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संस्कृति और शिक्षा में सम्बन्ध | Relation Between Culture and Education in Hindi

संस्कृति और शिक्षा में सम्बन्ध (Relation Between Culture and Education)

संस्कृति का शिक्षा के साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रत्येक समाज की शिक्षा-व्यस्था का उस समाज की संस्कृति पर स्पष्ट प्रभाव होता है। शिक्षा व्यवस्था के आधार की आवश्यकताएँ होती हैं, इनकी पूर्ति शिक्षा द्वारा ही की जाती है। शिक्षा-व्यवस्था पर संस्कृति का प्रभाव पड़ता है। हम जो कुछ भी लिखते हैं उस पर हमारी संस्कृति का स्पष्ट छाप होती है और वह शिक्षा के साथ संस्कृति के घनिष्ठ सम्बन्ध को सिद्ध करती है । सामाजिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं आदि का सीधा प्रभाव हमारे सोचने, समझने, कार्य करने, स्मरण करने आदि क्रियाओं पर पड़ता है। व्यक्ति उन तत्त्वों को शीघ्र अपनाने का प्रयास करता है जो समाज में उच्च मान्यता प्राप्त किये हुए होती है और संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग मानी जाती है। संस्कृति समाज में अन्य वस्तु को सीखने और धारण करने की अमान्य वस्तुओं के भूल जाने की प्रेरणा देती है।

स्पष्ट है कि शिक्षा और संस्कृति का बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। ऐसे समाज जो कम विकसित होते हैं जहाँ केवल मानव जीवन को सामान्य वस्तुओं की आवश्यकता होती है वहाँ शिक्षा-व्यवस्था भी साधारण होती है चूँकि संस्कृति जटिल होती है। संस्कृति के स्वरूप के जटिल होने से ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित करने के लिए सर्वाधिक शिक्षा की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए विद्यालयों की जरूरत होती है । संसार में अनेक संस्कृति हैं, उन सबके तत्त्वों में वैभिन्नय है। संस्कृति और शिक्षा दोनों एक दूसरे को किस प्रकार प्रभावित करती है निम्न तथ्यों के माध्यम से माना जा सकता है।

संस्कृति और शिक्षा में सम्बन्ध

संस्कृति और शिक्षा में सम्बन्ध

संस्कृति का शिक्षा पर प्रभाव 

संस्कृति शिक्षा को निम्न प्रकार से प्रभावित करती है-

1. संस्कृति द्वारा मनुष्य का पर्यावरण से समायोजन – मनुष्य प्रकृति का पुत्र माना जाता है। प्रकृति की गोद में पर्यावरण के आंगन में विचरण करके बड़ा होता है। पर्यावरण का तात्पर्य उन सभी दशाओं और परिस्थितियों की सम्पूर्णता से है जो एक प्रणाली के जीवन को चारों ओर से घेरे हुए हैं। इसके अन्तर्गत प्राकृतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण आदि आते हैं। संस्कृति द्वारा व्यक्ति उन सभी पर्यावरण से समायोजन करना सीखता है। संस्कृति व्यक्ति को इतना सूक्ष्म बनाती है कि व्यक्ति स्वयं को हर तरह के पर्यावरण के अनुकूल ढालता है।

2. संस्कृति द्वारा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास— संस्कृति विचार एवं व्यवहार का सम्मिश्रण है। इसके द्वारा व्यक्तित्व के विभिन्न तत्व जागरूक होते हैं। इसी जागरूकता के परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने में सफलता मिलती है और उसका सम्पूर्ण एवं संगठित रूप उभरकर सामने आता है 1

3. संस्कृति का शिक्षा-व्यवस्था पर प्रभाव– संस्कृति शिक्षा-व्यवस्था में अनेक पहलुओं को प्रभावित करती है। जैसे शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण विधियाँ, पाठ्य-पुस्तकें, अनुशासन, विद्यालय, अध्यापक तथा छात्र आदि। प्रत्येक संस्कृति के कुछ पाठ्यक्रम, मूल्य होते हैं। उदाहरणार्थ, भारतीय संस्कृति के शाश्वत् मूल्य-परोपकार सेवा, मानव सेवा इत्यादि शिक्षा में इन्हें स्थान दिया गया व कुछ मूल्य तत्कालीन समाज से सम्बन्ध रखते हैं जो समाज के अनुरूप बदल जाते हैं।

