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उदारवाद क्या है?
उदारवाद क्या है? इस सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विचार प्रचलित रहे हैं। उदारवाद का घर इंग्लैण्ड इसलिए अनेक व्यक्ति उदारवाद को अनुदारवाद का विलोम तथा प्रगति और परिवर्तन का पर्यायवाची मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जब अनुदारवादी ब्रिटेन में लम्बे समय से चली आ रही राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सस्थाओं, परम्पराओं और रूढ़ियों को बनाएँ रखना चाहते थे; उस समय उदारवाद के द्वारा सुधार परिवर्तन और प्रगति का समर्थन किया गया, लेकिन उदारवाद को प्रगति और परिवर्तन का पर्यायवाची नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इसके द्वारा हमेशा परिवर्तनों का स्वागत नहीं किया गया है और परिवर्तनों का स्वागत करने के बजाय कुछ अवसरों पर इसने विद्यमान व्यवस्था को बनाएँ रखने का पक्ष लिया है। इसके अतिरिक्त उदारवाद परिवर्तन हेतु क्रान्ति के मार्ग को अपनाने के तो नितान्त विरूद्ध है।
कुछ व्यक्ति उदारवाद को व्यक्तिवाद का पर्यायवाची मानते हैं जो पूर्णतया सत्य नहीं है। यद्यपि व्यक्तिवाद उदारवाद का अभिन्न अंग है, किन्तु दोनों एक ही चीज नहीं हैं। जार्ज सेबाइन ने लिखा है कि लगभग 1830 तक तो इन दोनों में कोई विशेष भेद नहीं था, क्योंकि उस समय तक ये दोनों विचारधाराएं व्यक्ति के जीवन में राज्य के हस्तक्षेप की विरोधी थीं, लेकिन इसके बाद स्थिति बदल गयी। ग्रीन जैसे उदारवादियों के द्वारा नकरात्मक स्वतन्त्रता के साथ-साथ सकरात्मक स्वतन्त्रता पर जोर देते हुए कहा गया कि समाज के सभी सदस्यों के कल्याण और विकास के लिए राज्य के द्वारा समुचित सुविधाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए। यदि जन-कल्याण के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों के जीवन में हस्तक्षेप करना या राज्य द्वारा व्यक्तियों के जीवन पर नियन्त्रण रखा जाना आवश्यक हो, तो राज्य ऐसा भी कर सकता है।
प्रायः लोकतन्त्र को उदारवाद का नाम दे दिया जाता है. लेकिन यह भी सीमित अर्थ में ही सही है। आधुनिक लोकतन्त्र बहुसंख्यक वर्ग की सत्ता में विश्वास करता है, लेकिन उदारवाद सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में बहुसंख्यक वर्ग की अपेक्षा अल्पसंख्यक वर्ग के हित की रक्षा के प्रति अधिक जागरूक है। इस प्रकार उदारवाद लोकतन्त्र से कुछ अधिक हो जाता है।
उदारवाद परिवर्तन और प्रगति का सन्देशा देता है और व्यक्तिवाद तथा लोकतन्त्र भी इसमें शामिल हैं, लेकिन उदारवाद केवल यही नहीं है। व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर अब तक दो प्रकार की विचारधाराओं का प्रतिपादन किया गया है। एक प्रकार की विचारधाराएं राज्य को समस्त मानवीय जीवन का केन्द्र और अपने आप में एक साध्य मानती हैं, लेकिन दूसरी श्रेणी की विचारधाराएं इस बात का प्रतिपादन करती हैं कि व्यक्ति और राज्य में व्यक्ति ही साध्य है। उदारवाद द्वितीय प्रकार की इन विचारधाराओं का समूह है जो इस बात पर बल देता है कि समस्त मानवीय व्यवस्था का केन्द्र व्यक्ति ही है, राज्य, समाज और अन्य संस्थाएं इस व्यक्ति के कल्याण के साधन मात्र ही हैं और समस्त राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण व्यक्ति को केन्द्र मानकर ही किया जाना चाहिए।
