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भारतीय भाषाओं की प्रकृति | Nature of Indian Languages in Hindi

भारतीय भाषाओं की प्रकृति
भारतीय भाषाओं की प्रकृति

भारतीय भाषाओं की प्रकृति (Nature of Indian Languages)

भारत एक बहुभाषी देश है जिसमें विभिन्न संस्कृतियों के लोग रहते हैं। किसी देश की भाषा उसकी संस्कृति की वाहिका होती है। बिना भाषा के संस्कृति का प्रकाशन सम्भव नहीं है। फलत: भाषा और संस्कृति का सम्बन्ध अभिन्न है। संस्कृति होती है किसी राष्ट्र का प्राण, उसका हृदय स्पन्दन, जिसके विना राष्ट्र मृत है। इसी कारण प्रत्येक स्वाभिमानी, स्वतन्त्र राष्ट्र अपनी भाषा को सर्वोच्च आसन पर प्रतिष्ठित करता है। राष्ट्रभाषा राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाली और उसमें अस्मिताबोध जगाने वाली संजीवनी है।

विगत 800 वर्षों तक इस देश की राज-भाषाएँ विदेशी रहीं पहले फारसी, फिर अंग्रेजी। इन भाषाओं के साथ यहाँ मुसलमानी और पाश्चात्य संस्कृतियों का बोलबाला रहा, जो विदेशी भाषाओं के प्रचलन का स्वाभाविक परिणाम था। इस परिस्थिति में देशी भाषाओं को खुलकर पनपने का अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि कोई भी भाषा प्रयोग से ही बढ़ती है। देशी भाषाएँ तो बस जनता जनार्दन के आश्रय में किसी प्रकार जीवित भर रहीं, जिससे भारतीय संस्कृति को उन्होंने मरने नहीं दिया।

सन् 1947 में देश की स्वतन्त्रता के साथ ही यह आशा सर्वथा स्वाभाविक थी कि देश की अपनी भाषा ही राजभाषा बनकर राष्ट्र की एकता एवं सांस्कृतिक पुनजागरण का शंख फेंकेगी और 14 सितम्बर, 1949 को संविधान सभा के 324 सदस्यों में से 312 ने हिन्दी के पक्ष में मतदान करके इस आशा को चरितार्थ भी किया। किन्तु इससे बढ़कर देश का दुर्भाय और क्या होगा कि इस विशाल देश के कोने-कोने से आये विभिन्न भाषा-भाषी प्रतिनिधि यों द्वारा इतने प्रचण्ड बहुमत से पारित प्रस्ताव भी क्रियान्वित न हुआ, क्योंकि इसका दायित्व जिन सत्ताधीशों पर था वे विदेशी भाषा और संस्कृति का विष पीकर बड़े हुए, इसलिए अपने देश की भाषा और संस्कृति से दूर का लगाव भी न रखते थे।

यह सांस्कृतिक पराधीनता 1947 से पूर्व की राजनीतिक पराधीनता से भी अधिक भयंकर है। राजनीतिक पराधीनता में तो राष्ट्र का तन ही बन्धन में रहता है, मन और आत्मा मुक्त रहते हैं जिससे हम अपना खोया वर्चस्व पुनः प्राप्त कर सकते हैं। सांस्कृतिक दासता राष्ट्र के मन और प्राणों को जकड़कर उसे निष्प्राण कर देती है। विश्व की अनेक प्राचीन लुप्त संस्कृतियाँ इसका उदाहरण हैं।

इससे मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का महत्त्व भली-भाँति उजागर हो जाता है। मातृभाषा व्यक्ति को अपनी धरती से जोड़ती है, तो राष्ट्रभाषा विभिन्न प्रदेशों को एकता के सूत्र में बाधकर राष्ट्र को सुदृढ़ और ओजस्वी बनाती है।

इस सम्बन्ध में सेठ गोविन्द दास लिखते हैं-

“भाषा हमारी माँ है वह हमारे सांस्कृतिक शरीर की रचना करती है, उसका पोषण करती है, उसे अनुप्राणित करती है।”

प्रत्येक राष्ट्र की अपनी राष्ट्रभाषा

भाषा-विज्ञान के प्रसिद्ध पण्डित स्वर्गीय डॉ. रघुवीर ने, भोपाल में होने वाले अखिल भारतीय जनसंघ के 10वें वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर अध्यक्षीय पद से भाषण देते हुए 29 दिसम्बर, 1962 ई. को भाषा के सम्बन्ध में निम्नलिखित उद्गार प्रकट किए-

