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निर्देशन का महत्त्व
निर्देशन का मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसको जीवन पर्यन्त निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। निर्देशन की प्रक्रिया उसके जीवन की समस्याओं के समाधान के लिये उसको सक्षम बनाकर व्यक्ति के जीवन को सुगम व सरल बनाने में सहायता करती है। प्राचीन काल में भी निर्देशन की परम्परा का प्रचलन था लेकिन उसका रूप भिन्न था। उस समय आदेशात्मक निर्देशन का प्रचलन था जिसमें परिवार को मुखिया, धर्मगुरु, जाति का मुखिया बिना व्यक्ति की क्षमताओं के ज्ञान के निर्देशन दिया करते थे जो निर्देशन की अपेक्षा निर्देश हुआ करता था। उस समय जीवन सादा और सरल था लेकिन वर्तमान समय में जीवन इतना जटिल हो गया है कि व्यक्ति के सामने अनेक समस्याएँ प्रतिपल मुँह फाड़े दिखायी पड़ती हैं। इसीलिये व्यक्ति के लिये आज निर्देशन का महत्त्व अधिक बढ़ गया है। निम्नलिखित बिन्दु निर्देशन के महत्त्व को स्पष्ट करते हैं-
1. सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन- समाज में हो रहे परिवर्तन से समाज में प्राचीन मूल्यों के स्थान पर नये मूल्यों की स्थापना हो रही है। ऐसी परिस्थिति में युवकों का जीवन द्वन्द्वमय हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में उचित मूल्यों को जीवन में धारण करने में नवयुवकों की सहायता करने में निर्देशन की उपादेयता स्पष्ट है।
2. भावात्मक समस्याएँ- व्यक्ति जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों के कारण विविध भावात्मक समस्याओं से ग्रसित रहते हैं। इसी प्रकार पारिवारिक वातावरण अनेक बच्चों को भावात्मक समायोजन की समस्या से विचलित करता है। ऐसी परिस्थिति में निर्देशन ही उनमें भावात्मक स्थिरता पैदा करने में सहायक होता है।
3. वैयक्तिक भिन्नता – मनोवैज्ञानिक ज्ञान की वृद्धि ने आज वैयक्तिक भिन्नताओं के प्रति विद्वानों को सचेत किया है। विश्व में कोई दो व्यक्ति मनो-शारीरिक गुणों में समान नहीं होते हैं। इस भिन्नता के परिणामस्वरूप व्यक्ति पृथक्-पृथक् क्षेत्र में विविध प्रकार की समस्याओं का सामना करता है। इन वैयक्तिक भिन्नताओं के कारण निर्देशन का महत्त्व बढ़ गया है।
4. परिवर्तित शिक्षा प्रणाली- स्वाधीन भारत में नये समाज के निर्माण के लिए शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से मुदालियर आयोग और कोठारी आयोग का गठन किया गया। इन आयोगों के सुझाव पर शिक्षा में व्यावसायिक पक्ष के विकास पर अधिक बल दिया गया। इसके लिये 10+2+3 शिक्षा प्रणाली प्रारम्भ की गयी और पाठ्यक्रम में व्यापक परिवर्तन किये गये। इन परिवर्तनों ने निर्देशन के महत्त्व में अभिवृद्धि की है।
5. अपव्यय व अवरोधन- हमारे देश के शिक्ष जगत् से सम्बन्धित बड़ी समस्या अपव्यय और अवरोधन की है जिसके कारण अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पा रहा है। अपव्यय और अवरोधन के कारणों का पता लगाकर निर्देशन द्वारा इस समस्या को हल किया जा सकता है।
6. व्यवसायों में विविधता- आज के वैज्ञानिक और औद्योगिक युग में व्यवसायों की विविधता के साथ ही किसी विशिष्ट कार्य में योग्यता की माँग में भी वृद्धि हो रही है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति व्यवसाय चयन तथा उसमें प्रवेश के लिये आवश्यक प्रशिक्षण की समस्या का सामना करता है। ऐसी परिस्थिति में निर्देशन की उपादेयता का पता चलता है।
7. समाज की जटिल प्रकृति- पूर्व में समाज सरल प्रकृति का होता था लेकिन वर्तमान औद्योगीकरण ने परिवार और समाज को इतना जटिल बना दिया है कि परिवार बिखर रहे हैं और सामाजिक बन्धन शिथिल होते जा रहे हैं। इस प्रकार के जटिल समाज में व्यक्ति समायोजन सम्बन्धी अनेक समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं के समाधान में निर्देश की सहायता का महत्त्व लोगों को अनुभव हो रहा है।
8. शिक्षा का व्यवसायीकरण- भारत में शिक्षा और रोजगार में समन्वय के अभाव में ऐसी शिक्षा का प्रसार अधिक हुआ है जो छात्रों के मानसिक और सामाजिक विकास में तो सहायक है लेकिन जीविकोपार्जन में सहायक नहीं है। वर्तमान में शिक्षा को रोजगारपरक बनाने के अधिक प्रयास हो रहे हैं ताकि व्यक्ति रोजगार चयन करने के बाद उसके लिये समुचित प्रशिक्षण प्राप्त कर सके। इस अवसर पर व्यक्ति को निर्देशन के महत्त्व का ज्ञान होता है क्योंकि निर्देशन ही इस अवसर पर उसकी सहायता कर सकता है।
9. अवसाद का बढ़ता प्रभाव – आजकल छात्रों में अवसाद इतना बढ़ गया है कि अनेक छात्र आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं। अवसाद बढ़ने का मुख्य कारण प्रतियोगिता है। साथ ही माता-पिता की अपने बच्चों से उच्च आकांक्षाएँ एवं समाज में प्रतिष्ठा आदि कारक भी अवसाद में वृद्धि करते हैं। अवसादग्रस्त बालक का उपचार निर्देशन में ही निहित है।
10. जीवन अधिक व्ययशील – मानव की इस भौतिकवादी युग में आवश्यकताएँ इतनी – बढ़ गयी हैं कि आय से अधिक खर्च में वृद्धि हो रही है जिससे परिवार के सामने आर्थिक संकट पैदा हो जाता है। सामाजिक प्रतिष्ठा की झूठी शान में व्यक्ति ऋणों तले दबने लगता है। ऐसे लोगों को निर्देश द्वारा जीवन जीने की कला में प्रशिक्षित किया जा सकता है।
11. अवकाश का उपयोग – आज के व्यस्त जीवन में अवकाश के समय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यस्ततम समय में व्यक्ति अवकाश के क्षणों का भरपूर आनन्द उठाना चाहता है। अवकाश के समय का सदुपयोग करने का उचित परामर्श निर्देशन में ही निहित है।
12. वैयक्तिक आवश्यकताएँ – निर्देश व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायता करता है। व्यक्ति को उसकी क्षमताओं का ज्ञान कराकर उनके विकास में निर्देशन सहायक होता है। उसमें आत्मविश्वास पैदा कर उसको उचित जीविका का चयन करने और उसमें निरन्तर प्रगति करने का साहस पैदा करती है। व्यक्ति के पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने में निर्देशन का सहयोग महत्त्वपूर्ण है।
- निर्देशन का क्षेत्र, लक्ष्य एवं उद्देश्य
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