्यताओं व विचारों का निरूपण करती है। अतः व्यक्ति की सहभागिता राजनीतिक संस्कृति का आधारभूत नियामक है।
3. राजनीतिक विश्वास – यदि केवल खाने-पीने और भौतिक स्तर पर जीने से ही सन्तुष्ट नहीं होता। उसके राजनैतिक मूल्य, उसकी राजनैतिक मान्यताएँ और उसके राजनैतिक विश्वास उसे राजनीति से सम्बद्ध करते हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर वह राजनीतिक व्यवस्था में क्रान्ति, राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़ता है। इस तरह राजनीतिक संस्कृति का व्यावहारि नियामक व्यक्ति में राजनीतिक विश्वास व आस्थाएँ होती हैं।
राजनीतिक संस्कृति के घटक और आयाम
राजनीतिक संस्कृति की प्रकृति आत्मगत, मनोवैज्ञानिक और मूल्यात्मक है और उसके घटक निम्नलिखित हैं-
1. व्यक्तिगत उन्मुखतायें (Individual Orientations) – राजनीति का आत्मसात अथवा व्यक्तिगत पहलू ही राजनीतिक संस्कृति है, इस पहलू में समाज के व्यक्तियों की उन्मुखतायें अथवा सुझाव सम्मिलित हैं। आमण्ड और पावेल ने ये उन्मुखतायें निम्नलिखित तीन प्रकार की आँकी हैं-
(i) संज्ञानात्मक उन्मुखतायें- राजनीतिक व्यवस्था का यथार्थ तथा अन्य हर प्रकार का ज्ञान इनमें सम्मिलित है।
(ii) भावात्मक उन्मुखतायें- इन उन्मुखताओं में राजनीतिक लक्षणों की ओर स्नेह, संलग्नता, परित्याग इत्यादि की अनुभूतियाँ सम्मिलित हैं।
(iii) मूल्यांकन उन्मुखतायें- इनमें राजनीतिक वस्तुओं के सम्बन्ध में वे निर्णय और मत होते हैं जो राजनीतिक वस्तुओं और घटनाओं पर मूल्यांकन कसौटियाँ लागू करने में सहायक होते हैं।
2. राजनीतिक मूल्य– कुछ ऐसे मूल्य होते हैं जो राजनीतिक घटनाओं और व्यवहार के विषय में सभी लोग मानते हैं, जैसे- चुनावों के समय से और निष्पक्ष होने की मान्यता निर्वाचकों के विश्वास का इतना महत्व मानना कि इस विश्वास के प्राप्त न होने पर निर्वाचितों का यह कर्त्तव्य मानना कि वे अपने पदों से त्याग दे दें। यह विश्वास कि किसी भी नागरिक पर अभियोग द्वारा अपराध सिद्ध हो जाये तभी उसे दण्ड दिया जाये इसके बिना नहीं।
3. राजनीतिक विश्वास – इस विषय में सिडनी वेबर द्वारा राजनीतिक संस्कृति की परिभाषा के सन्दर्भ में कहे गए ये शब्द महत्वपूर्ण हैं— “उसका निर्देश जो कुछ राजनीतिक जगत में हो रहा है उससे नहीं होता, बल्कि उससे होता है, जो कि इन घटनाओं के विषय में लोगों का विश्वास है और ये विश्वास कई प्रकार के हो सकते वे इस विषय में व्यावहारिक विश्वास हो सकते हैं कि राजनीतिक जीवन की वास्तविक स्थिति क्या है? वे लक्ष्यों अथवा मूल्यों के विषय में विश्वास है जिनका राजनीतिक जीवन में अनुसरण किया जाना चाहिये, और इन विश्वासों का एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्तिमय अथवा संवेगात्मक आयाम हो सकता है।” राजनीतिक संस्कृति में जो महत्वपूर्ण घटक इस प्रकार राजनीतिक मूल्यों से लगे हुए हैं वे ही राजनीतिक विश्वास है। आमण्ड और पावेल का मत है कि कुछ विचार ऐसे होते हैं जिनका राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं लगता, परन्तु राजनीतिक संस्कृति की विश्वास व्यवस्था उन्हें घनिष्ठ सम्बन्ध में ले आती है, यह तथ्य सिद्ध करता है कि राजनीतिक संस्कृति में राजनीतिक विश्वासों का बहुत महत्व होता है।
4. संवेगात्मक अभिवृत्तियाँ- किसी देश के जनसमुदाय की संवेगात्मक अभिवृत्तियों का के निर्धारण उसके भूतकालीन लम्बे इतिहास द्वारा होती है। ये अभिवृत्तियाँ कभी-कभी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के सुचारू संचालन में बाधक होती है, भारतवर्ष का ही उदाहरण ले तो हम पाते हैं कि लम्बे काल तक राजाओं के शासन में रहने की अभ्यस्त जनता को राजभक्ति या व्यक्ति पूजा की ऐसी आदत पड़ गई है कि वह वर्तमान लोकतान्त्रिक नेताओं में भी राजाओं वाले गुणों को खोजती है, क्योंकि दीर्घकाल तक देश में वंशों का राज्य रहा, इसलिये जनतन्त्र में भी वंश परम्परा उचित ही लगती है, फलतः जनतन्त्र व्यवस्था ठीक-ठीक नहीं चलती, पुराना राजसी वातावरण सा ही बना हुआ है।