” प्रत्येक सभ्य राष्ट्र की अभिव्यक्ति का माध्यम, उसकी अपनी भाषा होती है। जनतन्त्र का माध्यम जनभाषा है। जनभाषा का विरोध जनतन्त्र का विरोध है। यदि देश में अनेक जनभाषाएँ हैं तो देश में एक केन्द्रीय भाषा ‘हिन्दी’ भी हैं, जो समुद्रों के पास से नहीं बुलाई गई। यह देश से उपजी भाषा है, दूसरी भाषाओं से घुली मिली हुई है। ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से यह भारतीय भाषाओं की सखी और सहेली है। संस्कृति की पुत्री है। कश्मीरी, पंजाबी, नेपाली, सिन्धी, असमिया, बंगला, उड़िसा, गुजराती और मराठी की सहोदरा भगिनी है। तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ की धात्रयी भगिनी है । केन्द्रीय भाषा भारत की एकता की श्रृंखला है। जहाँ भी इसकी आवश्यकता होगी, वहाँ यह सदा विद्यामान रहेगी चाहे उच्च शिक्षालय हों या चाहे अन्तः प्रान्तीय सम्बन्ध हों।”

“स्वभाषा के बिना जनता का विकास सम्भव नहीं। चीनियों ने पिछले 13 वर्षों में जो भी विकास किया है, उसका मूलमन्त्र चीनी भाषा का प्रयोग है । जापानियों ने जापानी भाषा का आश्रय लेकर 30 वर्ष में ही मध्य युग को पार कर वर्तमान युग में प्रवेश किया और इतनी शक्ति का निर्माण किया कि रूस भी परास्त हुआ। अंग्रेजी भाषा जानने वालों की संख्या 2 प्रतिशत से अधिक नहीं। इन जनों की भी मातृभाषा भारतीय है; अर्थात् इनके लिए भी मातृभाषा में ज्ञान प्राप्त करना अधिक सुलभ है। प्रजातन्त्र में शासक वर्ग प्रजा से भिन्न भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। अतः यह प्रजातन्त्र की माँग है कि प्रान्त प्रान्त में अपनी-अपनी भाषाएँ चलें और केन्द्र में केन्द्रीय भाषा चले ।

डॉ. रघुवीर के पूर्ववर्ती भाषाविदों ने भी इस बात का समर्थन किया है कि हिन्दी ही भारतवर्ष की केन्द्रीय भाषा है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने अपने एक ग्रन्थ में कहा है- “यह निर्विवाद सत्य है कि अर्वाचीन भारतवर्ष की सभी भाषाओं में हिन्दी ही इनकी प्रतिभू स्थानीय भाषा। यह 25 करोड़ 70 लाख व्यक्तियों की सहज तथा स्वाभाविक अन्त: प्रान्तीय भाषा है। इन 25 करोड़ 70 लाख लोगों के अतिरिक्त लाखों अन्य लोग इस भाषा को समझ सकते हैं। हिन्दी का स्थान जनसंख्या की दृष्टि से विश्व की समस्त भाषाओं में तृतीय है। उत्तरी चीनी आंग्ल के पश्चात् ही इसका स्थान है।”

डॉ. ग्रियर्सन महोदय ने भी भारतवर्ष के भाषा सम्बन्धी सर्वेक्षण में इसी मत का प्रतिपादन किया है।

डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या द्वारा दिये आँकड़े अविभाजित भारतवीर्ष के हैं। विभाजन के उपरान्त 1951 ई., 1961 ई., 1971 ई., 1981 ई. तथा 1991 में पाँच बार जनगणना हुई है। इन जनगणनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी समझने वालों की संख्या लगभग 40 करोड़ के लगभग है ।

भाषा विज्ञान के आचार्यों के समान ही समय-समय पर भारत राष्ट्र के नेताओं ने भी इस बात का अनुभव किया कि हिन्दी भारत की केन्द्रीय राष्ट्रभाषा है। उन्होंने अपना समस्त कार्य जहाँ हिन्दी में किया, वहाँ देशवासियों को भी इस बात की प्रेरणा दी कि वे दैनिक जीवन में हिन्दी को अपनाएँ।

