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बाजार के समाजवादी प्रतिरूप (मॉडल)
मार्क्स (1818-83) ने अपनी शिक्षाओं के अंतर्गत मुख्यतः प्रत्येक राष्ट्र के स्तर पर पंजीवाद को मिटाने का प्रचार किया था। परंतु लेनिन (1870-1924) ने इस विचार को आगे बढ़ाते हुए उसमें एक नया आयाम जोड़ दिया। उसने साम्राज्यवाद को पंजीवाद की विशेष अभिव्यक्ति मानते हुए यह तर्क दिया कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को समाजवादी विचारधारा और कार्यक्रम का अंग मानना चाहिए।
लेनिन ने अपनी विश्यात कृति ‘इपीरयिलिज्मः द हाइएस्ट स्टेट ऑफ कैपीटलिज्म’ (साम्राज्यवादः पंजीवाद की उच्चतम अवस्था) (1916) के अन्तर्गत तत्कालीन विश्व की स्थति का विश्लेषण करते हुए यह लिखा कि जब पूंजीवाद विश्व की स्थिति का विश्लेषण करते हुए यह लिखा कि अब पूंजीवाद एक नए और अंतिम दौर में पहुँच चुका था जिसमें प्रतिस्पर्धा का स्थान एकाधिकार-पूंजीवाद ने ले लिया था। इस अवस्था में छोटे-छोटे प्रतिस्पर्धा उद्यमी मैदान से बाहर हो गए थे और सारी पूंजी इने-गिरने उद्यमों; परस्पर आश्रित विशाल निगमों और न्यासों (Trust) के हाथों में केंद्रित हो गई थी। इन परिस्थतियों में पूंजी का जमाव और समाज का वर्ग-विभाजन अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था । वस्तुओं के निर्यात की जगह पूंजी का निर्यात होने लगा था और शक्तिशाली पूंजीवादी राज्यों ने संपूर्ण विश्व पर अपने शोषण का जाल फैला दिया था। इस तरह पंजीवाद साम्राज्यवाद के युग में पहुँच गया था जिसमें इसका स्वरूप सैन्यवादी था जिसमें इसका स्वरूप सैन्यवादी, परोपजीवी, उत्पीड़नकारी और पतनोन्मुख हो गया था।
अतः लेनिन इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पूँजीवाद की विस्तारवादी नीति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लेती है। दूसरे शब्दों में, राष्ट्रीय स्तर पर तो पूंजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग का शोषण करता ही है, परंतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वही पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवादका जाल फैलाकर अल्पविकसित राष्ट्रों के शोषण का चक्र चलाता है। लेनिन के अनुसार, उन्नत देशों के पूंजीपति अपने देशों की मंडियों में खूब मुनाफा कमा लेने के बाद अल्पविकसित देशों पर अपनी गृध्र-द्रष्टि डालते हैं जहां उन्हें कच्चा माल कौड़ियों के मोल मिल जाता है, और तैयार माल मुँहमांगे दामों पर बिक जाता है। ये पंजीपति अपने देश के कामगारों को छोटी-छोटी रियायतें, फायदे का लालच देकर शांत कर देते हैं, और फिर अपनी पूरी ताकत के साथ बाहर के अल्पविकसित राष्ट्रों का शोषण शुरू कर देते हैं। अतः लेनिन ने सुझाव दिया कि बीसवीं शताब्दी में अल्पविकसित राष्ट्रों को अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में साम्राज्यवाद के विरुद्ध वही भूमिका सँभाल लेनी चाहिए जो पूंजीवादी देशों में पूंजीवाद के विरूद्ध सर्वहारा वर्ग को सँभालनी है।
समकालीन मार्क्सवादी विश्लेषण के अंतर्गत विकास के समाजवादी प्रतिरूप का समर्थन किया जाता है।
समाजवादी प्रतिरूप
नवमार्कसवादी चिंतन के अंतर्गत यह माना जाता है कि अल्पविकसित देशों के वर्तमान दशा पूंजीवादी देशों की गतिविधियों का परिणाम है। पॉल बरन ने अपनी चर्चित कृति ‘द पोलिटिकल इकॉनॉमी ऑफ ग्रोथ’ (1957) के अन्तर्गत ‘पिछड़ेपन’ की व्याख्या देते हुए लिखा था कि “आज के औपनिवेशिक और पराश्रित देश प्राथमिक पंजी संचय के ऐसे स्रोतों का सहारा नहीं ले सकते जैसे आज के उन्नत पंजीवादी देशों को उपलब्ध थे, “और” एकाधिकार पूंजीवाद तथा साम्राज्यवाद के युग में विकास विकास की प्रक्रिया को ऐसी बाधाओं को सामना करना पड़ रहा है जैसी दो या तीन सौ वर्ष पहले किसी के सामने नहीं आई थीं।” बरन ने दावा किया कि वर्तमान परिस्थितियों में विकासशील और विकसित देशों के पुंजीपतियों के हितों में इतना विरोध पैदा हो गया है कि विकासशील देशों के पूंजीपति उत्पादन की शक्तियों को विकसित करने में असमर्थ हो गए हैं। अतः इन देशों में पूंजीवाद को अपनाने से प्रगति को बढ़ावा नहीं मिलेगा बल्कि उसमें रूकावट आएगी।