4. संस्कृति निरन्तरता में सहायक- संस्कृति किसी भी जाति के इतिहास का विशु‍ सार है। यह उन रीतियों और परम्पराओं से मिलकर बनती है जिनमें उस जाति के लम्बे समय के अनुभवों का निचोड़ होता है। शिक्षा जाति की संस्कृति या सांस्कृति के परम्पराओं की निरन्तरता में महान योग देती है।

5. संस्कृति परिवर्तन में सहायक- बालक जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे अपनी संस्कृति की रीति-रिवाज, आदत, नियम आदि को सीखता जाता है। उसके व्यवहार में निरंतर परिवर्तन होता चला जाता है। परिवर्तन का यह कार्य चेतन और अचेतन दोनों प्रकार से होता है।

6. संस्कृति शिक्षा के स्वरूप को निर्धारित करती है— शिक्षा संस्कृति के परिमार्जन एवं परिवर्द्धन में सहायता करती है। वहीं दूसरी ओर विभिन्न अंग शिक्षक, शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम, शिक्षालय, उद्देश्य विधि, अनुशासन, प्रशिक्षित और निर्देश आदि सुसंस्कृति द्वारा गहन रूप से प्रभावित होते हैं। जिस प्रकार का समाज अथवा उसकी संस्कृति होगी उसी के अनुकूल वहाँ की शिक्षा का स्वरूप भी निर्धारित होगा। समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों आदि का निर्धारण किया जायेगा। संस्कृति में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होने पर शिक्षा के अंगों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है । उदाहरण के लिए भौतिक अथवा चेतनात्मक संस्कृति में शिक्षा का उद्देश्य सांसारिक सुखों की प्राप्ति के साधन जुटाना होगा, पाठ्यक्रम में विज्ञान और तकनीकी का विशेष स्थान होगा तथा अनुशासन की गम्भीर समस्या उत्पन्न होगी । किन्तु यही संस्कृति परिवर्तित होकर यदि अभौतिक या भावात्मक संस्कृति का रूप ले ले तो शिक्षा का उद्देश्य आध्यात्मिक सुख प्राप्त करना हो जायेगा और पाठ्यक्रम विज्ञान और तकनीकी नहीं अपितु धर्म, दर्शन, कला और साहित्य को प्रमुख स्थान मिलेगा। ओटावे का कथन ठीक ही है।

7. संस्कृति ही शिक्षा को सामग्री प्रदान करती है— इस सम्बन्ध में ब्रोमेल्ड ने लिखा है कि, ” संस्कृति की सामग्री से ही शिक्षा का प्रत्यक्ष रूप से निर्माण होता है और वही शिक्षा को न केवल उसके स्वयं के उपकरण और सामग्री, वरन् उसके अस्तित्व के कारण भी प्रदान करती है।”

रुथ बेनेडिक्ट (Ruth Benedict) के अनुसार, “संस्कृति ही व्यक्तित्व के निर्माण का एक मात्र आधार है।” इस बात की पुष्टि में उन्होंने तीन विचार दिये हैं-

(i) विभिन्न स्थानों और समूहों की संस्कृतियों का रूप भिन्न-भिन्न होता है ।

(ii) संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति में परिवर्तन होते हैं।

(iii) संस्कृति आनुवंशिक है अर्थात् पिता से उसकी संतानों को मिलती रहती है। शिक्षा का उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करना है लेकिन व्यक्तित्व के निर्माण का आधार क्या होगा ? यह संस्कृति निर्धारित करती है।

संस्कृति के अनुरूप ही शिक्षा व्यवस्था करनी होगी। उदाहरण लिए, यदि जन-जातियों के बच्चों को शिक्षित करना है तो संगठन के औपचारिक शिक्षा संस्थाओं की
आवश्यकता नहीं, अपितु मैत्रीपूर्ण अनौपचारिक ढंग से उनकी सुविधाओं के अनुसार,

व्यवहारों के द्वारा प्रभावित करना होगा। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना होगा कि कहीं ये अपने सांस्कृतिक जीवन से अलग न हो जाएँ। संस्कृति समाज का समग्र जीवन है और उस समग्र जीवन को पाने के लिए शिक्षा एक तकनीक है

