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गेस्टाल्ट का समग्राकृति अथवा अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त क्या है ?

गेस्टाल्ट का समग्राकृति अथवा अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त
गेस्टाल्ट का समग्राकृति अथवा अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त

गेस्टाल्ट का समग्राकृति अथवा अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त क्या है ? | गेस्टाल्ट विचारधारा क्या है ? | गेस्टाल्ट का अधिगम सिद्धान्त क्या है ? | सूझ द्वारा अधिगम से आप क्या समझते हैं ?

गेस्टाल्ट का समग्राकृति अथवा अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त- समग्राकृति सिद्धान्त को ‘अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त’ के नाम से भी जाना जाता है। मैक्सवर्थीमर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और कोफ्क एवं कोहलर ने इस सिद्धान्त को विकसित कर आगे बढ़ाया। गेस्टाल्ट जर्मन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ आकार एवं स्वरूप से है, अर्थात गेस्टाल्ट से किसी अनुभव अथवा वस्तु में निहित सम्पूर्णता या समग्रता का बोध होता है।

मैक्सवर्थीमर के शब्दों में – “किसी भी समग्राकृति की विशेषतायें मात्र उसके वैयक्तिक तत्वों से नहीं वरन् उसके आन्तरिक संगठन या प्रकृति द्वारा निर्धारित होती हैं।’ गेस्टाल्ट में किसी वस्तु के आकार को छोटे-छोटे भागों में न देखकर उसे समग्र रूप में देखा जाता है इसका प्रमुख कारण है – समग्र का अंगों की तुलना में बड़ा होना । वर्थीमर के शब्दों में भी – “सम्पूर्ण अथवा समग्र उसके खण्डो के योग की तुलना में बड़ा है।’

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार “पूर्णकारवाद उत्तेजनात्मक परिस्थिति को समझने की विधि है। इस सिद्धान्त का मानना है कि विघ्न पैदा होने पर, प्रत्यक्षीकरण के प्रारूप के प्रति की गई प्रतिक्रिया, वातावरण में निहित उत्तेजक दशाओं पर निर्भर करती है। हम किसी नवीन बात को नई समग्र आकृति की रचना करके सीखते हैं। इस प्रकार, यह संगठन एवं पुनर्संगठन की क्रिया अपनी अनुक्रिया में होने वाले परिवर्तनों के रूप में अभिव्यक्ति होती है जिसे सीखना कहते हैं। जब किसी समस्या का समाधान खोजते समय एकाएक ही किसी हल के मस्तिष्क में आने के परिणामस्वरूप प्रत्यक्षीकरण में तीव्र गति से परिवर्तन ओता है, तो यह परिवर्तन ही अन्तर्दृष्टि कहलाता है।

अन्तर्दृष्टि के सम्बन्ध में गुड ने लिखा है कि – “अन्तर्दृष्टि यथार्थ स्थिति का आकस्मिक निश्चित एवं तात्कालिक ज्ञान है।’

स्किनर के अनुसार – “अन्तर्दृष्टि को परिभाषित करना जटिल है। अधिगमकर्ताओं के सन्दर्भ में, इससे आशय है कि उसको समग्र परिस्थिति की पकड़ है।”

समग्राकृति पूर्णकारवाद की विशेषतायें बताइये।

पूर्णकारवाद की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं

(1) साहचर्यवाद के विरोध के परिणामस्वरूप पूर्णकारवाद का उदय हुआ।

(2) गेस्टाल्टवाद के समर्थककों ने एकीकरण पर विशेष बल दिया।

(3) परीक्षण की कसौटी पूर्णकारवाद की देन है।

(4) पूर्णकारवाद के समर्थकों ने संश्लेषण पर बल दिया है।

(5) पूर्णकारवाद के अनुसार बालक एक यन्त्र नहीं है, क्योंकि वह पशु की तुलना में अधिक विवेकशील होता है।

(6) गेस्टाल्टवाद के अनुसार व्यवहारवाद की उद्दीपन-अनुक्रिया व्यर्थ है।

(7) बालक समग्र परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया करके सीखता है।

(8) पूर्णकारवाद के समर्थकों के अनुसार इन्द्रिय संवेदना व्यर्थ है।

अन्तर्दृष्टि से सीखने की विशेषताएँ

(1) अन्तर्दृष्टि में सूझ अधिक सक्रिय रहती है।

(2) यह किसी समस्या के निराकरण के समय अचानक ही उत्पन्न होती है।

(3) व्यक्ति का बौद्धिक स्तर उच्च होता है। इस कारण उसमें सूझ का विकास अत्यन्त तीव्र गति से होता है।

(4) इसके द्वारा प्रत्यक्षीकरण में सहायता प्राप्त होती है।

(5) आयु भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करती है। प्रौढों की अपेक्षा अल्पायु के बालकों में अन्तर्दृष्टि कम कार्य करती है।

(6) पूर्वानुभव भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति को अधिक अनुभव होने से उसमें सूझ भी अधिक हो।

(7) सूझ अवबोध पर आधारित होती है।

(8) सूझ द्वारा सीखे गये अधिगम या कार्य की पुनरावृत्ति की जा सकती है।

(9) सीखे गये अधिगम का नवीन परिस्थितियों में स्थानान्तरण भी किया जा सकता है।

(10) सूझ द्वारा समस्या का हल करने हेतु किया गया प्रत्येक प्रयास एक-दूसरे से सम्बन्धित होता है तथा पूर्व व्यवहार को संगठित व परिवर्तित करने में यह सहायक सिद्ध होता है।