उदारवाद का उदय- उदारवाद जन्म के लिए सबसे प्रमुख उत्तरदायी तत्व निरंकुशतावादी शासन के विरूद्ध प्रतिक्रिया ही रहा है। 16वीं और 17वीं शताब्दी यूरोप के इतिहास में निरंकुश राजतन्त्र के लिए प्रसिद्ध थीं। इनमें से अनेक राज्यों के शासकों द्वारा दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर अपने आपको ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया गया था। इनमें से कुछ सरकारें तो | इतनी अधिक निरंकुश एवं अमर्यादित हो गयी थी कि आशीर्वादम् के शब्दों में, “उनके अर्थहीन कानून निश्चित दिनों के लिए विशिष्ट प्रकार के भोजन निर्धारित करते थे तथा मुद्र को दफनाने के लिए विशेष प्रकार के वस्त्रों की व्यवस्था की आज्ञा देते थे।” इस प्रकार के निरंकुशतावादी शासन के विरूद्ध प्रतिक्रिया उत्पन्न होनी स्वाभाविक थी और जॉन लॉक, मिल, स्पेन्सर तथा ग्रीन के द्वारा व्यक्ति स्वातन्त्रय की विचारधारा उदारवाद का प्रतिपादन किया गया।
उदारवाद के मूल सिद्धान्त
उदारवाद एक विशाल नदी की भांति है जिससे बहुत सी छोटी नदियां मिलती हैं और उनसे प्रवाह क्रम में बहुत-सी शाखाएं और उपशाखाएं निकल पड़ती हैं। उदारवाद के मूल निम्नलिखित कहे जा सकते हैं सिद्धान्त
(1) मानवीय विवेक में आस्था- उदारवादी विचारधारा का सर्वप्रमुख तत्व मानवीय बुद्धि और विवेक में मूलभूत आस्था है। यूरोप के विभिन्न देशों में मध्य युग के अन्तर्गत ईसाइयत ने मनुष्य की बुद्धि को कठोर बन्धनों में जकड़ रखा था और ऐसा माना जाता था कि चर्च के अधिकारी, विशेषकर पोप, शास्त्रों का जो अर्थ बतलाते हैं, वही प्रमाणिक है, लेकिन 17 वीं और 18 वीं सदी में नवजागरण के साथ ही प्रमुख उदारवादी दर्शनिकों ने शास्त्रों का अन्धानुकरण करने। के स्थान पर स्वयं अपने विवेक के आधार पर सोचना प्रारम्भ किया। जॉन लॉक और टामस पेन को ऐसे विचारकों में प्रमुख कहा जा सकता है। टामस पेन ने तो समस्त रूढ़िवादियों को चुनौती देते हुए कहा कि ‘मेरा अपना ही मेरा चर्च है।’ इस प्रकार उदारवाद ने इस बात में विश्वास करता है कि भावना पर विवेक को प्रधानता दी जानी चाहिए। उदारवाद ने इस दृष्टिकोण को अपनाकर स्वतन्त्र चिन्तन को प्रोत्साहित किया।
(2) इतिहास तथा परम्पराओं का विरोध – उदारवाद मानवीय विवेक में विश्वास करता है और किसी भी ऐसे विचार, संस्था या सिद्धान्त को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। जो बुद्धिसंगत न चाहे वह कितना ही पुराना क्यों न हो और चाहे उसे कितना ही पवित्र क्यों न समझा जाता रहा हो। उदारवाद का विश्वास रहा है कि यदि प्रगति के लिए इतिहास तथा परम्पराओं के प्रति विद्रोह किया जाना आवश्यक हो तो इस प्रकार का विद्रोह अवश्य ही किया जाना चाहिए। इंग्लैण्ड के उपयोगितावादी उदारवादियों ने उपयोगिता के नाम पर पहले से चल रही व्यवस्था और परम्पराओं का खण्डन किया। उनके प्रभाव के कारण ही 19वीं सदी में इंग्लैण्ड के जीवन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, हर लेकिन उदारवादी सदैव ही विद्यमान व्यवस्था के विरोधी नहीं रहे हैं। और आज तो वे बहुत सीमा तक विद्यमान राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को बनाएँ रखने के पक्ष में हो गे हैं।