शिक्षा का संस्कृति पर प्रभाव

शिक्षा संस्कृति को निम्न प्रकार से प्रभावित करती है-

1. संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्धन- शिक्षा ही वह साधन है जिससे संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्धन होता है। प्राचीन संस्कृति के विषय में विभिन्न जानकारी हमें शिक्षा द्वारा ही प्राप्त होती है। वर्तमान संस्कृति क्या थी यह जानकारी आने वाली पीढ़ी को शिक्षा द्वारा ही प्राप्त होगी।

2. संस्कृति का स्थानान्तरण- शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिससे संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।

3. सांस्कृतिक ठहराव को दूर करना – शिक्षा सांस्कृतिक ठहराव को दूर करती है। साथ ही भौतिक और अभौतिक संस्कृति के मध्य बढ़ते हुए अन्तराल को भी दूर करती है।

4. शिक्षा में संस्कृति का समावेश-शिक्षा में संस्कृति का समावेश होता है । शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो किसी संस्कृति में पलते हुए बालक के व्यक्तित्व का वांछित दिशा की ओर विकास करती है।

5. व्यक्तित्व के विकास में सहायक- शिक्षा के अनुकूल बालक के व्यक्तित्व को विकसित करती है ।

6. संस्कृति का विकास एवं निरन्तरता – शिक्षा किसी समूह अथवा समाज की निरंतरता को बनाये रखने में बड़ा योगदान करती है। यह शिक्षा ही है जो किसी संस्कृति को नष्ट होने से बचाये रखती है। जिस समाज अथवा देश में शिक्षा का अभाव होगा अथवा शिक्षा का प्रसार नहीं होगा, निश्चय ही वहाँ की संस्कृति अधिक दिनों तक नहीं बनीं रह सकती। किसी समाज अथवा जाति के जीवित रहने के लिए उसकी सांस्कृतिक परम्पराओं का बना रहना अनिवार्य है और सांस्कृतिक परम्पराओं को बनाये रखने के लिए उस समाज को अपने लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं वरन् उसका पर्याप्त प्रसार करना आवश्यक है। शिक्षा के अभाव में संस्कृति की निरंतरता की आशा करना व्यर्थ है।

7. शिक्षा-संस्कृति के संरक्षण और हस्तान्तरण में सहायता करती है- आदि काल से ही हर समाज ने जो अपनी अलग-अलग भाषा, परम्पराएँ, रीति-रिवाज और धर्म, कला साहित्य खान-पान और रहन-सहन के ढंग आदि का ज्ञान प्राप्त किया है, उसका श्रेय शिक्षा का ही है। हर समाज को अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व होता है और वह चाहता है कि उसका यह संस्कृति और सभ्यता सुरक्षित रहे और भावी पीढ़ी को हस्तान्तरित कर दी जाये । इस कार्य में शिक्षा ही सहायता करती है। इस सम्बन्ध में आवे महोदय का कथन, ” शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार प्रतिमानों को उसके तरुण और कार्यशील सदस्यों को हस्तान्तरित करना है।”

8. शिक्षा सांस्कृतिक परिवर्तन में सहायता करती है- सर्वश्री डॉसन तथा गेटिस के शब्दों में सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि समस्त संस्कृति अपनी उत्पत्ति, अर्थ और प्रयोग में सामाजिक है और चूँकि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, इस अर्थ में वह संस्कृति के परिवर्तन में भी सहायता करती है। इतना ही नहीं शिक्षा संस्कृति में आवश्यकतानुसार उचित परिमार्जन और परिवर्द्धन का भी कार्य करती है।

उपर्युक्त शब्दों में हमने देखा कि संस्कृति सामाजिक विरासत है। इसके अन्तर्गत समाज के सदस्यों के खान-पान और रहन-सहन के ढंग, नियम, परम्परा, आचार, कानून, धर्म, ज्ञान और शिक्षा सभी कुछ का समावेश है। संस्कृति समाज के सम्पूर्ण जीवन को व्यक्त करती है। संस्कृति में सीखे जाने, परिवर्तित होने व हस्तान्तरित होने का गुण, सन्तुलन व संगठन का गुण, मानव आवश्यकताओं की पूर्ति का गुण, अनुकूलन का गुण आदि अनेक गुण निहित होते हैं। इसके दो मुख्य भाग हैं—भौतिक और अभौतिक । सांस्कृतिक तत्त्व संस्कृति संकुल, संस्कृति, प्रतिमान और सांस्कृतिक क्षेत्र। ये चार संस्कृति के प्रमुख उपादान हैं। शिक्षा, संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। यह संस्कृति की निरन्तरता बनाये रखती है।

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shubham yadav

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