पूर्णकारवाद के नियम

अन्तर्दृष्टि अथवा सूझ पूर्णकारवाद के मूल में निहित होती है और इस सूझ की कसौटी है – किसी क्षेत्र की समग्र व्यवस्था के सन्दर्भ में समस्या के पूर्ण निराकरण का अभिव्यक्त होना। अवयवीवाद (पूर्णकारवाद) के मुख्य नियमों का उल्लेख निम्न प्रकार है –

1. संरचनात्मकता – गेस्टाल्टवाद में सीखने की प्रक्रिया उस समय पूर्ण मानी जाती है जब अधिगम प्रक्रिया का निश्चित स्वरूप अभिव्यक्त होता है।

2. समानता- जो वस्तुयें समान आकार की होती हैं, सूझ में उनका पूर्णकार रूप उसी प्रकार का होता है।

3. समीपता – समान आकार वाली वस्तुये एक समूह के रूप में देखी जाती हैं।

4. समापन – इस नियम के अन्तर्गत किसी एक समस्या पर ध्यान लाना आता है।

5. सततता – निरन्तरता के नियम के अनुसार स्वयं के सदृश वस्तुओं से प्रत्यक्षीकरण सम्बन्ध स्थापित होते हैं।

अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करने वाले कारक

(1) बुद्धि अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण कारक है। उच्च बौद्धिक स्तर वाले जीवों में, अन्तर्दृष्टि अधिक होती है।

(2) अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करने वाला एक अन्य प्रमुख कारक है – अनुभव । प्राप्त अनुभवों के आधार पर व्यक्ति अपनी किसी भी समस्या का समाधान अतिशीघ्र कर लेता है

(3) प्रत्यक्षीकरण अन्तर्दृष्टि का मुख्य आधार होता है और यही अन्तर्दृष्टि का विकास करता है।

(4) समस्या की रचना भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करती है।

(5) प्रयास भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करता है। किसी भी क्रिया के मूल में प्रयास अवश्य निहित रहता है।

अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त का शिक्षा में प्रयोग

इस सिद्धान्त का प्रयोग करते समय शिक्षक को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना

(1) शिक्षार्थियों के समक्ष, समस्या को समग्र रूप में प्रस्तुत करना।

(2) अन्तर्दृष्टि द्वारा अधिगम में, विषय-वस्तु के प्रारूप संगठन का विशेष महत्व होता है इसलिए अध्यापक द्वारा विषय-वस्तु को इस ढंग में प्रस्तुत किया जाना चाहिए ।

(3) शिक्षार्थियों को मानसिक रूप से विकसित व उन्नत बनाने के लिए शिक्षक को अनुकूल वातावरण बनाना चाहिये और शिक्षार्थियों को उनकी पूर्व धारणाओं से मुक्त करना चाहिए।

(4) शिक्षार्थियों के ध्यान को समस्या पर केन्द्रित करने हेतु, शिक्षक को उनकी जिज्ञासाओं को जाग्रत रखना चाहिए, क्योंकि जिज्ञासा के अभाव में सूझ का विकास नहीं हो सकता।

(5) शिक्षार्थियों में अन्तर्दृष्टि का विकास करने हेतु शिक्षक का कार्य उनकी सूझ के अनुकूल होना चाहिए, क्योंकि शिक्षार्थियों की क्षमता के प्रतिकूल, कार्य होने पर उनमें अन्तदृष्टि का विकास नहीं हो सकता है।

(6) छात्रों के पूर्वानुभावों के संगठन पर भी शिक्षक को ध्यान देना चाहिये, क्योंकि अन्तर्दृष्टि द्वारा अधिगम में अनुभव अधिक सहायक सिद्ध होते हैं।

(7) प्रेरणा का, अन्तर्दृष्टि से सीखने में अत्यधिक महत्व होता है। उद्देश्यों का स्पष्ट ज्ञान न होने पर छात्रों में अन्तर्दृष्टि का विकास नहीं हो सकता। अतः अध्यापक उद्देश्यों को स्पष्ट करके छात्रों को अभिप्रेरित कर सकता है।

(8) अन्तर्दृष्टि के माध्यम से अधिगम का विकास एक-एक पद करके धीरे-धीरे होता है । इसलिये अध्यापक को, विषय-वस्तु को छात्रों के समक्ष छोटे-छोटे पदों में प्रस्तुत करना चाहिए इससे उनमें अन्तर्दृष्टि विकसित हो सकती हैं।

(9) अध्यापक केवल सीखने की प्रक्रिया को ही महत्व न दे वरन् एक ही विषय-वस्तु को अधिगम के तीनों स्तरों पर (स्मृति, बोध एवं चिन्तन) अलग-अलग प्रस्तुत करें।

(10) अध्यापक को अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त का प्रयोग समस्या समाधान अधिगम हेतु करना चाहिए।

अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त की आलचोना

इस मत की आलोचनायें निम्न प्रकार हैं

(1) इस सिद्धान्त के नियमों के अनुसार सभी प्रकार का अधिगम नहीं किया जा सकता है।

(2) यह सिद्धान्त शिक्षा-दर्शन एवं मनोविज्ञान का समन्वित रूप है।

(3) इस सिद्धान्त में प्रयास व भूल किसी-न-किसी स्तर पर अवश्य रहता है।

(4) इस को बालकों व पशुओं पर लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि उनमें चिन्तन का अभाव पाया जाता है।

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shubham yadav

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