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शिक्षा की प्रक्रिया | Process of Education in Hindi

शिक्षा की प्रक्रिया की विवेचना करें। (Discuss the process of Education.)

शिक्षा की प्रक्रिया के दो मुख्य रूप हैं-

(1) द्वि-ध्रुवीय प्रक्रिया के रूप में शिक्षा (Education as a Bi-polar Process) और (2) त्रि-ध्रुवीय प्रक्रिया के रूप में शिक्षा (Education as a Tri-Polar Process)।

(1) द्वि-ध्रुवीय प्रक्रिया के रूप में शिक्षा (Education as a Bi-polar Process)

शिक्षा एक प्रक्रिया है, न कि एक आदेश । इस प्रक्रिया में दो व्यक्ति सम्मिलित होते हैं शिक्षक और शिक्षार्थी। दोनों के मध्य पारस्परिक क्रिया होती है, उनके प्रयत्नों का परिणाम शिक्षा है इस प्रकार शिक्षा ‘सहभागी गतिविधि या अनुभवों को साझा करती है। एडम्स इसे द्विध्रुवीय प्रक्रिया कहते हैं। “इस प्रक्रिया में शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य निरंतर पारस्परिक क्रिया होती रहती है और दो ध्रुवों की पारस्परिक क्रिया की भाँति दो व्यक्तिों का परस्पर प्रभाव होता है । इस प्रकार शिक्षा एक सचेतन और सोची-समझी प्रक्रिया बन जाती जिसमें सम्प्रेषण और ज्ञान के परिचालन द्वारा एक व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व के विकास में परिवर्तन लाने के लिए उस पर कार्य करता है। एक बालक भी शिक्षण और अधिगम प्रक्रिया में एक सक्रिय सहभागी होता है। Ross लिखते हैं, “एक चुम्बक की भाँति शिक्षा के अवश्य ही दो ध्रुव होने चाहिए।”

शिक्षा की दो-ध्रुवीय प्रकृति के बारे में विवेचन करते हुए एडम्स शिक्षा की प्रक्रिया के दो पक्षों, व्यक्तिनिष्ठ विषयपरक के बारे में बताते हुए कहते हैं कि उनके विचार में, शिक्षा तब व्यक्तिनिष्ठ बन जाती है जब शिक्षार्थी शिक्षक की सत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता है। और सीधे उसके द्वारा दिए गए उद्दीपनों के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। सामान्यतः ऐसा ही होता है। दूसरी ओर शिक्षा तब विषयपरक बन जाती है जब शिक्षार्थी शिक्षक के प्रयोजनों को समझता है और कभी-कभी अपने विवेक का प्रयोग कर उसे चुनौती देता है या उसका विरोध भी करता है ऐसा कभी-कभार ही होता है। इसलिए एडम्स कहते हैं, “अधिकतर विद्यार्थियों के रहती है।” अनुभव में शिक्षा व्यक्तिनिष्ठ और विषयपरक, दोनों क्षेत्रों में पूरे समय दो ध्रुवीय रहती है।

(2) त्रि-ध्रुवीय प्रक्रिया के रूप में शिक्षा (Education as a Tri-Polar Process)

शिक्षा के आधुनिकतम प्रक्रिया को ‘तीन-आयामी’ कहा जाता है। यह बताया जाता है कि सम्पूर्ण शिक्षा समाज में और सामाजिक व्यवस्था में घटती है । J. E. Adamson ने शिक्षा के तीन- ध्रुवीय सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। उनके अनुसार शिक्षा का सार बालक व बालक के संसार के मध्य समायोजन है। समायोजन की प्रक्रिया सक्रिय और निष्क्रिय, दोनों प्रकार की होती है। बालक अपने वातावरण द्वारा प्रभावित होता है और साथ ही वह वातावरण को प्रभावित करता है और उसे आकार देता है । Adamson के मतानुसार व्यक्ति का सम्पूर्ण वातावरण शिक्षा का स्रोत बन जाता है। शिक्षक सामाजिक वातावरण के प्रकाश में सचेतनता प्रदान कर उसके शैक्षिक अनुभवों को अभिकल्पित करता है और नियोजित करता है। शिक्षा को व्यक्ति और समाज, दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना होता है। उसके स्वभावों, इच्छाओं, मनोवेगों और प्रवृत्तियों को सामाजिक रूप से वांछित मार्गों की ओर निर्देशित किया जाना होता है। यह तभी संभव है जब बालक सामाजिक स्थितियों में भाग ले और उसके व वातावरण के मध्य एक पारस्परिक क्रिया हो। इस प्रकार तीसरा कारक या आयाम ‘सामाजिक वातावरण’ या सामाजिक पक्ष है। इस प्रक्रिया में तीन पक्ष सम्मिलित होते हैं अध्यापक, विद्यार्थी और सामाजिक वातावरण इसे नीचे दिए गए वृत्त की सहायता से सरलता से स्पष्ट किया जा सकता है-

शिक्षा की प्रक्रिया | Process of Education in Hindi

शिक्षा की प्रक्रिया | Process of Education in Hindi

अध्यापक बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले सामाजिक बलों और अन्य कारकों के प्रति पूर्णतः सचेत रहता है। वह उसकी वास्तविक स्वरूप से सहभागिता के लिए स्थितियाँ पैदा करता है व उसे अवसर प्रदान करता है। ड्यूवी ने उचित ही कहा है, “समूची शिक्षा जीवन यात्रा की सामाजिक चेतना में व्यक्ति की सहभागिता से आरंभ होती है।” सामाजिक महत्ता के बिना शिक्षा की प्रणाली सम्पूर्ण नहीं होती। समाज शैक्षिक गतिविधियों को दिशाएं, मार्ग, लक्ष्य और सामग्री प्रदान करता है। बदले में यह इसके प्रगतिशील विकास में हमसे योगदान की अपेक्षा रखती है। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक संगठन शिक्षा की प्रक्रिया में एक आवश्यक घटक और सक्रिय सहगामी बन जाता है।

अतएव शिक्षा एक त्रिभुजीय प्रक्रिया है, जो शिक्षक, शिक्षार्थी एवं सामाजिक कारकों तीनों की क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम है। शिक्षक सामाजिक आवश्यकताओं के आलोक में बालक के व्यक्तित्व को संशोधित करता है, परन्तु यह तभी सम्भव है, जब बालक शैक्षिक गतिविधियों में स्वयं रुचि ले। शिक्षा की मूल परिकल्पना ही बालक की गतिविधियों और अनुभवों को उस ओर मोड़ना है, जहाँ वे कुछ सीख सकें। एक जनतान्त्रिक समाज में इन क्रियाओं का उद्गम वास्तविक सामाजिक जरूरतों में होना चाहिये। एक शैक्षिक व्यवस्था में शिक्षार्थी भी शिक्षक के ऊपर अपनी प्रतिक्रिया करता है, जो उसके व्यवहार में संशोधन का कारण बनती है । इस प्रकार शिक्षण एवं शिक्षा एक साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया बन जाती है। अतएव शिक्षा को परिभाषित करते हुये हम कह सकते हैं कि यह एक सुनियोजित पारस्परिक क्रिया है, जो इसी उद्देश्य से गठित संस्था के भीतर रूप लेती है। इसका आधार मानव व्यक्तित्व की सोच है, जिस पर क्रिया कर व्यक्ति के व्यवहार में वांछित बदलाव लाया जाता है।

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shubham yadav

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