फिर, आंद्रे जी. फ्रैंक ने ‘कैपीटलिज्म एंड अंडर-डिवलेपमेंट इन लेटिन अमेरिका’ (लेटिन अमरीका में पूंजीवाद और अल्पविकास) (1967) के अन्तर्गत यह तर्क दिया कि लेटिन अमरीका में राष्ट्रीय पूंजीवाद और राष्ट्रीय बुर्जुर्वा-वर्ग विकास को उस तराह बढ़ावा नहीं दे सकते जैसे इनके समानांतर तत्वों ने इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमरीका में बढ़ावा दिया था। साम्राज्यवादी देश और उपाश्रित देश को क्रमशः केंद्र और परिधि के तुल्य मानते हुए फ्रैंक ने यह संकेत किया कि ये दोनों आपस में इस ढंग से जुड़े हैं कि जैसे-जैसे केंद्र का विकास बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे परिधि का अल्पविकास बढ़ता जाता है। दूसरे शब्दों में, परिधि का अल्पविकास केंद्र के विकास के जरूरी शर्त बन चुका है। अतः परिधि में अल्पविकास को रोकने का एक ही तरीका है – वह एह कि पूंजीवाद के साथ उसके संबंध को तोड़ दिया जाए।
वाल्टर रॉडनी (हाउ यूरोप अंडरडिवेलप्ड अफ्रीकाः यूरोप ने अफ्रीका ने अल्पविकास् कैसे किया ?) (1974) और बी. कमिंग्स (इंटरनेशनल आर्गनाइजेशन’ के अंतर्गत 1984 में प्रकाशित लेख) क्रमशः अफ्रीका और एशिया के संदर्भ में आंद्रे फ्रैंक से मिलते-जुलते निष्कर्षों क पुष्टि की। इनके अलावा, अफ्रीका के प्रसिद्ध नवमार्क्सवादी समीर अमीन ने अपनी चर्चित ‘एक्युमुलेशन ऑन वर्ल्ड स्केल’ (विश्व स्तर संचय) (1974 और ‘अनईक्वल डिवेलपमेंट (विषमताओं विकास) (1976) के अन्तर्गत यह तर्क दिया कि जा के युग में औद्योगीकृत देश और अत्यल्प विकसित देश आपस में इस ढंग से जुड़ गए हैं कि पंजीवाद अल्पविकसित देशों में उत्पादन-शक्तियों के विकास की अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने में असमर्थ हो गया है। साम्राज्यवादी युग के आरंभ से ही अल्पविकसित देश स्वावलंबनपूर्ण संवृद्धि प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं।
संक्षेप में, नव-मार्क्सवादी लेखकों ने अपने पराश्रितता सिद्धान्त के अन्तर्गत यह तर्क दिया कि अल्पविकसित देशों का सामाजिक और आर्थिक विकास बाह्य शक्तियों से नियंत्रित हो रहा है। उन्होनें संकेतळाकिया कि अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तीसरी दुनिया के देशों को भरती नुकसान पहुँचा रही है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में विनिमय के स्तर पर शक्तिशाली राष्ट्रों का प्रभुत्व रहता है, और यही तीसरी दुनिया के देशों में अल्पविकास का मूल कारण है। उदारवादी सिद्धांत इन्हें निर्धनता से पलायन का जो स्वप्न दिखाता है, वह कोरा भ्रमजाल है। यदि विकासशील देश अपनी देशीय अर्थ-व्यवस्थाओं को मुक्त व्यापार और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए खुला छोड़ देंगे तो इससे केवल धनवान् और निर्धन देशों के बीच की खाई ज्यादा चौड़ी होती जाएगी। उदाहरण के लिए, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 1947 में सऊदी अरब के तेल की कीमत 2.18 अमरीकी डालर प्रति बैरल थी। 1970 में यह कीमत घटकर 1.80 अमरीकी डालर प्रति बैरल हो गई जबकि पश्चिमी देशों से विकासशील देशों को आयात किए जाने वाले माल की कीमतें कई गुना बढ़ गईं।
