राजनीति विज्ञान (Political Science)

राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ | राजनीतिक सिद्धान्त का विषय-क्षेत्र

राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ
राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ

राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ

राजनीतिक सिद्धान्त को अंग्रेजी में पॉलिटिकल थ्योरी कहते हैं। ‘थ्योरी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द थ्योरिया हुई जिसका अर्थ है, “एक ऐसी मानसिक दृष्टि जो कि एक वस्तु के अस्तित्व और उसके कारणों को प्रकट करती है।” केवल वर्णन या किसी लक्ष्य के विषय में कोई विचार या सुझाव देना ही सिद्धान्त नहीं कहलाता। सिद्धान्त के अन्तर्गत “किसी भी विषय के संबंध में एक लेखक की पूरी की पूरी सोच या समझ सम्मिलित रहती है। उसमें तथ्यों का वर्णन, तथ्यों की व्याख्या, लेखक का इतिहास-बोध, उसकी मान्यताएँ और वे लक्ष्य सम्मिलित रहते हैं जिनके लिए किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है।”

राजनीतिक सिद्धांत की, विभिन्न लेखकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। एन्ड्रयू हेकर के अनुसार, – राजनीतिक सिद्धान्त में तथ्य और मूल्य दोनों समाहित हैं। वे एक दूसरे के पूरक हैं।” दूसरे शब्दों में, प्रत्येक सिद्धान्तशास्त्री ‘वैज्ञानिक’ और ‘दार्शनिक’ दोनों की भूमिका निभाता है। वैज्ञानिक के नाते वह ‘तथ्य’ और सामग्री एकत्रित करता है तथा दार्शनिक के रूप में वह मूल्यों का प्रतिपादन करता है। वह जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है उसमें ‘विज्ञान तत्व’ कितना निहित हैं और ‘दर्शन’ कितना विहित यह उसके स्वभाव और उसकी रूचियों पर निर्भर करता है।

जॉर्ज कैटलिन ने भी यह मत व्यक्त किया है। उसने ‘राजनीति’ को तीन वर्गों में विभाजित किया है— व्यवहार कला, राजदर्शन तथा राजविज्ञान। कैटलिन के मतानुसार राजनीतिक सिद्धान्त के अन्तर्गत ‘राजदर्शन’ और ‘राजविज्ञान दोनों सम्मिलित हैं।

जॉन प्लेमेनेज के अनुसार, “एक सिद्धान्तशास्त्री ‘राजनीति की शब्दावली’ का विश्लेषण और स्पष्टीकरण करता है। वह उन सभी अवधारणाओं की समीक्षा करता है जो कि राजनीतिक बहस के दौरान प्रयोग में आती हैं। समीक्षा के पश्चात् अवधारणाओं के औचित्य पर भी प्रकाश डाला जाता है।” दूसरे शब्दों में, सिद्धान्तशास्त्री केवल समीक्षा ही नहीं करता, वह किन्हीं विशिष्ट मूल्यों (जैसे स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, आदि) के प्रति अपनी गहरी निष्ठा भी व्यक्त करता है।

अंत में, हम वर्तमान युग के प्रसिद्ध लेखक डेविड हैल्ड के मत को प्रस्तुत करना चाहेंगे। डेविड हैल्ड ने लिखा है कि राजनीतिक सिद्धान्त, “राजनीतिक जीवन से संबंधित अवधारणाओं और व्यापक अनुमानों का एक ऐसा ताना-बाना है जिसमें शासन, राज्य और समाज की प्रकृति व लक्ष्यों और मनुष्यों की राजनीतिक क्षमताओं का विवरण सम्मिलित है।”

निष्कर्ष – राजनीतिक सिद्धान्त में अवलोकन, व्याख्या और मूल्यांकन शामिल हैं।

राजनीतिक सिद्धान्त का विषय-क्षेत्र

राजनीतिक का क्षेत्र उतना ही अधिक व्यापक है जितनी व्यापक मनुष्य की गतिविधियाँ हैं। जीवन का कोई क्षेत्र या पहलू ऐसा नहीं है जो राजनीति से अछूता रह सके। उदावादियों ने राजनीति का सम्बन्ध मात्र सरकार और नागरिकों तक ही सीमित माना है, जबकि मार्क्सवादियों ने उत्पादन के साधनों पर भी सरकार का ही स्वामित्व स्वीकार किया है। आज के नारीवादी लेखक तो पारिवारिक और घरेलू मामला में भी राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं। इस प्रकार सिद्धान्तशास्त्री को अनेक विषयों के संबंध में सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना पड़ता है। परंपरागत और आधुनिक सिद्धान्तशास्त्री जिन प्रश्नों से जूझते रहे हैं, उनमें से कुछ विशिष्ट विषय निम्नानुसार