स्वामी दयानन्द और राष्ट्रभाषा 

1863 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म का प्रचार कार्य प्रारम्भ किया। वे गुजरात के रहने वाले थे और संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। प्रारम्भ में वे अपने भाषण संस्कृत में ही दिया करते थे। परन्तु भारतवर्ष का भ्रमण करते-करते उन्होंने वह अनुभव किया कि अपने सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जनभाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। उन्होंने देखा कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जो भारतवर्ष के अधिकांश भागों में समझी जा सकती है। इसलिए उन्होंने हिन्दी को ही ‘आर्यभाषा’ का नाम देकर अपने समस्त कार्यों को अपनाया। अपने समस्त ग्रन्थ, जैसे ‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’, ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आदि उन्होंने हिन्दी में ही लिखे, ताकि भारतवर्ष का जन-समुदाय उनसे लाभ उठा सके।

1875 ई. में स्वामी दयानन्द जी ने आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का एक उद्देश्य- आर्यभाषा (हिन्दी) का प्रसार करना भी है। आर्य समाज ने गुरुकुलों तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं द्वारा हिन्दी का क्षेत्र व्यापक किया है। लेखक अपने अनुभव के आधार पर कह सकता है कि पंजाब के निवासियों में हिन्दी प्रसार का जो कार्य समाज ने किया है, वह शायद ही किसी अन्य संस्था ने किया हो।

बाबू हरिश्चन्द्र और राष्ट्रभाषा

हिन्दी भाषा के उन्नायकों और उसका प्रचार करने वालों में बाबू हरिश्चन्द्र का नाम आदर से लिया जाता है। उन्होंने अनेक नाटक, काव्य और फुटकर गद्य और (लगभग सभी विषयों पर) निबन्ध लिखकर माँ भारती की उपासना की है। इतना ही नहीं, अनेक सभाओं में भाषण दे-देकर लोगों को हिन्दी का महत्त्व समझाया और उसकी उन्नति के लिए प्रेरित किया। उनका कहना था-

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति का मूल।

एक बार हिन्दी वर्द्धिनी सभा में हिन्दी का महत्त्व समझाते हुए पद्म में एक भाषण दिया। था । यह भाषण ‘हिन्दी प्रदीप’ पत्रिका और ‘हिन्दी भाषा’ नामक पुस्तक में भी प्रकाशित हुआ था। इस भाषण में उन्होंने भी भाषा को उन्नति चाहने वालों के कार्यों की सराहना की और उसके गौरव पर प्रकाश भी डाला।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कहते हैं कि हम हिन्दी के बीच पलते हैं, हिन्दी में सोचते हैं, हिन्दी में विचार करते हैं, साथ ही अपने बच्चों को भी हिन्दी बोलना ही सिखलाते हैं । जो बात बचपन में सीखी हैं, वह सदा के लिए मन पर दृढ़ रूप से छाप छोड़ देती है । जिसके बीच पले, जिसके सहरे चिन्तन करते हैं, आपस में बातचीत करते हैं, उसी के लिए इतना निरादर क्यों, हम उसे पराया क्यों मानते हैं फिर हम पर विदेशी भाषाओं का भार क्यों डाला जाता है। विदेशी भाषाओं में विचार और वार्तालाप के लिए विवश होकर हम अपने विचारों को कुण्ठित करते हैं।

गाँधीजी की राष्ट्रभाषा

लोकमान्य तिलक के देहान्त के बाद भारतवर्ष का नेतृत्व गाँधीजी के हाथ में आया। गाँधीजी को भी, स्वामी दयानन्द के समान, प्रचार कार्य के लिए ग्राम-ग्राम में जाना पड़ता था । उन्होंने भी इस बात को भली-भाँति परिलक्षित किया कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जिसे देश का बहुमत समझता है; अतः यही भारत की राष्ट्रभाषा है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रारम्भिक कर्णधारों में गाँधीजी का भी नाम लिया जा सकता है। शुरू-शुरू में वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशनों में बड़े उत्साह से भाग लिया करते थे। ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार समिति’ की स्थापना गाँधीजी की ही प्रेरणा से हुई। दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रसार में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

गाँधीजी कहा करते थे कि यह कितने शौक की बात है कि हम विदेशियों से स्वतन्त्रता की माँग तो करते हैं परन्तु विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा।

