अर्थशास्त्र (Economics)

मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त (Quantity Theory of Money)

मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त (Quantity Theory of Money in Hindi)
मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त (Quantity Theory of Money in Hindi)

मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त का आलोचनात्मक वर्णन कीजिये

“अन्य बातों के समान रहने पर मुद्रा का मूल्य उसकी मात्रा में परिवर्तन के विपरीत परिवर्तित होता है।”
(The Value of Money, other things being the same, varies inversely to its quantity]

दिया हुआ कथन मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त (Quantity Theory of Money) का कथन (statement) है। इस सिद्धान्त के कथन को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग शब्दों में व्यक्त किया है। इनमें से कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत कथन नीचे दिये गये हैं-

जे. एस. मिल के अनुसार-“अन्य बातें समान रहने पर मुद्रा का मूल्य अपनी मात्रा की विपरीत दिशा में परिवर्तित होता है । मुद्रा की मात्रा में प्रत्येक वृद्धि से उसके मूल्य में आनुपातिक कमी और मात्रा की प्रत्येक कमी से उसके मूल्य में आनुपातिक वृद्धि हो जाती है”।

प्रो. टाजिग के शब्दों में-“अन्य बातें समान रहने पर यदि मुद्रा की मात्रा को बढ़ा कर दो गुनी कर दिया जाये तो वस्तुओं का मूल्य स्तर भी पहले से दो गुना हो जायेगा और मुद्रा का मूल्य घट कर आधा रह जायेगा। इसके विपरीत यदि मुद्रा की मात्रा घटा कर आधी कर दी जाये तो वस्तुओं का मूल्य स्तर भी आधा रह जायेगा तथा मुद्रा का मूल्य दो गुना हो जायेगा।”

राबर्टसन के अनुसार-“मुद्रा के मांग की दशायें दी हुई होने पर मुद्रा के मूल्य और उसकी मात्रा में विशिष्ट सम्बन्ध होता है जिसके अनुसार मुद्रा की जितनी अधिक इकाइयां उपलब्ध होंगी-ठीक उसी अनुपात में उतना ही कम मुद्रा की प्रत्येक इकाई का मूल्य होगा।”

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि मुद्रा के मूल्य की व्याख्या को प्रस्तुत करने के लिए ऊपर लिखे सभी कथनों के आधार पर निम्नलिखित चार निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं

(i) मुद्रा की मात्रा और वस्तुओं के मूल्य स्तर में सीधा सम्बन्ध पाया जाता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जिस दिशा में मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन होता है उन दिशा में और उसी अनुपात में वस्तुओं के मूल्य स्तर में भी परिवर्तन होता है। इसलिये यदि किसी समय अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा को दो गुना अर्थात् M से बढ़ा कर 2M कर दिया जाये तो इसका प्रभाव यह होगा कि अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का मूल्य स्तर P से बढ़कर 2P हो जायेगा। इसी प्रकार यदि मुद्रा की मात्रा को M से घटा कर M/2 कर दिया जायेगा तो सामान्य मूल्य स्तर भी घटेगा और P से घट कर P/2 हो जायेगा।

(ii) मुद्रा की मात्रा और मुद्रा के मूल्य में विपरीत परिवर्तन होता है। इसका अभिप्राय हुआ कि किसी समय में यदि अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है तो मुद्रा का मूल्य अपने पूर्व स्तर से कम हो जायेगा। इसके विपरीत यदि किसी समय में अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा में कमी होती है तो मुद्रा का मूल्य बढ़ जायेगा। इस प्रकार के सम्बन्ध को विपरीत सम्बन्ध अथवा व्युत्क्रम सम्बन्ध (Inverse Relation) कहा जाता है। अत: मुद्रा की मात्रा और मुद्रा के मूल्य में व्युत्क्रम सम्बन्ध होता है।

(iii) मुद्रा की मात्रा और मुद्रा के मूल्य में जो विपरीत सम्बन्ध होता है वह आनुपातिक सम्बन्ध होता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जिस अनुपात में मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन होता है, मुद्रा के मूल्य में ठीक उसी अनुपात में विपरीत दिशा में परिवर्तन होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि यदि मुद्रा की मात्रा M से बढ़ कर 2M हो जाती है तो मुद्रा का मूल्य Vm से घट कर 1/2 Vm हो जायेगा। इसी प्रकार यदि मुद्रा की मात्रा M से घट कर 1/2Mहो जाती है तो मुद्रा का मूल्य Vm से बढ़ कर 2Vm हो जायेगा। इस प्रकार के सम्बन्ध को विपरीत आनुपातिक सम्बन्ध कहा जाता है।

