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आत्मबोध या स्व-अनुभूति क्या है ? (Self-realization in Hindi)
आत्मबोध शिक्षा मनोविज्ञान का प्रत्यय है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति की चेतना अनुभूतियों को महत्त्व दिया जाता है। किसी व्यक्ति द्वार चेतन अनुभूति के माध्यम से आत्मबोध प्राप्त करने में तीन तत्त्व-संवेदना (sensation), भाव (feeling) तथा प्रतिमा (image) सम्मिलित रहते हैं। आत्मबोध से तात्पर्य अपने अन्दर देखना अथवा आत्म-उ – अनुभूति करने से है। इस प्रक्रिया द्वारा किसी व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। आत्मबोध की सफलता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि आत्मबोध करने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह तथा पक्षपात की भावना से ग्रसित न हो उसका अपनी अवधान प्रक्रिया (attention process) पर पूर्ण नियन्त्रण हो, वह शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ हो, उसमें तनाव, थकान अथवा ऊब जैसी अवरोधनात्मक भावनाएँ न हों तथा उसमें आत्मबोध के प्रति रुचि तथा विश्वास हो ।
हार्टर का विचार है कि जब बच्चे यह जान लेते हैं कि अन्य जीवों से अलग हूँ तो दे इस स्थिति में होते हैं कि बता सकें कि “मैं कौन हूँ और क्या हूँ।” उदाहरण के लिए शिशुओं में आत्म पहचान का अर्थ है कि उनमें यह पहचान आ जाना कि वे अन्य शिशुओं से अलग हैं। माइकल लेविस और जेनेबुक्सगन ने आत्म पहचान के विकास का अध्ययन किया। उन्होंने अपने अध्ययन में बच्चों की कुछ माताओं से यह कहा कि वे अपने अपने बच्चों की नाक पर रोगन लगा दें फिर उन्हें एक शीशे के सम्मुख प्रस्तुत करें। यदि बच्चों में अपने चेहरे के प्रति कोई योजना होगी और अपने शीशे की प्रतिमा को पहचानते होंगे तो वे तुरन्त ही पहचान लेंगे कि उसके चेहरे पर लाल रंग का धब्बा है और उसे तुरन्त नाक से पोंछना चाहेंगे। जब यह परीक्षण 9-24 माह के शिशुओं पर किया गया तो पाया गया कि कम उम्र के शिशुओं में आत्म पहचान का भाव नहीं होता। वे अपने चेहरे को यथावत् ही देखते हैं जबकि अन्य शिशुओं में, जिनकी अवस्था 15-17 माह थी उनमें से कुछ में आत्म पहचान का भाव दिखाई दिया किन्तु 18-24 माह के अधि कतर शिशुओं में यह देखा गया कि उन्होंने अपने चेहरों को शीशे में देखने के पश्चात् शीघ्र ही अपने नाक को स्पर्श किया और यह अनुभव किया कि उनके चेहरे पर विचित्र प्रकार का निशान बना है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे बंजारू बच्चों में, जिन्हें शीशे का अनुभव नहीं होता उनमें भी उसी अवस्था और आयु में रोगन परीक्षण पर आत्म पहचान का बोध आयु और अवस्था में शहरी पालित पोषित बच्चे में होता है। लेविस और बुक्सगन ने अपने अध् ययन में यह पाया कि अधिकतर 18-24 माह के बच्चों को अपने को फोटोग्राफ में पहचानने का हुआ जिस भाव उत्पन्न हो जाता है और वे “मेरा” सर्वनाम से सम्बोधित करने का प्रयास भी करते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि आत्म पहचान की योग्यता बच्चों में संज्ञानात्मक विकास के स्तर से सम्बन्धित है। यद्यपि डाउन सिण्ड्रोम और अन्य कमियों से युक्त बच्चों में भी 18 24 माह की अवस्था में अपने को शीशे में पहचानने की योग्यता देखी जाती है।
इस तरह यह महत्त्वपूर्ण है कि आत्म पहचान के हेतु एक निश्चित स्तर का संज्ञानात्मक विकास होना चाहिए और साथ ही सामाजिक अनुभव का भी प्रायः उस पर प्रभाव पड़ता है। इस तरह के परिणाम गार्डर गालब ने अपने अध्ययनों में पाया है कि किस तरह सामाजिक अनुभवों का योगदान मनुष्यों के आत्म-भिज्ञान हेतु आवश्यक होता है। सुरक्षित लगाव अथवा आसक्तियाँ भी महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं। इसका अध्ययन करने के हेतु साण्ड्रपिप और उसके सहयोगियों ने 2-3 वर्ष के बच्चों पर एक अत्यन्त जटिल परीक्षण किया। इस परीक्षण के अन्तर्गत बच्चों को अपना नाम, लिंग एवं आत्म पहचान पर परीक्षण होना था। परिणाम यह निकला कि सुरक्षित आसक्ति के बच्चों ने असुरक्षित आसक्ति के बच्चों की अपेक्षा इस परीक्षण का अच्छे ढंग से निष्पादन किया और सुरक्षित आसक्ति तथा असुरक्षित आसक्ति के बच्चों के आत्मज्ञान के मध्य अन्तर भी देखा गया जबकि यह अन्तर तीन वर्ष के बच्चों में अधिकतम रूप में देखने को मिला। सुरक्षित आसक्ति वाले बच्चे अपनी माताओं को जानते थे परन्तु असुरक्षित आसक्ति वाले बच्चे अपनी माताओं को कम जानते थे। इससे यह सिद्ध हुआ कि सुरक्षित आसक्तियाँ आत्म पहचान के हेतु महत्त्वपूर्ण कारक हैं। स्वयं को अन्य लोगों से विभेदित करने की योग्यता का सामाजिक और सांवेगिक दुष्परिणाम होता है। यद्यपि बच्चों में जो इस क्षमता तक विकसित हो जाते हैं वे सामाजिक रूप से कौशलों से युक्त होते हैं और एक-दूसरे के क्रीड़ा कार्यक्रमों में अनुकरण करके आनन्द का अनुभव करते हैं और अक्सर वे सहयोगी व्यवहार का भी प्रदर्शन करते हैं।
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