(1) राज्य और शासन का अध्ययन – राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति और कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में प्राचीन काल से लेकर आज तक बहुत गंभीरता से विवेचन किया जाता रहा है। उसके साथ-साथ सरकार के विभिन्न रूपों (राजतंत्र, कुलीनतंत्र, लोकतंत्र, संसदीय, अध्यक्षीय, एकात्मक और संघात्मक सरकारों) का भी अध्ययन किया जाता रहा है। सरकार के गठन को लेकर बहुत विस्तृत निष्कर्ष निकाले गए हैं। सामान्यतः सिद्धान्तशास्त्रियों ने इस प्रश्नों को उठाया है कि विधानमंडल एक सदनीय होना चाहिए अथवा द्विवसदनीय ? सक्षम या कुशल कार्यपालिका के क्या लक्षण हैं? न्यायपालिका को निष्पक्ष व स्वतन्त्र बनाए रखने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए?

(2) स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे महत्वपूर्ण आदर्शो की समीक्षा- प्लेटो और अरस्तू के काल से लेकर आज तक जो विचारक हुए हैं उनके नाम अनेक विचारधाराओं के साथ जुड़े हैं, जैसे आदर्शवाद, व्यक्तिवाद, उपयोगितावाद, समाजवाद और गाँधीवाद। सभी विचारधाराओं का उद्देश्य यही था कि ऐसे समाज की रचना की जाए जो स्वतंत्रता, समानता और न्याय के आदर्श पर आधारित हो। उदारवादियों ने राजनीतिक स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की स्थापना के लिए जो संघर्ष किया, उसकी सराहना कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने भी की, पर उन्होंने यह जरूर कहा कि सच्चा लोकतंत्र तब आएगा जब समाज के वर्ग भेद मिट जाएँगे। गांधी ने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें सत्ता का अधिकतम विकेंन्द्रीकरण पाया जाए। विकेन्द्रीकरण भी आवश्यक है। उनके अनुसार प्रशासन, उत्पादन और वितरण, सभी की मूल इकाई ‘ग्राम’ होगा। इसी को उन्होंने ‘ग्राम-स्वराज’ का नाम दिया।

(3) मानवीय समूहों, वर्गों और संस्थाओं का अध्ययन – राज्य या सरकार का अध्ययन, हम मानवीय समूहों, वर्गों और संस्थाओं से अपने को अलग रखकर नहीं कर सकते। इसलिए राजनीति के आचार्यों ने समाज के विभिन्न रूपों (लघु या स्थिर समाज तथा बृहत् अथवा गतिशील समाज) को रेखांकित करने की कोशिश की। जिसे हम वृहत् और गतिशील समाज कहते हैं, उसमें बहुत-से समूह, संस्थाएँ और समुदाय काम कर रहे हैं। कोई एक समुदाय सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। इसलिए बहुलवादियों (बार्कर, लास्की और मैकाईवर, आदि) के इस कथन में सच्चाई है कि राज्य को अन्य समुदायों (परिवार, सजातीय समूह, मजदूर संघ, व्यावसायिक संघ, छात्र व महिला संघों और सांस्कृतिक व धार्मिक संघों) की स्वाधीनता का आदर करना चाहिए।

मार्क्सवादियों द्वारा प्रतिपादित वर्ग संरचना का सिद्धान्तत भी हमारे अध्ययन का प्रमुख केंद्र बिन्दु बन गया है। मार्क्सवादियों का कहना है कि जिस वर्ग के हाथों में उत्पादन के साधन — भूमि, श्रम व पूँजी — होते हैं, वही वर्ग देश पर शासन करता है। मार्क्सवाद के प्रसार के साथ ही साथ उसकी कुछ प्रमुख मान्यताओं की आलोचना भी शुरू हो गई। लोकतांत्रिक समाजवादियों (बर्नस्टाइन, सिडनी वेब, बर्नार्ड शा, आदि) ने पूँजीवाद का विरोध अवश्य किया, पर लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों में उनकी अट्ट निष्ठा है। वे ‘वर्ग संघर्ष’ के बजाय ‘वर्ग सामंजस्य’ में विश्वास रखते हैं।

