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नवाचार के मार्ग में बाधाएँ | नवाचार लाने में शिक्षा की भूमिका

नवाचार के मार्ग में बाधाएँ
नवाचार के मार्ग में बाधाएँ

नवाचार के मार्ग में बाधाएँ (Obstacles in Innovation)

किसी भी व्यवस्था में जब कोई परिवर्तन अथवा सुधार किया जाता है तो उसके मार्ग में अनेक प्रकार की रुकावटें आती हैं। प्राचीन व्यवस्था के अभ्यस्थ लोग परिवर्तन के नाम पर कई प्रतिरोध खड़े कर देते हैं और इन प्रतिरोधों को दूर करना नवाचार कार्यकर्त्ता के लिए आवश्यक हो जाता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जी० वाटसन ने नवाचार में आने वाली दो प्रकार की बाधाओं का उल्लेख किया है-

(1) व्यक्तित्वजनित बाधाएँ, तथा

(2) अज्ञानजनित, सामाजिक तथा क्रियात्मक बाधाएँ।

(I) व्यक्तित्व-सम्बन्धी बाधाएँ (Obstacles Related to Personality)

परिवर्तन के मार्ग में सबसे गम्भीर बाधक तत्त्व व्यक्ति का व्यक्तित्व होता है। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर अपनी आस्थाएँ, मान्यताएँ, सोच और समझ होती है। व्यक्ति के विचार और कार्य उसी के अनुरूप होते हैं। व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के अनुरूप परिवर्तन को स्वीकार करता है। व्यक्तित्व के निम्नलिखित तत्त्व नवाचार के मार्ग में बाधा डालते हैं-

(1) प्राथमिक प्रभाव – व्यक्ति के मन में विचार अथवा वस्तु की प्राथमिक छाप होती है। उसका प्रभाव गहरा एवं दूरगामी होता है और नये अनुभवों को स्वीकार करने में उसे झिझक होती है। पहले प्रभाव में उस पर दूसरा नूतन प्रभाव डालने के लिए कार्यकर्ता को अथक प्रयास करना होता है। नवाचारों से होने वाले लाभों को प्रभावशाली ढंग से बतलाकर इस झिझक को शनैः शनैः समाप्त किया जा सकता है।

(2) आदतें- व्यक्ति को जो आदतें पड़ जाती हैं उसे बदलना कठिन होता है। व्यक्ति की आदतें परिवर्तन के मार्ग में बाधा डालती हैं। फलस्वरूप आदतों में वांछित परिवर्तन लाकर ही नवाचार को सफल बनाया जा सकता है। इसके लिए मनोवैज्ञानिक नियम-परिचित व्यवहार से अपरिचित व्यवहार की ओर बढ़ना अधिक उपयोगी होता है।

(3) सन्तुलन – व्यक्ति में सन्तुलित रहने की प्रवृत्ति जन्मजात होती है। जब किसी तरह का परिवर्तन होता है तो व्यक्ति का सन्तुलन बिगड़ जाता है, परन्तु वह परिवर्तन की अवस्था से गुजरकर पुनः सन्तुलन प्राप्त करना चाहता है। फलस्वरूप नवाचार का सामना करने और सन्तुलित अवस्था प्राप्त करने हेतु मनोवैज्ञानिक विधियों का आश्रय लेना चाहिए। इसके लिए संवेदनशीलता प्रशिक्षण अधिक उपयोगी हो सकता है।

(4) नैतिकता – व्यक्ति का अहंभाव प्राचीन मान्यताओं और परम्पराओं से इतना जुड़ा रहता है कि वह किसी नवीनता अथवा परिवर्तन को अपनाने से दूर भागता है। नवीनता को अपनाने में व्यक्ति का अहंभाव बाधक होता है। इस बाधा को दूर करने के लिए हृदयग्राही विधियों का आश्रय लिया जाना चाहिए और व्यक्ति के मन में नवाचारों के प्रति विश्वास उत्पन्न किया जाना चाहिए।

(5) अपनी क्षमता पर विश्वास- प्रायः कुछ व्यक्तियों पर अपनी क्षमताओं और योग्यताओं पर विश्वास नहीं होता। वे यह सोचते हैं कि इनमें इतनी शक्ति अथवा क्षमता नहीं है कि वे प्राचीन नियमों अथवा परम्पराओं को तोड़ सकें। अतएव वे प्राचीन परम्पराओं को तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

इस बाधा को दूर करने हेतु कार्यकर्त्ता मनोवैज्ञानिक विधियों का आश्रय नहीं ले पाते। इस तरह के लोगों को समान अधिकार, प्रोत्साहित एवं प्रेरित करके उन्हें उदाहरण देते हुए नवाचार को स्वीकार करने हेतु तत्पर किया जा सकता है।

(6) समूह की अधीनता – प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी सामाजिक समूह का सदस्य होता है और समूह के मानदण्डों, मूल्यों एवं परम्पराओं का आदर करता है। वह समूह के मानदण्डों के विरुद्ध जाने से डरता है। उसे यह भय बना रहता है कि यदि वह समूह के नियमों के विरुद्ध जायेगा तो वह समूह उससे कट जायेगा। इस कारण वह किसी नवाचार अथवा परिवर्तन को स्वीकार नहीं करता।