पहली दुनिया (First World) के जिन देशों में आधुनिकीकरण पहले शुरू हुआ, वे तीसरी दुनिया के देशों के मुकाबले हमेशा फायदे में रहते हैं जिनमें आधुनिकीकरण देर से शुरू हुआ। पराश्रिता- सिद्धांतकारों ने तर्क दिया कि औपचारिक उपनिवेशवाद (Formal Colomalism) तो आज के युग में प्रचलित नहीं रहा, परंतु आर्थिक या नव-उपनिवेशवाद आज भी बना हुआ है। इसके अंतर्गत उन्नत देश विकासशील देशों में पूंजी निवेश करके उन्हें कच्चे माल के पूर्तिकर्ता और तैयार माल के बाजार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह पुरानी उपनिवेशवादी शक्तियों को उपनिवेशवाद का आर्थिक लाभ तो पहले की तरह प्राप्त हो जाता है, जबकि उन्हें इसका राजनीतिक खर्च भी नहीं उठाना पड़ता । पराश्रिता सिद्धांत के समर्थक यह सुझाव देते हैं कि तीसरी दुनिया में कच्चे माल के पुर्तिकर्ताओं को अपने उत्पादकसंघ या काट्रेल (Cartel) बना लेने चाहिए और अपने माल के ‘न्यायसंगत’ भाव नियत कर देने चाएि ताकि पहली दुनिया के उन्नत देश उनका शोषण न कर पाएं। ऐसे कार्टेल का सबसे प्रमुख उदाहरण पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन है जो मूलतः 1960 में स्थापित किया गया था।
पराश्रिता-सिद्धान्त का सारांश यह है कि जब तक तीसरी दुनिया के देश आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से पश्चिम के साथ जुड़े रहेंगे तब तक उन्हें निर्धन्ता और शोषण की परिस्थितियों से मुक्ति नहीं मिलेगी। वहां लोकतंत्र तभी स्थापित हो पाएगा जब वे आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से स्वायत्ता प्राप्त कर लेंगे।
पराश्रिता-सिद्धांत के आलोचक यह तर्क देते हैं कि उपर्युक्त धारण यथार्थ अनुभव की कसौटी पर खरी नहीं उतरती । उदाहरण के लिए, अल्बानिया, म्यांमार (बर्मा), चीन और उत्तरी कोरिया जैसे देशों ने आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से स्वायत्ता तो प्राप्त कर ली है, परंतु फिर भी इन देशों में लोकतंत्र स्थापित नहीं हो पाया है। ऐसा लगता है कि विकासशील देशों में आर्थिक स्वायत्ता को कायम रखने के लिए खर्च को कम करने की जरूरत पड़ती है और इसके लिए सत्तावाद का सहारा लेना पड़ सकता है। दूसरी ओर, लेटिन अमरीका और पूर्वी एशिया जिन देशों में (जैसे कि ताइवान और दक्षिणी कोरिया में) लोकतंत्र स्थापित हुआ, उन्होंने अपने निर्यात का भारी विस्तार किया था, और इस तरह वे अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली के साथ जुड़े रहे थे।
इन अनुभवों के आधार पर पराश्रिता- सिद्धांत की मान्यताओं का विस्तार किया गया है। इस सिद्धांत के नए व्याख्याकारों का विचार है कि हमें लोकतंत्र के ढांचे और प्रक्रियाओं से संतोष नहीं कर लेना चाहिए बल्कि ‘यथार्थ’ लोकतंत्र की स्थापना पर ध्यान देना चाहिए। ‘यथार्थ’ लोकतंत्र यह मांग करता है कि जो शक्ति एक छोटे-से राजनीतिक या सैनिक विशिष्टवर्ग के हाथों में केंद्रित हो, उसका बहुत बड़ा हिस्सा जनसाधारण के हाथों में पहुँच जाना चाहिए। एम.ए. गैरेटन ने अपने 1991 में प्रकाशित लेख के अंतर्गत (दे. ‘रीथिकिंग थर्ड वर्ल्ड पॉलिटिक्स’ : ‘तीसरी दुनिया की राजनीति पर पुनर्विचार’, संपादक जे. मेनर) यह तर्क दिया है कि यथार्थ लोकतंत्र की स्थापना के लिए तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए:
(क) सशस्त्र सेवाओं पर नागरिक प्रशासन का सुदृढ़ नियंत्रण स्थापित होना चाहिए; (ख) सरकार को मानव-अधिकारों, आर्थिक साम्या, सामाजिक न्याय और विधि के शासन के प्रति ज्यादा सरोकार रखना चाहिए; और
(ग) निर्धन, अल्पसंख्यक जातियों के लोगों, स्त्रियों और युवा-वगै की राजनीतिक सहभागिता बढ़ाई जानी चाहिए।
पराश्रिता-सिद्धांत का मुख्य सरोकार विकासशील देशों की आर्थिक समस्या के समाधान से हैं यह उनकी मुख्य समस्या अवश्य है, परंतु सामाजिक और राजनीतिक स्तरों पर भी विकाशील देशों को केवल पश्चिम के अंधाधुकरण से लाभ नहीं होगा। पश्चिम में प्रचलित प्रक्रियाओं और प्रौद्योगिकी को अपनाने में कोई हर्ज नहीं है, परन्तु अपनी सांस्कृतिक धरोहर को परे रखकर पश्चिमी संस्कृति में ढल जाने का प्रयत्न नवोदित देशों के लिए विनाशकारी हो सकता है।
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