डॉ. हेडगेवार और राष्ट्रभाषा

डॉ. केशवराम बलीराम हेडगेवार ने 1925 ई. में ‘राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ’ की स्थापना की। संघ का प्रमुख उद्देश्य ‘हिन्दू संगठन’ है।

डॉक्टर साहब नागपुर के निवासी थे। प्रारम्भ में कुछ वर्षों में संघ की शाखाएँ मध्य प्रान्त के मराठी क्षेत्रों तक समिति रहीं। परन्तु 1937 ई. में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अखिल भारतीय स्वरूप धारण किया। संघ ने प्रारम्भ से ही अपने समस्त क्रियाकलाप में हिन्दी को ही अपनाया है। जो-जो व्यक्ति संघ के सम्पर्क में आता है, उसका हिन्दीकरण हो जाता है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सफलता का कारण, भारतवर्ष में एक राष्ट्रभाषा का होना है और यह बात तो निर्विवाद ही है कि वह राष्ट्रभाषा हिन्दी है ।

राष्ट्रभाषा

किसी राष्ट्र में प्रचलित समस्त प्रादेशिक भाषाएँ हैं, किन्तु इनमें से जिस एक भाषा के माध्यम से पूरे देश के विभिन्न भाषा-भाषी नागरिक पारस्परिक व्यवहार चलाते हैं, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। इस प्रकार राष्ट्रभाषा किसी देश के समग्र नागरिकों द्वारा स्वेच्छा से विभिन्न भाषा-भाषियों के मध्य व्यवहार चलाने के लिए स्वीकृत भाषा होती है, किसी शासनतन्त्र द्वारा ऊपर से थोपी गई भाषा नहीं। इस प्रकार किसी भाषा का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास किसी देश विशेष में विद्यमान अनेक ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक कारणों के फलस्वरूप होता है। अतः किसी देश की राष्ट्रभाषा बनायी नहीं जाती, परिस्थितिवश स्वतः बन जाती है।

राजभाषा

राजभाषा से आशय उस भाषा से है जिसमें किसी देश का शासनतन्त्र चलाया जाता है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जब कोई देश परन्तत्र होता है तो विजेता राष्ट्र विजित देश पर अपनी सत्ता जमाये रखने के लिए अपनी भाषा उस पर थोपकर अपनी भाषा को पराधीन देन की राजभाषा बनाकर उस देश की भाषा को नष्ट करने का प्रयास करता है, जिससे पराधीन देश की सांस्कृतिक चेतना मर जाये और वह सदा विजेता का वशवर्ती होकर रहे । इसलिए जब कोई परतन्त्र राष्ट्र स्वाधीन बनता है तो वह स्वभावतः ही पहला काम अपनी राष्ट्रभाषा को राजभाषा बनाने का प्रयास करता है, क्योंकि वहाँ एक ऐसी भाषा होती है जिसे किसी देश के अधिकांश नागरिक समझ बोल सकते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय भाषा 

जिस प्रकार किसी देश में प्रचलित अनेक भाषाओं में से एक विभिन्न ऐतिहासिक, राजनीतिक आदि कारणों से वहाँ की विभिन्न भाषा-भाषी जनता द्वारा पारस्परिक व्यवहार के लिए प्रयुक्त होकर राष्ट्रभाषा का पद पा जाती है- सहज विकास द्वारा कालान्तर में राष्ट्रभाषा वन जाती है उसी प्रकार जब किसी राष्ट्र की भाषा विभिन्न कारणों से संसार के विभिन्न भाषा-भाषी राष्ट्रों द्वारा पारस्परिक व्यवहार की सुविधा के लिए प्रयुक्त होने लगती है तो वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा कहलाने लगती है। इस दृष्टि से देखें तो आज संसार की कोई भी भाषा अन्तर्राष्ट्रीय भाषा कहलाने की अधिकारिणी नहीं, क्योंकि प्रत्येक स्वतन्त्र, स्वाभिमानी राष्ट्र अपनी भाषा पर गर्व करता है और परकीय भाषा का व्यवहार अपमानजनक समझता है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को संसार के पाँच बलशाली देशों की भाषाओं को अपने यहाँ स्थान देना पड़ा, अन्यथा एक ही भाषा से सारा काम चल जाता। यह बात इस देश के अन्ध अंग्रेजी भक्तों को भली-भाँति समझ लेनी चाहिए।

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shubham yadav

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