(3) मानवीय स्वतन्त्रता की धारणा में विश्वास- उदारवादी विचारधारा के अनुसार मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र उत्पन्न होता है और स्वतन्त्रता उसका प्राकृतिक एवं जन्मसिद्ध अधिकार है । स्वतन्त्रता का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के जीवन पर किसी स्वेच्छाचारी सत्ता का नियन्त्रण न हो और ऐसा वातावरण हो कि व्यक्ति अपने विवेक के अनुसार आचरण कर सकें। उदारवादियों ने सदैव ही मानव जीवन पर निरंकुश सत्ता का विरोध किया है और वे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक और धार्मिक सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्रता का समर्थन कर रहे हैं। लॉस्की के शब्दों में, “स्वतन्त्रता के साथ इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है, क्योंकि इसका जन्म ही समाज के किसी वर्ग द्वारा जन्म अथवा धर्म के आधार पर प्राप्त विशेषाधिकारों के विरोध में हुआ था।”
(4) व्यक्ति साध्य तथा समाज और राज्य साधन- उदारवाद का मूल आधार व्यक्ति है और वे व्यक्ति को साध्य मानकर ही आगे बढ़ते हैं। उनके अनुसार व्यक्ति का भौतिक, बौद्धिक और आध्यामिक कल्याण, उसकी रचनात्मक शक्तियों का विकास ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज है। समाज और राज्य तो साधन मात्र हैं और उनका महत्व उसी सीमा तक है, जहां तक वे इस लक्ष्य की पूर्ति में सहायक होते हैं।
(5) समाज और कृत्रिम संगठन- उदारवादी समाज और राज्य को प्राकृतिक नहीं वरन् कृत्रिम मानते हैं और उनका विचार है कि इनका निर्माण व्यक्तियों के द्वारा अपनी कुछ विशेष आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही किया गया। व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है, समाज और राज्य का संगठन उनके द्वारा अपनी निश्चित योजना के अनुसार किया गया और इस नाते व्यक्तियों का यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वे समाज और राज्य के संगठन में अपनी आवश्यकतानुसार संशोधन परिवर्तन का कार्य कर सकें। इस प्रकार उदारवादी न तो राज्य की प्राकृतिकता में विश्वास करते हैं और न ही व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय पर सावयव सिद्धान्त में।
(6) व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की धारणा में विश्वास- उदारवादियों का विश्वास रहा है कि व्यक्ति के कुछ जन्मजात और अनुल्लंघनीय अधिकार हैं, जिन्हें उनके प्राकृतिक अधिकार कहा जा सकता है। उनका कथन है कि अधिकारों की सृष्टि किसी मानवीय संस्था, समाज या राज्य के द्वारा नहीं की गयी है, वरन् ये तो इन संस्थाओं के अस्तित्व के पूर्व से विद्यमान रहे हैं और समाज तथा राज्य की उत्पत्ति इन अधिकारों की रक्षा के लिए ही हुई है। इस सम्बन्ध में लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त विशेष प्रसिद्ध है जिसके अनुसार व्यक्ति के मुख्य प्राकृतिक अधिकार जीवन सम्पत्ति और स्वतन्त्रता के अधिकार हैं।
(7) धर्मनिरपेक्ष राज्य का आदर्श- उदारवाद धर्म का निरपेक्ष राज्य के आदर्श में विश्वास करता है जिसके अनुसार राज्य को कोई धर्म नहीं होना चाहिए, राज्य के द्वारा अपने सभी नागरिकों कों पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए और धर्म के आधार पर अपने नागरिकों में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए।