राजनीतिक संस्कृति के आधार
राजनीतिक संस्कृति को ठीक-ठीक समझने के लिये उसकी प्रकृति का विश्लेषण किया जाता इस अध्ययन में उसके घटकों का विश्लेषण तो किया ही जायेगा, आधारों का विश्लेषण भी अवश्य किया जाना चाहिये। राजनीतिक संस्कृति के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं-
1. ऐतिहासिक मूलाधार- प्रत्येक देश में प्रत्येक ऐतिहासिक काल में कोई राजनीतिक संस्कृति प्रचलित रहती है। इस संस्कृति के विरुद्ध राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना असम्भव है। कुछ देशों में शताब्दियों तक राजतन्त्र का वैभव रहता है, ऐसे देशों में एकाएक जनतन्त्र की स्थापना असम्भव सी ही होती है। भारतवर्ष में सदैव राजतन्त्र अथवा कुलीनतन्त्र रहा जब देश में अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों पर योरोपीय और ब्रिटिश इतिहास का प्रभाव हुआ तो यहाँ लोकतान्त्रिक मूल्यों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन देशों में पुराने मूल्य नये मूल्यों से मिलकर शनैः शनैः स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होते हैं, वहाँ राजनीतिक प्रगति स्वतः परिवर्तनों के साथ-साथ होती रहती है, इसके लिए किसी क्रान्ति की आवश्यकता नहीं होती इंग्लैण्ड और फ्रांस दोनों इस प्रकार के उदाहरण हैं।
2. भौगोलिक मूलाधार– भौगोलिक कारक, राजनीतिक संस्कृति को सुदृढ़ स्थान देने में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, इंग्लैण्ड की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह यूरोप महाद्वीप से अलग अलग रहा है, इसलिए इंग्लैण्ड में विदेशी आक्रमणों तथा विदेशी लोगों के प्रवेश की समस्या बहुत कम रही है। इससे एक लाभ यह हुआ कि रंगभेद की प्रवृत्ति भी नहीं पनप सकी। भारत की भौगोलिक स्थिति का फल यह हुआ कि प्राचीन काल से ही यहाँ बाहरी आक्रमणकारी आते रहे, इस प्रजातीय अन्तर के कारण समतावादी समाज की स्थापना कठिन होनी चाहिये परन्तु कुछ लोग उसे सम्भव मानते हैं फिर भी प्रजातन्त्रियों के अन्तर से तथा असहिष्णु और बर्बर सम्प्रदाय की धर्मान्धता के कारण साम्प्रदायिकता का विष तो भारत में सदासर्वदा के लिए जम गया ही दीखता है जिन देशों की सीमा भौगोलिक रूप से सुदृढ़ नहीं होती और सरलता से पार की जा सकती है, वहाँ की राजनीति में पड़ौसी देशों का हस्तक्षेप सदैव होता ही रहता है।
3. सामाजिक आर्थिक आधार- इस सम्बन्ध में ए. आर. बाल का यह कथन महत्वपूर्ण है—“एक अधिकांश नगरीय औद्योगिक समाज का एक अधिक जटिल समाज होता है, जो कि तीव्र संदेश-वाहन पर विशेष बल देता है, ग्रामीण समाज परिवर्तन और आविष्कार के लिए तत्पर नहीं होते और अधिकाधिक कृषक जनसंख्या वाले राज्य अधिक रूढ़िवादी होते हैं। यदि अर्थव्यवस्था में परिवर्तन होता है तो व्यापक राजनीतिक परिवर्तन होते हैं, राजनीतिक संस्थाओं पर आर्थिक परिवर्तनों का जो प्रभाव हुआ करता है, उसे कार्ल मार्क्स ने समझने का प्रयत्न किया है, राजनीतिक संस्थायें वैसे ही बनी हैं जैसा अर्थतन्त्र रहा है-पूँजीवादी, समाजवादी या साम्यवादी, इसीलिए राजनीतिक संस्कृति में व्यापक अन्तर दिखाई देता है-जब उद्योगों का विकास होता है तो अर्थव्यवस्था बदलती है और इसके फलस्वरूप राजनीतिक परिवर्तन आवश्यक हो जाते हैं। इसका उदाहरण है आजकल का संसार, पूँजीवादी देश प्रयत्न करते हैं कि उन्हीं का अर्थतन्त्र सारे संसार में फैल जाये, साम्राज्यवाद ने भी व्यापार तथा आर्थिक लक्ष्यों को लेकर अपना विस्तार करना चाहा, अंग्रेजी साम्राज्य तथा अन्य यूरोपीय देशों के उपनिवेश इसका प्रमाण है। साम्यवादी देश भी निरन्तर अपना प्रभाव बढ़ाने में लगे हैं, अमेरिका साम्यवाद के दुष्प्रभाव को रोकने में लगा के है और रूस साम्यवाद फैलाने में।
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