(4) राजनीतिक दल, मताधिकार और चुनावी राजनीति से जुड़े प्रश्नों की समीक्षा— सिद्धान्तशास्त्रियों ने राजनीतिक दलों की न सिर्फ परिभाषाएँ ही दीं, बल्कि उनकी संरचना, उनके कार्यों और प्रकारों पर प्रकाश डाला है। आमतौर पर तीन प्रकार की दल पद्धतियों की चर्चा की जाती है— एकदलीय पद्धति, द्विदलीय पद्धति और बहुदलीय पद्धति। एकदलीय पद्धति के भी दो प्रमुख रूप बतलाये गए हैं—सर्वाधिकारी पद्धतियों तथा सवेच्छाचारी पद्धतियाँ वे देश जिनमें सरकारी विचारधारा वाली सिर्फ एक ही पार्टी होती है, सर्वाधिकारी शासन पद्धति उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। कम्युनिस्ट और फासिस्ट देशों को हम इसी श्रेणी में रखेंगे। दूसरे, कुछ ऐसे देश हैं । जहाँ कोई प्रभावी राजनीतिक विचारधारा नहीं पायी जाती है जहाँ सैनिक पदाधिकारी या असैनिक वर्ग बल-प्रयोग द्वारा सत्ता हथिया लेते हैं। एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के बहुत से देश एकदलीय व्यवस्था का शिकार रह चुके हैं, जैसे बर्मा (म्यामांर), ईरान सऊदी अरब और तंजानिया। ये देश स्वेच्छाचारी शासन पद्धति का उदाहरण प्रस्तुत करते थे।

मताधिकार और प्रतिनिधित्व के विषय में बहुत से सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया। एक लंबे अर्से तक महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया और इसके लिए तरह-तरह की दलीलें दी गईं। पर अंत में व्यस्क मताधिकार के सिद्धान्त का विजय हुई जिसका अर्थ यह है कि नाबालिग, पागल और अपराधियों को छोड़कर शेष सभी लोगों को मतदान का अधिकार दिया जाए।

(5) मानवीय व्यवहार का अध्ययन– व्यवहारवादी लेखकों ने ‘मानवीय व्यवहार’ को ही अध्ययन की मूल इकाई माना है। व्यवहार के अंतर्गत न सिर्फ प्रकट क्रियाएँ, बल्कि व्यक्तियों की प्रवृत्तियाँ, उनके विश्वास और उनकी अपेक्षाएँ भी शामिल हैं। व्यवहारवादी क्रांति को आगे बढ़ाने में इन विद्वानों का विशेष योगदान रहा है-हैरोल्ड लासवेल, जी. आमंड तथा जेम्स कोलमैन। सुप्रसिद्ध लेखक डेविड ईस्टर्न का नाम भी व्यवहारवादी क्रांति से ही जुड़ा हुआ है। व्यवहारवादियों ने राजनीतिक दलों, दबाव गुटों, जनमत, मतदान आचरण और व्यवस्था विश्लेषण पर विशेष बल दिया। तथ्यों के संकलन के लिए उन्होंने कई तरीके अपनाये, जैसे चुनाव परिणामों की समीक्षा तथा मतगणना और जनगणना के आँकड़ों का विश्लेषण। व्यवहारवादियों ने राजनीति को ‘विशुद्धत विज्ञान’ बनाने पर बल दिया।

(6) नारीवाद अथवा नारी-आंदोलन – जब सभी देशों में नारी जाति के विरूद्ध षड्यंत्र होते रहे हों तो यह स्वाभाविक ही था कि इन साजिशों पर से पर्दा उठाने का प्रयास किया जाए। नारी आंदोलन के प्रणेताओं की यह दलील बड़ी सार्थक है कि उदारवादी और मार्क्सवादी दोनों तरह के लेखकों ने एक लंबे अर्से तक नारी उत्पीड़न के विरूद्ध जोरदार आवाज उठाई उदारवादी लेखकों की मान्यता यह रही कि पारिवारिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप उठाई। उदारवादी लेखकों की मान्यता यह रही कि पारिवारिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप उचित नहीं है, जबकि मार्क्सवादी लेखकों ने आर्थिक वगा तक ही अपना ध्यान केन्द्रित रखा और पारिवारिक मामलों का अपने अध्ययन का विषय नहीं बनाया।