मध्यकालीन यूरोप के विभिन्न देशों में किसी न किसी एक विशेष धर्म को प्रधानता प्राप्त थी। ऐसी स्थिति में उदारवादियों ने प्रारम्भ से ही धार्मिक सहिष्णुता और स्वतन्त्रता की आवाज उठायी। जॉन लॉक धार्मिक सहिष्णुता का कट्टर समर्थक था। 18 वीं सदीं के फ्रेंच दार्शनिकों ने भी चर्च और राज्य को पृथक् करने के लिए आन्दोलन किया और इस प्रकार के आन्दोलन के परिणामस्वरूप फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद फ्रांस और संयुक्त राज्य अमरीका मे धर्म निरपेक्ष राज्यों की स्थापना हुई। इसके बाद तो यूरोप के सभी देशों में धर्म निरपेक्षता की लहर ही आ गयी। वस्तुतः धर्म निरपेक्षता या धर्म निरपेक्ष राज्य का आदर्श उदारवाद की एक बहुत बड़ी देन है।
(8) शासकीय स्वेच्छाचारिता का विरोध और कानून की प्रधानता का प्रतिपादन- उदारवाद अपने स्वभाव से ही शासकीय स्वेच्छाचारित का विरोध करता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि शासन में व्यक्ति की नहीं वरन् कानून की प्रधानता होनी चाहिए। शासन वर्ग भी इन कानूनों को मानने के लिए उतनी ही सीमा तक बाध्य होना चाहिए, जितनी सीमा तक शासित वर्ग। यदि शासक वर्ग मनमानी करता है और जनता के हितों का ध्यान नहीं रखता ,,तो ऐसी स्थिति में जनता को अत्याचारी शासन के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार प्राप्त हो जाता है, लेकिन इसके साथ ही उदारवाद की धारणा है कि परिवर्तन हेतु शान्तिपूर्ण और वैधानिक उपाय ही अपनाएँ जाने चाहिए। इस सम्बन्ध में 1688 की इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति उनका आदर्श है।
(9) लोकतान्त्रिक पद का समर्थन- लोकतान्त्रिक पद्धति का समर्थन उदारवाद का अन्तिम, किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण विचार कहा जा सकता है। उदारवाद का जन्म ही स्वेच्छाचारी शासन के विरूद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ और लोक-प्रभुत्व उदारवाद का मूल तत्व है। उदारवादी विचारधारा के अनुसार सभी मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होते हैं, इसलिए किसी को भी दूसरों पर उनकी सहमति के बिना शासन करने का अधिकार नहीं हो सकता है। वे इस बात पर बल देते हैं कि व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा का सर्वोच्च उपाय यहीं हो सकता है कि शासन की शक्ति एवं स्वयं जनता के हाथों में हो और किसी व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष को स्वेच्छाचारी ढंग से शासन करने का अधिकार न हो। इसी उदारवादी विचार को अभिव्यक्ति देते हुए फ्रांस के ‘मानवीय अधिकारों की घोषणा’ में कहा गया था, “राष्ट्र ही तत्वतः सम्पूर्ण प्रभुत्व का स्त्रोत है कोई व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का कोई समूह किसी ऐसी सत्ता का अधिकारी नहीं हो सकता, जो राष्ट्र सेन प्राप्त हुई हो।”
(10) अन्तर्राष्ट्रीय और विश्व शान्ति में विश्वास- उदारवाद अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्य की निरंकुशता को स्वीकार नहीं करता और विश्व शान्ति तथा विश्व बन्धुत्व के आदर्श का प्रतिपादन करता है। उदारवाद के अनुसार प्रत्येक राष्ट्र की शनैः-शनैः शान्तिपूर्वक प्रगति करना चाहिए और उसे अन्य राष्ट्रों की वैसी ही प्रगति में सहायता देनी चाहिए। उदारवाद के अनुसार राष्ट्रीय वैमनस्य की भावना को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए और राज्यों के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता तथा सामान्य अन्तर्राष्ट्रीय नियमों को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए।
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