भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंध (India’s Neighbourhood Relations)

भारत क्षेत्रफल, जनसंख्या तथा आर्थिक एवं सैन्य क्षमताओं के संदर्भ में अपने पड़ोसी देशों की तुलना में अत्यधिक विशाल देश है, यहाँ तक कि यह उनकी कुल क्षमता से भी विशाल है। प्रत्येक पड़ोसी देश, भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित अन्य देशों की अपेक्षा भारत के साथ अधिक महत्वपूर्ण नैतिक, भाषाई या सांस्कृतिक विशेषतायें साझा करता है। यह असंतुलन ही पड़ोसी देशों के प्रति भारत की और भारत के प्रति पड़ोसी देशों की ‘पड़ोस (neighbourhood)‘ की अवधारणा को आकार प्रदान करता है। परन्तु भारत को यह भी अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि इस असंतुलन का स्तर इतना अधिक भी नहीं है कि उसके पड़ोसी देशों को अपने हितों को भारत के साथ संरेखित करने हेतु विवश करे। यह भारत के लिए निकट क्षेत्रों से सम्बद्ध चुनौती है।

स्वतंत्रता के पश्चात से, उपमहाद्वीप में कई प्रमुख पुनर्विन्यास हुए हैं, जिनके परिणामस्वरूप भारत को अपने पड़ोसी देशों से मैत्री संबंध स्थापित करने हेतु अन्य देशों के साथ निरंतर प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी है। इसके कारण या तो अतिशय या प्राय: गलत दिशा में उदारता एवं सामंजस्य अथवा कठोर अनावश्यक प्रतिक्रिया की स्थिति उत्पन्न हुई है। यद्यपि विगत दशकों के दौरान अपने पड़ोसी देशों और सार्क (SAARC) के प्रति भारत के दृष्टिकोण में स्पष्ट परिवर्तन परिलक्षित हुआ है। यह इस बढ़ती स्वीकृति का परिणाम है कि वैश्वीकृत होती भारतीय अर्थव्यवस्था हेतु दक्षिण एशिया में आर्थिक एकीकरण अपरिहार्य है। 2014 में सभी सार्क (South Asian Association for Regional Cooperation: SAARC) देशों के नेताओं को नई सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह में आमंत्रित कर भारत की नेबरहुड फर्स्ट नीति की शुरुआत की गई थी। परन्तु वर्तमान में यह नीति दिशाहीन प्रतीत हो रही है।

दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (South Asia Association for Regional Cooperation: SAARC)

 

  • यह एक क्षेत्रीय संगठन है जिसकी स्थापना वर्ष 1985 में की गई थी।
  • सार्क की स्थापना का मुख्य उद्देश्य दक्षिण एशिया के लोगों के कल्याण को प्रोत्साहित करना, जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना तथा क्षेत्र में आर्थिक विकास, सामाजिक
  • प्रगति एवं सांस्कृतिक विकास को त्वरित करना था।
  • सदस्य देश- भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, अफगानिस्तान तथा भूटान।

पृष्ठभूमि

अपने पड़ोसी देशों के प्रति भारत की विदेश नीति से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु निम्नलिखित हैं:

  • शीतयुद्ध के दौरान भारत को अनिच्छुक शक्ति (Reluctant Power) के रूप संदर्भित किया गया था। इसका यह तात्पर्य है कि समझा जाता था कि भारत के पास संसाधन उपलब्ध हैं परन्तु इनके उपयोग हेतु इसने कोई कार्यवाही नहीं की या कार्यवाही का
    प्रबंध नहीं किया।
  • प्रारम्भ में भारत ने चीन के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए थे तथा गुटनिरपेक्ष (NAM) सिद्धांत के साथ आगे बढ़ा था। हाल के वर्षों में भारत ने लुक ईस्ट पॉलिसी (वर्तमान में एक्ट ईस्ट) तथा सार्क, बिम्सटेक (BIMSTEC) इत्यादि जैसे क्षेत्रीय मंचों के माध्यम से अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों को आगे बढ़ाया है।
  • भारत ने 1998 की गुजराल डॉक्ट्रिन (सिद्धांतों) के भाग के रूप में “गैर-पारस्परिकता की नीति (Policy of Non-Reciprocity)” का अनुसरण किया है। इस नीति के अनुसार भारत के अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंध भारत की क्षेत्रीय स्थिति के आधार पर होने चाहिए न कि पारस्परिकता के सिद्धांत पर।
  • भारत ने वैश्वीकरण के इस युग में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण की आवश्यकता को संबोधित करने हेतु न्यू नेबरहुड पॉलिसी, 2005 भी प्रारम्भ की है। यह नीति सीमा क्षेत्रों के विकास, क्षेत्र में बेहतर कनेक्टिविटी तथा सांस्कृतिक एवं लोगों के आपसी सम्पर्क
    को प्रोत्साहित करने पर केन्द्रित है।
  • वर्ष 2014 में भारत ने सभी सार्क देशों के नेताओं को नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया था तथा अपनी
    नेबरहुड फर्स्ट’ नीति का प्रतिपादन किया था।

