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लैंगिक समानता में शिक्षा की क्या भूमिका होती है?

लैंगिक समानता में शिक्षा की भूमिका
लैंगिक समानता में शिक्षा की भूमिका

लैंगिक समानता में शिक्षा की भूमिका

लिंग समतुल्यता विकसित करने का महत्त्वपूर्ण साधन शिक्षा को ही माना जाता है। आज भी शिक्षित समाज में लैंगिक भेदभाव कम देखा जाता है। जबकि अशिक्षित समाज में यह भेदभाव व्यापक रूप से देखा जाता है क्योंकि शिक्षा के माध्यम से विविध प्रकार की भ्रामक एवं अन्ध-विश्वास सम्बन्धी गतिविधियों को समाप्त किया जा सकता है। इससे प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा ऐसा व्यवहार किया जाता है जो कि समाज में लिंग समतुल्यता विकसित करता है। लिंग समुतल्यता विकसित करने में शिक्षा की अहम् भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. विद्यालय में समानता का व्यवहार (Behaviour of equality in school ) – विद्यालय में समानता का व्यवहार प्राप्त होने पर लैंगिक समतुल्यता का विकास होता है। विद्यालय में जब शिक्षक द्वारा छात्र एवं छात्राओं के प्रति भेदभावपूर्ण एवं पक्षपात का व्यवहार नहीं किया जाता है तो छात्रों एवं छात्राओं में लैंगिक असमानता उत्पन्न नहीं होती। विद्यालय में प्राप्त संस्कारों के आधार पर ही छात्र-छात्राओं में संस्कारों का विकास होता है। इन संस्कारों के आधार पर ही छात्र छात्राओं द्वारा परस्पर समानता का व्यवहार किया जा सकेगा।

2. प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास (Development of democratic values) – शिक्षा के माध्यम से छात्र-छात्राओं में प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास किया जाना चाहिये जिससे प्रत्येक छात्र-छात्रा अपने अधिकार एवं कर्त्तव्यों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सके। जब प्रत्येक छात्र को अपने अधिकार एवं कर्त्तव्यों का ज्ञान होगा तो वह किसी भी छात्रा के साथ असभ्यता का व्यवहार नहीं करेगा।

3. विकास के समान अवसर (Equal oppotunity of development) – विकास के समान अवसरों की उपलब्धता शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव होती है। जब छात्र एवं छात्राओं को समान रूप से शैक्षिक विकास के अवसर प्राप्त होंगे तो प्रत्येक छात्र एवं छात्रा सामान्य रूप से अपनी योग्यता के अनुसार उच्च पदों को प्राप्त कर सकेगा। प्रत्येक छात्र एवं छात्रा द्वारा एक-दूसरे का सहयोग किया जा सकेगा। इस प्रकार लैंगिक विभेद की स्थिति धीरे-धीरे सम्पूर्ण समाज से समाप्त हो सकेगी।

4. सहयोग की भावना का विकास (Development of spirit of co-operation) – शिक्षा के माध्यम से छात्र-छात्राओं में सहयोग की भावना का विकास किया जा सकता है। सहयोग की भावना के आधार पर ही लैंगिक भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है।

5. उचित निर्देशन एवं परामर्श (Proper guidance and counselling) – विद्यालयों में छात्र-छात्राओं को आवश्यकता के अनुसार उचित निर्देशन एवं परामर्श प्राप्त होता है तो उनके मन में लैंगिक भावना का विकास नहीं होता। उनको समय-समय पर यह ज्ञान नहीं कराना चाहिये कि वह बालक है या बालिका है वरन् उनको उनकी योग्यता से परिचय कराना चाहिये। यदि एक बालिका ऊँची कूद में भाग लेने की योग्यता रखती है तो उसको ऊँची कूद में भाग लेने का निर्देशन एवं परामर्श प्राप्त होना चाहिये। इस प्रकार लिंग भेद का समापन हो सकता है।

6. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास (Development of scientific view) – वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की प्रक्रिया शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव होती है। शिक्षा के माध्यम से समाज में रूढ़िवादिता एवं अन्धविश्वास का समापन होता है; जैसे- यह माना जाता है कि स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कम बुद्धि होती है। जब प्रयोगों एवं सर्वेक्षणों द्वारा यह बताया जाता है कि छात्राएँ छात्रों से अधिक योग्यता प्राप्त कर रही हैं तो प्रत्येक व्यक्ति का यह भ्रम दूर हो जाता है तथा वह समाज में स्त्री एवं पुरुषों के मध्य विभेद करना छोड़ देता है। इससे लैंगिक समानता उत्पन्न होती है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार होता है तो प्रत्येक व्यक्ति में व्यापक सोच एवं आदर्शवादिता का विकास होता है। प्रत्येक व्यक्ति मानवीय भावनाओं एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ओत-प्रोत रहता है। इस स्थिति में स्त्री द्वारा पुरुष का तथा पुरुष द्वारा स्त्री का व्यापक रूप से सहयोग किया जाता है। इससे एक ओर लैंगिक समानता विकसित होती है तो दूसरी ओर राष्ट्रीय एवं सामाजिक समृद्धि का वातावरण विकसित होता है।

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shubham yadav

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