इस बाधा को दूर करने के हेतु कार्यकर्ताओं को सबसे पहले उन लोगों का चयन करना चाहिए जो समूह की रूढ़ि को तोड़कर नवाचार को अपनाने का साहस रखते हो। ऐसे लोगों के उदाहरण प्रस्तुत किये जाने चाहिए जिन्होंने समूह के रूढ़िवादी नियमों को तोड़कर परिवर्तन को स्वीकार किया हो।

(7) असुरक्षा एवं पलायन का भय- जब कोई व्यक्ति किसी नई वस्तु, विचार अथवा व्यवस्था को अपनाता है तो वह स्वयं को असुरक्षित अनुभव करता है और इस स्थिति में वह पुरानी व्यवस्था की ओर लौटना चाहता है। दूसरे शब्दों में उसमें पलायनवादी प्रवृत्ति पाई जाती है।

इस बाधा को दूर करने के लिए कार्यकर्ताओं का यह कर्त्तव्य है कि वे ग्रहणकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करें, उनके पलायनवादी प्रवृत्ति का शोधन करें तथा उनमें उत्साह एवं साहस को बनाये रखें।

(8) भविष्य की आशा- व्यक्ति जब बीते हुए दिनों में जो सफलताएँ अथवा असफलताएँ प्राप्त करता है, उनके आधार पर वह अपने भविष्य का मार्ग सुनिश्चित करता है। भविष्य में स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए वह जितना आशावान होता है, उसी मात्रा में वह किसी नवीन कार्य को स्वीकार करता है। यदि भविष्य में उसे असफलता मिलने की आशंका होती है तो वह उस कार्य को स्वीकार नहीं करता।

इस बाधा को दूर करने के लिए व्यक्तियों को यह अनुभूति कराई जानी चाहिए कि नवाचारों को अपनाकर वे अपने कार्य में अवश्य सफल होंगे और उनका भविष्य अच्छा होगा।

(II) अज्ञानजनित सामाजिक एवं क्रियात्मक बाधाएँ (Knowledless Social and Activitional Obstacles)

बहुधा यह भी देखा जाता है कि वह व्यक्ति अज्ञानतावश, अधिक सामाजिक सम्बन्धों के कारण अथवा क्रियात्मक बाधाओं के कारण किसी नवाचार को अपनाने से पीछे हट जाता है। कभी-कभी व्यक्ति यह भी सोचता है कि जब मेरा मित्र अथवा सहयोगी इस नवाचार को नहीं अपना रहा तो मैं क्यों अपनाऊँ। है

इन बाधाओं को दूर करने के लिए सबसे पहले ग्रहणकर्ताओं की अज्ञानता को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और नवाचार के सम्बन्ध में उत्पन्न भ्रान्ति दूर की जानी चाहिए। सामाजिक प्रतिक्रियाओं और बाधाओं को विचार-विमर्श के द्वारा ठीक किया जाना चाहिए। नवाचार की उपयोगिता बताई जानी चाहिए और स्नेहपूर्वक उसे अपनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।”

नवाचार लाने में शिक्षा की भूमिका (Role of Education for Bringing the Innovation)

व्यक्ति एवं समाज में हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ा। बदलते शैक्षिक परिवेश से उन आकांक्षाओं तथा लक्ष्यों की प्राप्ति आज अधिक सुगम हो गयी है। शिक्षा को समयानुकूल बनाने के क्रियाकलापों में नूतन प्रवृत्तियों ने अपनी उपयोगिता स्वयं सिद्ध की। इसी से जहाँ नवीन मूल्य विकसित हुए वहीं हो रहे परिवर्तनों के प्रति समाज को भी जागरूक होना पड़ा इससे शिक्षा व्यवस्था न रहकर नवाचारी हो गयी।

नवाचार को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं-

(1) यदि किसी विद्यालय में कम्प्यूटर की शिक्षा नहीं दी जा रही है लेकिन उस विद्यालय के प्रबन्धक और शिक्षक कम्प्यूटर की महती आवश्यकता से परिचित हैं। सभी के सम्मिलित विचारों और प्रयासों से यदि विद्यालय में कम्प्यूटर शिक्षा की व्यवस्था हो जाती है तो उस विद्यालय के लिए एक नवाचार होगा।

(2) किसी विद्यालय में शिक्षा की परम्परगत व्यवस्था से पढ़ाई हो रही है। परिवर्तित व्यवस्था के अन्तर्गत नवाचार की आज आवश्यकता है। इसी के अन्तर्गत पाठ्यक्रम, पाठ्य-पुस्तकें, प्रशिक्षण और समय-सारणी में परिवर्तन करना है।

(3) किसी विद्यालय में किसी विशेष शिक्षा प्रक्रिया को अपनाया जाता है लेकिन अधिकांश समाज के लोग, बच्चे एवं अभिभावक उसको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। समय-समय पर उस व्यवस्था की कुछ लोगों द्वारा अपने-अपने तरीके से आलोचना भी की जाती है। ऐसी स्थिति में प्रबन्धक और विद्यालय यदि रूढ़िवादी होंगे तो परिवर्तन को स्वीकार नहीं करेंगे लेकिन यदि वे नवाचारों विचारों के मानने वाले होंगे तो विद्यालय को समाज का अंग मानते हुए आवश्यक परिवर्तन एवं संशोधन करने के लिए तैयार हो जायेंगे ताकि समाज में सद्भावना, सौहार्द और प्रेम बना रहे। वास्तव में अन्तः मन से आत्मसुधार और समाज के विकास के लिए किया गया किसी भी प्रकार का रचनात्मक परिवर्तन नवाचार कहलाता है।

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shubham yadav

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