इस नीति के महत्वपूर्ण बिंदु निम्न हैं:

  •  भारत अपने निकट पड़ोसी देशों तथा हिन्द महासागर के द्वीपीय देशों को राजनीतिक एवं कूटनीतिक प्राथमिकता प्रदान करने
    का इच्छुक है।
  • यह पड़ोसी देशों को संसाधनों, सामग्रियों तथा प्रशिक्षण के रूप में सहायता कर समर्थन प्रदान करेगा।
  • वस्तुओं, लोगों, ऊर्जा, पूँजी तथा सूचना के मुक्त प्रवाह में सुधार हेतु व्यापक कनेक्टिविटी और एकीकरण।
  • भारत के नेतृत्व में क्षेत्रवाद के ऐसे मॉडल को प्रोत्साहित करना जो पड़ोसी देशों के भी अनुकूल हो।
  • सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से पड़ोसी देशों के साथ सम्पर्क स्थापित करना।
गुजराल डॉक्ट्रिन (Gujral Doctrine)

 

गुजराल डॉक्ट्रिन में निम्नलिखित पांच सिद्धांत हैं:

  1. भारत, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल तथा श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से पारस्परिकता की अपेक्षा नहीं करता है बल्कि यह
  2. अच्छी भावना और विश्वास के तहत जो कुछ भी दे सकता है या जो सहूलियतें प्रदान कर सकता है, उन्हें उपलब्ध कराएगा।
  3. किसी भी दक्षिण एशियाई देश को क्षेत्र के एक अन्य देश के हितों के विरुद्ध अपने क्षेत्र के प्रयोग की अनुमति प्रदान नहीं करनी चाहिए।
  4. किसी भी देश को किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  5. सभी दक्षिण एशियाई देशों को एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता तथा संपुभता का अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए।
  6. इन देशों को अपने सभी मुद्दों का समाधान शांतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ताओं के माध्यम से करना चाहिए।

पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में दूरी के कारण

  • प्रतिकूल संरचनात्मक चुनौतियाँ: भारत के समक्ष सीमा संघर्षों की ऐतिहासिक विरासत तथा नैतिक एवं सामाजिक चिंताएं मौजूद
    हैं। ये भारत की दक्षिण एशियाई नीति की सफलता के विरुद्ध कार्य कर रही प्रमुख संरचनात्मक अक्षमताएं हैं। उदाहरणार्थ नेपाल में मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों, बांग्लादेश के साथ सीमा एवं नदी जल विवाद से संबंधित मुद्दों को भारत की विभिन्न संरचनात्मक अक्षमताओं के रूप स्वीकार किया जाता है।
  • सुरक्षा और विकास के प्रमुख मुद्दों पर सर्वसम्मति का अभाव: दक्षिण एशिया एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसकी स्वयं की कोई क्षेत्रीय सुरक्षा संरचना नहीं है और सर्वसम्मति के अभाव के कारण ऐसी किसी संरचना के विकास के प्रयास भी नहीं किए गए हैं। भारत की बिग ब्रदर की छवि को क्षेत्र के अन्य देशों द्वारा क्षेत्र की सुरक्षा और विकास हेतु सहयोग देने के लिए एक सक्षम कारक के स्थान पर एक खतरे के रूप में देखा जाता है।