(iv) मुद्रा की मात्रा और वस्तुओं के मूल्य स्तर में जो सीधा सम्बन्ध होता है वह आनुपातिक होता है। यहां यह विशेष उल्लेखनीय तथ्य है कि उपरोक्त सभी निष्कर्ष उसी दशा में प्राप्त होते हैं जब अन्य बातें समान रहें।

अन्य बातें समान रहें’ का अर्थ (Meaning of Other things being the same’)- अन्य बातें समान रहें’ का तात्पर्य मान्यताओं (assumptions) से होता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि दिया हुआ कथन उसी दशा में सत्य होगा. जबकि कुछ मान्यतायें सत्य हों। दिया हुआ कथन मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त को व्यक्त करता है। यह सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-

1. मुद्रा की मांग में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है।
2. मुद्रा की मांग एक निष्क्रिय तत्व है।
3. यदि अर्थव्यवस्था में वस्तु विनिमय (Barter) भी होता है तो उनकी संख्या अपरिवर्तित रहनी चाहिये ।
4. अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार के स्तर पर संतुलन (Full Employment Equilibrium) है।

5. अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं का कुल उत्पादन स्थिर है।
6. अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा और बैंक साख (Bank Credit) में एक निश्चित अनुपात होता जो अपरिवर्तित है।
7. यह भी माना गया है कि अर्थव्यवस्था में बैंक साख की मात्रा निश्चित है।
8. मुद्रा में प्रचलन वेग (Velocity of Circulation) में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है।
9. अर्थव्यवस्था में होने वाले क्रय-विक्रय की संख्या अपरिवर्तित रहती है।
10. यह भी मान लिया गया है कि अर्थव्यवस्था में नकद-जमा अनुपात (Cash Deposit Ratio) और ऋण-जमा अनुपात (Loan Deposit Ratio) अपरिवर्तित रहते हैं।

गणितीय प्रस्तुतीकरण (Mathematical Presentation)-

दिया हुआ कथन गणितीय समीकरणों के रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है। इस उद्देश्य के लिये निम्नलिखित दो समीकरण प्रस्तुत किये गये हैं-

(a) फिशर का समीकरण या क्रय-विक्रय समीकरण।
(b) कम्ब्रिज समीकरण या नकद-शेष समीकरण।

(a) फिशर का समीकरण (Fisher’s Equation)-फिशर के समीकरण द्वारा मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त के कथन को व्यक्त किया जाता है। यह समीकरण निम्नलिखित है-

MV=PT

जहाँ M= मुद्रा की मात्रा
V= मुद्रा का प्रचलन वेग
P= सामान्य कीमत स्तर
T= कुल सौदों की संख्या
तथा, MV = मुद्रा की पूर्ति
PT = मुद्रा की मांग
अतः फिशर के समीकरण के अनुसार-
मुद्रा की पूर्ति – मुद्रा की मांग
या, MV = PT
या,P=MV/T

अब यदि V और T स्थिर रहें तो कीमत स्तर P और मुद्रा की मात्रा M में समान आनुपातिक सम्बन्ध होता है।

(b) कैम्ब्रिज समीकरण (Cambridge Equation)- कैम्ब्रिज के अनेक अर्थशास्त्रियों जैसे मार्शल, पीगू, राबर्टसन आदि ने भी मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त (Quantity Theory of Money) को सिद्ध करने के लिए अपने-अपने समीकरण प्रस्तुत किये। इन सब समीकरणों में थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य है पर सबका आधार और आशय एक ही है। इन समीकरणों को नकद शेष समीकरण (Cash Balance Equation) भी कहा जाता है।

मार्शल का समीकरण निम्नलिखित है-


इन सभी समीकरणों में से राबर्टसन (Robertson) का समीकरण कैम्ब्रिज समीकरण का प्रतिनिधि समीकरण माना जाता है।

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shubham yadav

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