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संचार माध्यम में फिल्मों की भूमिका | Role of Cinema in Hindi

संचार माध्यम में फिल्मों की भूमिका
संचार माध्यम में फिल्मों की भूमिका

संचार माध्यम में फिल्मों की भूमिका का विश्लेषण कीजिए।

संचार माध्यम में फिल्मों की भूमिका– चलचित्र का प्रथम प्रदर्शन अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोप में उन्नीसवी शताब्दी के अन्त में हुआ। बम्बई में चलचित्र का प्रदर्शन पहली बार लूमियर बन्धुओं द्वारा 7 जुलाई, 1896 को हुआ। “द ग्रेट ट्रेन रौबरी” नामक प्रथम लम्बी फीचर फिल्म का निर्माण अमेरिका में सन् 1903 में हुआ। बम्बई में नियमित चलचित्र प्रदर्शन या फिल्म शो सन् 1904 से होने लगे। हम पाते हैं कि यूरोप और अमेरिका के साथ-साथ ही भारत में भी फिल्मों का प्रदर्शन होने लगा। पहले चलचित्रों का प्रदर्शन क्लबों में होता था। सन् 1910 में सिनेमाघर भी बन गये। प्रथम भारतीय फीचर फिल्म के निर्माण का श्रेय दादा साहेब फाल्के को जाता है जिन्होंने सन् 1913 में “हरिश्चन्द्र” बनायी। इस फिल्म में पुरुष कलाकार द्वारा ही साड़ी पहनकर राजा हरिश्चन्द्र की पत्नी तारामती की भूमिका निभाई गयी। सन् 1917 में मदोन ने कलकत्ते में “नल दमयन्ती” का निर्माण किया। तब फिल्मों में स्वर नहीं था। मूक फिल्मों के बाद बोलती गाती फिल्मों का प्रादुर्भाव हुआ जब अर्देशिर ईरानी ने “आलम आरा’ को 14 मार्च 1931 में प्रदर्शित किया। इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे-जुबेदा, विट्ठल, पृथ्वीराज कपूर, जगदीश सेठी आदि। अर्देशिर ईरानी ने ही भारत की प्रथम रंगीन फिल्म “किसान कन्या” का भी निर्माण किया।

फिल्में जनसंचार का अत्यन्त सशक्त एवं लोकप्रिय माध्यम हैं। ये ऐतिहासिक, धार्मिक सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर मुख्य रूप से आधारित होती हैं किन्तु इनका मुख्य उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन है। दूसरे शब्दों में, फिल्म का सबसे अधिक इस्तेमाल मनोरंजन के लिए हुआ है। आज भी फिल्में मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन हैं तथा वीडियो और टेलीविजन के आने के बावजूद लोग सिनेमाघरों में जाकर बड़े परदे पर फिल्में देखना पसन्द करते हैं।

“भारत में बनने वाली अधिकांश फिल्में प्रेम-प्रसंग पर आधारित होती हैं जिनमें प्रेम दृश्यों, गीतों और मारधाड़ वाले दृश्यों का वर्चस्व होता है किन्तु महत्वपूर्ण यादगार और पुरस्कृत फिल्मों की सूची का जब हम अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों ने अत्यन्त शाश्वत भूमिका निभाई है और पीढ़ी दर पीढ़ी इनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी है।

भारत में वृत्त चित्र और समाचार चित्र (न्यूजरील) भी नियमित रूप से बनते हैं। ज्यादातर इन्हें भारत सरकार की संस्था फिल्म्स डिवीजन बनाती है। समाचार-चित्रों को सिनेमाघरों में फिल्मों के साथ भी दिखाया जाता है। सामाजिक कुरीतियों, समाज कल्याण, परिवार-नियोजन, अन्धविश्वास, साक्षरता, पर्यावरण, जैसे -महत्वपूर्ण विषयों पर दस मिनट से लेकर एक घण्टे तक की फिल्में बनती हैं जो गांवों, कस्बों और मोहल्लों में फील्ड पब्लिसिटी विभाग द्वारा तथा टेलीविजन पर भी दिखायी जाती हैं।

भारत में निर्मित सभी फिल्मों को सेंसर बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करके जन-प्रदर्शन के लिए सेंसर सर्टिफिकेट लेना पड़ता है। सभी उम्र के लोगों के देखने योग्य फिल्मों को ‘ए/ यू’ श्रेणी में रखा जाता है, अर्थात् इन फिल्मों को बच्चे अपने माता पिता के साथ देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त बहुत अच्छी या धार्मिक फिल्म पर टैक्स फ्री भी कर दिया जाता है। भारत में फिल्म समारोहों का आयोजन नियमित रूप से होता है जिसमें भारत तथा विदेशों में बनी फिल्में प्रदर्शित होती हैं।

भारत सरकार द्वारा प्रतिवर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं। सर्वोत्तम बाल चित्र के लिए निर्माताओं को तथा सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ गीतकार, सर्वश्रेष्ठ संगीतकार, सर्वश्रेष्ठ गायक-गायिका, सर्वश्रेष्ठ स्क्रीन प्ले, सर्वश्रेष्ठ सम्पादन, सर्वश्रेष्ठ फोटोग्राफी, सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी, सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन, सर्वश्रेष्ठ परिधान संयोजन आदि के लिए व्यक्ति विशेष को पुरस्कृत किया जाता है। राष्ट्रीय पुरस्कार पाना अत्यन्त सम्मान की बात समझी जाती है। इनमें उस वर्ष में प्रदर्शित सभी भाषाओं की फिल्मों को सम्मिलित किया जाता है। इन पुरस्कारों के अतिरिक्त प्रत्येक भाषा में बनी सर्वोत्तम फिल्म के लिए भी पुरस्कार दिये जाते हैं। विभिन्न विधाओं, जैसे-जीवन वृत्त, विज्ञान, उद्योग, संस्कृति, कृषि, इतिहास आदि से जुड़ी फिल्मों को भी प्रत्येक वर्ष पुरस्कृत किया जाता है।

सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने, देशभक्ति की भावना जगाने, समाज में व्याप्त कुरीतियों और अन्धविश्वास को दूर करने, नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने, जीवन को सुन्दर बनाने तथा चारित्रिक विकास, जैसे क्षेत्रों में फिल्मों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है किन्तु इस बात से भी नकारा नहीं जा सकता कि आजकल के जीवन में बढ़े हुए अपराध-स्तर के लिए भी काफी हद तक फिल्में ही जिम्मेदार हैं।

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shubham yadav

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