चीन का प्रभाव

  • चीन ने वर्ष 2015 के भारत-नेपाल सीमा अवरोध के पश्चात् भारत के पड़ोस के वैकल्पिक व्यापार तथा कनेक्टिविटी विकल्पों
    (अर्थात् ल्हासा तक राजमार्ग, शुष्क बंदरगाहों के विकास हेतु सीमा पार रेलमार्ग) में अपनी स्थिति मजबूत करने हेतु सशक्त
    प्रयास किए हैं।
  • श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव तथा पाकिस्तान में चीन की रणनीतिक स्थावर संपदा विद्यमान है तथा साथ ही इन देशों की
    घरेलू नीतियों में चीन की सहभागिता है।
  • चीन पहले से ही अवसंरचना तथा कनेक्टिविटी परियोजनाओं में अपनी उपस्थिति का विस्तार कर रहा था और अब उसने राजनीतिक मध्यस्थता आरम्भ कर दी है। उदाहरणार्थ म्यांमार और बांग्लादेश के मध्य एक रोहिंग्या शरणार्थी वापसी समझौता तय करने हेतु कदम बढ़ाना, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों की बैठकों का आयोजन करना ताकि दोनों को बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के साथ एक मंच पर लाया जा सके तथा मालदीव सरकार और विपक्ष के मध्य मध्यस्थता करना।
चाइना-साउथ एशिया कोऑपरेशन फोरम

 

  • हाल ही में युन्नान प्रान्त में प्रथम चाइना-साउथ एशिया कोऑपरेशन फोरम (CSACF) लॉन्च किया गया। इसमें ‘फुक्सियान लेक इनिशिएटिव’ के नाम से एक परिणाम दस्तावेज जारी किया गया।
  • CSACF का सचिवालय युन्नान प्रान्त में स्थापित किया जाएगा, जहाँ इसके वार्षिक सम्मेलनों का भी आयोजन किया जाएगा।
  • सार्क देशों (भूटान को छोड़कर), दक्षिण-पूर्वी एशिया से म्यांमार और वियतनाम तथा कुछ अन्य देशों के अधिकारियों ने इस फोरम में भाग लिया था।
  • इस फोरम के उद्देश्य निर्दिष्ट करते हैं कि, “चीन और दक्षिण एशियाई देशों को सहयोग को मजबूत करने, सहयोग में विस्तार करने, सहयोग परियोजनाओं को क्रियान्वित करने तथा सहयोग गुणवत्ता में सुधार करने हेतु अंतःक्रिया को अपेक्षाकृत अधिक सुदृढ़ करना चाहिए।”
  • यह BRI का एक भाग है तथा इसकी स्थापना एशिया में क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने हेतु की गई है।

विश्लेषण

  • CSACF में भारत की भागीदारी भारत के BRI के बहिष्कार के कदम से भिन्नता दर्शाती है। इस प्रकार यह व्यापार और संप्रुभता के मुद्दों के मध्य एक स्पष्ट अंतर किये जाने को इंगित करती है।
  • इसे कुछ विद्वानों द्वारा सार्क के विकल्प के रूप में भी देखा जा रहा है। सार्क में चीन पर्यवेक्षक के दर्जे से आगे दर्जा प्राप्त करने में असमर्थ रहा है तथा अंशत: सार्क की
  • अपनी कमजोरियों के कारण भी इस फोरम को सार्क के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।
  • अब चीन अपने व्यापार और आर्थिक लाभों हेतु नए फोरम का उपयोग कर सकता है। यह अपने हितों की पूर्ति हेतु भारत का उपयोग कर सकता है अथवा किसी विशिष्ट देश या देशों के समूह के साथ अपनी शर्तों पर समझौता कर सकता है।
  • यह अन्य भागीदार देशों को यह अनुभव करवा सकता है कि भारत उनमें से ही एक है न तो विशाल और न ही शक्तिशाली (सार्क के विपरीत) तथा स्वयं को उनके स्थायी मित्र के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
  • यद्यपि भारत उभरती परिस्थितियों तथा दक्षिण एशिया में चीन के अतिक्रमण से अनभिज्ञ नहीं है, परन्तु भारत को CSACF के साथ और इसके परे जाकर सार्क को पुनर्जीवित करने हेतु अपने दृष्टिकोण की समीक्षा करने की आवश्यकता है।

भारत की हार्ड पॉवर कार्यनीति:

भारत की दक्षिण एशिया में केन्द्रीय अवस्थिति है तथा भौगोलिक और आर्थिक रूप से यह सबसे विशाल देश है। अत: यह अपेक्षा की जा सकती है कि भारत का उसके प्रत्येक पड़ोसी देश पर अधिक प्रभाव होगा। परन्तु अनेक अवसरों पर भारत की हार्ड पॉवर कार्यनीति अप्रभावी सिद्ध हुई है।