इसमें कोई संदेह नहीं कि पारिवारिक मामलों में एक हद तक ही सरकारी हस्तक्षेप उचित है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि इन मामलों को नजरअंदाज कर दिया जाए। यदि भारत का ही उदाहरण लें तो आखिरकार सती-प्रथा, बाल विवाह और देवदासी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई या नहीं। 1970 के दशक में नारी मुक्ति के सवालों को लेकर बहुत से गंभीर प्रयास किये गए। पश्चिम में तो इस तरह के अध्ययन (Women’s Studies) 1960 के दशक में ही शुरू हो गए थे। ‘स्त्री के सवालों’ पर पूर्वी और पश्चिमी समाजों में गहरा मतभेद है। फिर भी सभी लेखकों ने इन बातों पर प्रकाश अवश्य डाला है कि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की क्या स्थिति हैं। और राजनीतिक क्षेत्र में उनकी भागीदारी कैसे सुनिश्चित की जाए ?

(7) राष्ट्र-राज्य और विश्वीकरण – यद्यपि राष्ट्र-राज्य एक ऐतिहासिक सच्चाई है और हम सभी को अपनी-अपनी राष्ट्रीयता पर गर्व है, पर विश्वीकरण की प्रक्रिया राष्ट्र-राज्यों के लिए एक खुली चुनौती है। अनेक ऐसे कारक हैं। जो राष्ट्र-राज्यों की प्रभुसत्ता को सीमित करते हैं, जैसे कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, शक्ति गुट और विभिन्न क्षेत्रीय संगठन क्षेत्रीय संगठनों के अंतर्गत हम यूरोपीय संसद, दक्षेस और आसियान आदि निकायों की चर्चा कर सकते हैं राज्यों द्वारा जो नीतियाँ बनाई जाती हैं और निर्णय लिए जाते हैं उन पर सभी कारकों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। राष्ट्र राज्य और प्रभुसत्ता का वर्णन करते समय यदि राजनीतिक विचारक इन सब बातों पर बल ने दें तो उनका अध्ययन अपूर्ण और अधूरा लगेगा।

(8) शक्ति की अवधारणा- अनेक विद्वानों ने राजनीति को ‘शक्ति’ का विज्ञान माना है। शक्ति की अवधारणा को विशेष बल राष्ट्र-राज्यों के उदय से मिला। मैक्स वेबर, जार्ज कैटलिन और हैरोल्ड लासवैल, आदि विद्वान शक्ति, प्रभाव और सत्ता को राजनीति की प्रमुख विषय-वस्तु माना है।

(9) विकास, आधुनिकीकरण और पर्यावरण की समस्याएँ—समाजशास्त्र के बढ़ते प्रभाव की वजह से विद्वानों का ध्यान समाजीकरण, विकास, गरीबी, असमानता, सामाजिक रोष और संघर्ष की ओर से विशेष रूप से आकष्ट हुआ। विकासशील देशों के राजनीतिक विकास को रेखांकित करने में मुख्य भूमिका इन विद्वानों की रहीः फ्रैंड रिग्स, जी. आमंड, डेविड एप्टर और जेम्स कोलमैन । माइरन वीनर और रजनी कोठारी भारत के सामाजिक-राजनीतिक विकास का क्रमबद्ध अध्ययन किया। जातीय विद्वेष और दलित राजनीति अब भारतीय राजनीति के प्रमुख संदर्भ – बिन्द बन गए हैं। भारतीय विचारक महिला अधिकारों, मानव अधिकारो और सामाजिक आर्थिक विकास के संबंध में गाँधीवादी दृष्टिकोण का भी गंभीरता से अध्ययन कर रहे हैं।

पिछले कुछ वर्षों से पर्यावरण संबंधी समस्याओं से निबटना मनुष्य जाति का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया है। प्राकृतिक संसाधन केवल हमारे लिए नहीं हैं, वे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हैं। पर्यावरण संरक्षण के बहुत से उपाय सुझाये गए हैं।, जैसे कि जनसंख्या नियंत्रण वन संरक्षण और आद्योगिक विकास के लिए साफ-सुथरी तकनीक को अपनाना। इस संदर्भ में भारतीय दार्शनिकों की इस सीख पर ध्यान देने की भी जरूरत है कि अपनी आवश्यकताएँ कम करो।

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shubham yadav

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