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राजनीति की चिरसम्मत धारणा
राजनीति की चिरसम्मत धारणा अर्थात् राजनीति का चरित्र क्या हो या क्या होना सामाजिक कल्याण के लिए अपेक्षित हैं, वर्तमान युग की राजनीति को देखकर तो और भी गहराई से उभरा हुआ प्रश्न है, चिन्तकों के लिए। प्राचीन युग में राजनीति, राजा और राज्य परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए थे। राजा को इस आदर्श का निर्वाह करते हुए शासन चलाने के दायित्व का निर्वाह करने की अपेक्षा की जाती थी कि वह प्रजा का पालन अपनी सन्तान की तरह करेगा भारतीय राजनीति युगों से राजा से सम्बन्धित थी, अतः भारतीय राजनीति के समस्त आदर्श उसी में केन्द्रित थे। उस युग में भी जब यूनान में नगर राज्यों की प्रजातन्त्रीय प्रशासन प्रणाली चल रही थी भारत में प्रजापालक राजा शासन करते थे। राजा से क्या राजनीतिक अपेक्षाएँ समाज करता था, यदि इसका चित्र देखना हो तो प्राचीन भारतीय वाङ्गमय को देखें। हम यह समझते हैं कि वह अपेक्षाएँ जो पहले राजा से की जाती थीं प्रजातन्त्र युग में प्रजा द्वारा चुने हुए प्रशासकों से की जाने लगीं। यही कारण है कि राजनीति के व्याख्याकार चिन्तकों ने मतदाता से यह आशा रखी कि वह अपने मत का सउपयोग करेगा, अर्थात् वह चुनाव में खड़े ऐसे प्रत्याशियों को चुनेंगा जो आदर्श चरित्र के हों। मतदाता से भी किसी भी प्रलोभन तथा पूर्वाग्रह से मुक्त रहते हुए मतदान करने की अपेक्षा की गई। लेकिन यह एक कागजी कल्पना थी, पूरी तरह मानव में अतिमानवीय चरित्र आरोपित कल्पना। रागद्वेष के चरित्र से चलता हुआ यह संसार इसी कारण तो विलक्षण है कि भौतिक जीवन की सुख सुविधाओं के लिए ललकते लोग निष्काम नहीं हैं, वह सामाजिक व्यवहार में निस्त्रह नहीं कर सकते। नीतिशास्त्र भी समाज को निस्प्रह व्यवहार और आदर्शों की शिक्षा देने के लिए ही समाज में प्रादुर्भूत हुआ और आदर्श चरित्र को प्राप्त करने के लिए समाज में यह अपेक्षा की गई कि वह ‘सत्य और अहिंसा’ का मार्ग अपनाये। इसी कारण ‘धर्म’ नामक विद्या अस्तित्व में आई। और भारतीय इतिहास ने तो यह सिद्ध भी कर दिया कि भारत में प्रजा पालक निस्प्रह चरित्र की राजनीति विद्यमान रही, परन्तु यह कहानी पौराणिक काल की है, जिसे आधुनिक इतिहास नहीं मानता। स्वाभाविक बात है कि वह ऐसे निरपेक्ष चरित्र की कल्पना नहीं कर सकता, जैसे भारत के पौराणिक इतिहास में निरूपित हुए हैं। अतः उसे वह ऐतिहासिक सत्य मानने को भी तैयार नहीं। परन्तु सबसे बड़ी विस्मय की बात यह है कि वह प्रशासन चलाने के लिए जिस व्यवस्था का समर्थन करता है, उसके मूलाधार मतदाता और प्रत्याशियों में वैसी ही निस्प्रह आदर्श चारित्रकता की कल्पना करता है यथार्थ रूप में जैसी प्राचीन भारत के राजाओं तथा ऋषियों की थी। उसके सामने ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध उच्च आदर्शों का प्रणयन करने और निर्वाह करने वाले भारत में ही पनपे। गणतान्त्रिक राज्य व्यवस्था के लिच्छिवि और बज्जि गणतन्त्रों के चरित्र का भी ध्यान नहीं रहता जिसमें राज्य की सर्वोत्तम सुन्दरियों आम्रपाली तथा सदानीरा को नगर वधू अर्थात् नगर भोग्या बना दिया था। और उसे प्लेटो, अरस्तू और सुकरात जैस यूनानी चिन्तकों की इस मान्यता के प्रति ध्यान करने की आवश्यकता ही क्या थी, जो उन्होंने मनुष्य जीवन को चलाने के लिए राज्य का अस्तित्व इसलिए आवश्यक माना था कि उससे सदाचारी सद्जीवन की सिद्ध हो। इसी कारण अरस्तू ने तो यहाँ तक कहा कि जो मनुष्य राज्य में नहीं रहता या जिसे राज्य की आवश्यकता नहीं। है, वह या तो निरा पशु होगा या अतिमानव होगा, अर्थात् वह या तो मनुष्यता से बहुत नीचे गिरा हुआ होगा या बहुत ऊँचा उठा हुआ होगा। राज्य के बगैर किसी मनुष्य रूप