  • वर्ष 2015 में नेपाल सीमा पर अवरोध तथा भारतीय सहायता में एक अनुवर्ती कटौती ने नेपाली सरकार को उनके संविधान
    में संशोधन हेतु बाध्य नहीं किया जबकि भारत अपेक्षा कर रहा था कि उपर्युक्त कदम उठाकर नेपाल को संविधान संशोधन हेतु
    बाध्य किया जा सकता है। संभवतः इन कदमों ने वहां भारत की स्थिति को विपरीत रूप से प्रभावित किया।
  • वर्ष 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा माले यात्रा को रद्द करना तथा मालदीव में आपातकाल की आलोचना भी मालदीव
    सरकार में भारत की इच्छानुरूप परिवर्तन करने में असफल सिद्ध हुई। इसका विपरीत प्रभाव पड़ा तथा मालदीव ने भारतीय
    नौसेना के “मिलन” अभ्यास में भाग लेने से इंकार कर दिया।

राजनीतिक विवाद

विभिन्न कारणों से सार्क के सदस्यों के साथ भारत के सम्बन्ध आदर्श नहीं है या राजनीतिक रूप से विपरीत
परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं।

  • मालदीव के राष्ट्रपति यामीन अब्दुल गयूम ने विपक्ष के विरुद्ध दमनात्मक कार्रवाई कर, चीन को आमंत्रित करके तथा
    पाकिस्तान को सार्क से पृथक करने के भारत के प्रयासों में भारत का साथ नहीं देकर भारत को चुनौती दी है।
  • नेपाल में के.पी.शर्मा ओली सरकार भारत की प्रथम पंसद नहीं है; तथा दोनों देशों की नेपाली संविधान, 1950 की शांति एवं
    मित्रता संधि इत्यादि पर असहमति है।
  • श्रीलंका और अफगानिस्तान से भारत के संबंध विगत कुछ वर्षों से तुलनात्मक रूप से बेहतर हैं परन्तु इन देशों में होने वाले
    आगामी चुनाव भारत के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर सकते हैं।

संबंधित सुझाव

  • इन उल्लिखित कारकों में से कई कारकों को पूर्णतः परिवर्तित करना अत्यंत कठिन है, परन्तु दक्षिण एशिया में भूगोल के मौलिक तथ्यों और साझी संस्कृति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
  • अत: भारत को नेबरहुड फर्स्ट को पुनः मज़बूत बनाने हेतु अपने प्रयासों पर अवश्य ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
  • सॉफ्ट पॉवर: हार्ड पॉवर और व्यावहारिक राजनीति के प्रत्यक्ष लाभों के बावजूद भारत का अत्यंत प्रबल साधन उसकी सॉफ्ट पॉवर है। उदाहरणार्थ भारत को भूटान और अफगानिस्तान में इसके द्वारा प्रदत्त रक्षा सहायता की तुलना में मुख्य रूप से विकास सहायता के कारण सफलता प्राप्त हुई है। इसे देखते हुए दो वर्षों की गिरावट के पश्चात् 2018 में भारत द्वारा दक्षिण एशिया हेतु किये गए आवंटन में 6% की वृद्धि की गयी है।

चीन के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन

क्षेत्र में चीन की प्रत्येक परियोजना का विरोध करने के स्थान पर भारत को त्रिआयामी दृष्टिकोण को अपनाना होगा:

  • पहला, जहाँ तक संभव हो भारत को चीन के साथ बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (BCIM) आर्थिक गलियारे पर सहयोग
    करना चाहिए।
  • दूसरा, जब भारत को यह अनुभव हो कि कोई परियोजना उसके हितों के प्रतिकूल है तो भारत को परियोजना का विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो उसे अपने चतुर्भुजीय भागीदारों (जापान, अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया) के सहयोग
    से ऐसा करना चाहिए।
  • तीसरा, भारत को उन परियोजनाओं के सन्दर्भ में तटस्थ रहना चाहिए जिनमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। साथ ही साथ
    उसे सतत विकास सहायता हेतु ऐसे दक्षिण एशियाई सिद्धांतों का विकास करते रहना चाहिए जिनका सम्पूर्ण क्षेत्र में उपयोग | किया जा सके।