में नहीं पहचाना जा सकता। राज्य में ‘सद्जीवन की प्राप्ति के लिए मनुष्य जो-जो कुछ करता है, जिन-जिन गतिविधियों में भाग लेता है, या जो-जो नियम, संस्थाएँ और संगठन बनाता है, उन सबको अरस्तू ने राजनीति के अध्ययन का विषय माना। इसे हम राजनीति की चिरसम्मत धारणा कहते हैं। इस युग में मनुष्य के समस्त सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन ‘राजनीति’ के अंतर्गत होता था, अन्य सामाजिक विज्ञान, जैसे कि समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान, सांस्कृतिक मानव विज्ञान, इत्यादि उन दिनों स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं हुए थे। अरस्तू ने राजनीति को इसलिए ‘सर्वोच्च विज्ञान’ का दर्जा दिया क्योंकि वह मानव समाज के अंतर्गत विभिन्न संबंधों को व्यवस्थित करने में निर्णायक भूमिका निभाता है। राजनीति की सहायता से मनुष्य इस धरती पर अपनी नियति को वश में करने का प्रयास करते हैं। अन्य सब ज्ञान-विज्ञान मनुष्य के राजनीतिक जीवन को सँवारने के साधन हैं; राजनीतिशास्त्र समस्त शास्त्रों का सिरमौर है। राजनीति की इस धारणा के अंतर्गत न केवल नागरिकों के कर्तव्यों पर विचार किया जाता है, बल्कि उसमें सारे सामाजिक सम्बन समा जाते हैं, जैसे कि परिवार में पत्नी पर पति के नियंत्रण, संतान पर पिता के नियंत्रण और दास पर स्वामी के नियंत्रण की समस्या, शिक्षा, पूजा-पाठ, त्योहार मनाने के तरीके, खेल-कूद, सैनिक संगठन, इत्यादि । परंतु अरस्तू ने इस तर्क का खंडन किया कि राज्य में सब तरह की सत्ता एक जैसी होती है। इस तरह राजनीति वैसे तो मनुष्य के सम्पूर्ण सामाजिक जीवन को अपने अंदर समेट लेती है, परंतु राज्य या शासन के संचालन में जिस सत्ता को प्रयोग किया जाता है वह दास के ऊपर स्वामी की सत्ता से, पत्नी के ऊपर पति की सत्ता से, या संतान के ऊपर पिता की सत्ता से भिन्न होती है।
यह बात ध्यान देने की है कि अरस्तू के समय का समाज आज के समाज की तरह जटिल नहीं था। उन दिनों लोगों का राजनीतिक जीवन और सामाजिक जीवन इतना घुला मिला था कि इनके पृथक्-पृथक् अध्ययन की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। हालांकि अरस्तू ने राज्य-प्रबंध को गृह प्रबंध की तुलना में उच्च कोटि का प्रबंध माना है, तो भी उसने गृह प्रबंध को राज्य प्रबंध की तुलना में उच्च कोटि का प्रबंध माना है, तो भी उसने गृह प्रबंध को राज्य प्रबंध का अंग मानते हुए उसकी विस्तृत चर्चा की है। फिर, ‘सद्जीवन’ की साधना में राजनीतिक जीवन के साथ-साथ पारिवारिक जीवन का भी अपना महत्व है। इस विचार का अनुसरण करते हुए अरस्तू ने अपने राजनीतिशास्त्र की रूपरेखा बहुत विराट रखी। इस तरह प्राचीन यूनान में राजनीति का प्रयोग-क्षेत्र तो बहुत व्यापक था, परंतु राजनीति से जुड़े हुए लोगों की संख्या बहुत थोड़ी थी। किसी भी यूनानी नगर-राज्य की जनसंख्या में स्वतंत्रजनों की संख्या बहुत ही थोड़ी होती थी, और उन्हीं की गतिविधियाँ राजनीति के दायरे में आती थीं। बाकी जनसंख्या में दास या अन्यदेशी आते थे जिनका राजनीति से कोई सरोकार नहीं था। उदाहरण के लिए, प्लेटो के नगर-राज्य एथेंस में करीब चार लाख की जनसंख्या में करीब ढाई लाख दास थे। मध्य युग में भी राजनीति इने-गिने राजाओं, दरबारियों, सामंत सरदारों, सेनापतियों, नवाबों, रईसों, महन्तों और मठाधीशों की गतिविधि थी, जनसाधारण उनके चाकर थे, या केवल प्रजा थे जिन्हें राजनीति में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं था। परंतु आज के युग में राजनीति जनसाधारण के समर्थन पर आश्रित हो गई है और जनसाधारण के जीवन के साथ जुड़ गई है। अतः जनता का चरित्र भी राजनैतिक दांव-पेच में समा गया है।
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