आसियान देशों से सीख

आसियान (ASEAN) की भांति सार्क देशों को भी प्राय: अनौपचारिक रूप से बैठक करनी चाहिए, एक दूसरे की सरकार के आंतरिक कार्यों में नाममात्र का हस्तक्षेप करना चाहिए तथा सरकार के प्रत्येक स्तर पर अधिक अन्तः क्रिया करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञ यह तर्क देते हैं कि इंडोनेशिया की भांति भारत को भी सार्क प्रक्रिया को अधिक सामंजस्यपूर्ण बनाने हेतु निर्णय निर्माण में गौण भूमिका निभानी चाहिए।

‘नेबरहुड फर्स्ट की सीमाओं को समझना

वैश्विक शासन में अपनी अधिकारपूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय और राजनीतिक संगठनों में सुधार के प्रयास करने के अतिरिक्त भारत को निवेश, प्रौद्योगिकी तक पहुँच, अपनी रक्षा एवं ऊर्जा आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार वार्ताओं में अपने हितों की सुरक्षा करने की आवश्यकता है। ज्ञातव्य है कि इन
आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति उसके पड़ोसी देशों द्वारा नहीं हो सकती है।

हाल ही में आरंभ कुछ पहले

विदेश आया प्रदेश के द्वार

  • यह हाल ही में विदेश मंत्रालय द्वारा हैदराबाद से प्रारम्भ की गयी एक पहल है।
  • यह जन सामान्य तक विदेश नीति के उद्देश्यों को ले जाने हेतु वर्धित सार्वजनिक कूटनीतिक पहुँच का एक भाग है
  • मंत्रालय, विदेश नीति की प्राथमिकताओं को साधारण शब्दों में व्यक्त करने हेतु स्थानीय मीडिया के साथ प्रत्यक्ष अंत:क्रिया करेगा। इसके साथ ही राजनयिक प्रयासों के माध्यम से जन सामान्य को प्राप्त लाभों को स्पष्ट करेगा तथा विदेश नीति के क्षेत्र को जुन सामान्य के समीप लाएगा।
  • इस पहल का उद्देश्य विदेश नीति में रुचि रखने वाले मीडिया पेशेवरों का एक पूल बनाना और विदेश मंत्रालय से जुड़ने हेतु
    उनका मार्गदर्शन करना है।

ई-विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय योजना

(E-Foreigners Regional Office Scheme: E-FRRO)

हाल ही में गृह मंत्रालय ने देश में E-FRRO योजना प्रारम्भ की।

  • यह एक वेब-आधारित एप्लीकेशन है। इसका निर्माण इंडियन ब्यूरो ऑफ़ इमीग्रेशन द्वारा किया गया है। इसका उद्देश्य भारत
    यात्रा पर आए विदेशियों को त्वरित और पर्याप्त सेवाएं प्रदान करना है
  • नए सिस्टम पर E-FRRO का प्रयोग करते हुए विदेशी नागरिक वीज़ा तथा प्रवास संबंधी 27 सेवाएं प्राप्त कर सकेंगे तथा अपवादात्मक मामलों को छोड़कर शारीरिक रूप से उपस्थित हुए बिना सेवाओं को ई-मेल या डाक के माध्यम से प्राप्त कर
    सकेंगे।
  • स्टडी इन इंडिया कार्यक्रम इसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा आरंभ किया गया है। इसका प्राथमिक उद्देश्य भारत की एक आकर्षक शिक्षण स्थल के रूप में ब्रांडिंग कर विदेशी छात्रों को लक्षित करना है।

कार्यक्रम संबंधी विवरण

  • प्रतिभाशाली विदेशी छात्रों को शुल्क में छूट प्रदान की जाएगी।
  • संस्थाओं द्वारा पात्र छात्रों का उनकी मेरिट के आधार पर चयन किया जाएगा। उदाहरणार्थ शीर्ष 25% छात्र ट्यूशन फीस में
    100% छूट प्राप्त करेंगे।
  • शुल्क पर व्यय संबंधित संस्थान द्वारा वहन किया जाएगा, जो क्रॉस-सब्सिडी पर आधारित होगा या उसके मौजूदा निधियन द्वारा किया जाएगा। समान उद्देश्य हेतु सरकार द्वारा कोई अतिरिक्त नकद प्रवाह प्रस्तावित नहीं किया गया है।
 
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