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प्रसार शिक्षण में संवाद की विस्तृत विवेचना कीजिए।

प्रसार शिक्षण में संवाद
प्रसार शिक्षण में संवाद

प्रसार शिक्षण में संवाद

प्रसार शिक्षण में संवाद- किसी भी कार्य-सम्पादन, विशेषकर शिक्षण में संवाद का विशेष महत्व होता है। संवाद रुचिकर हो तो ज्ञानवर्धक बातों को हर कोई सुनना तथा ग्रहण करना चाहता है। प्रसार शिक्षण की अन्य पद्धतियों की तरह इसका भी उद्देश्य लोगों के विचार एवं व्यवहार में परिवर्तन लाना है। संवाद का स्वरूप भाषण से पृथक होता है, अतः लोगों को ऐसा प्रतीत होता कि कोई बात या विचार उन पर थोपा जा रहा हो। संवाद के अन्तर्गत बोलने वाले, श्रोता, दर्शक, शिक्षण साधन या सामग्री तथा अन्य सहायक उपादानों का मिला-जुला योगदान देखने को मिलता है। इसके अन्तर्गत लोगों को बोलने तथा सुनने का भरपूर अवसर मिलता है अतः संवाद में खुलेपन का भाव देखने को अधिक मिलता है। संवाद के सामान्य प्रकार, जिनका प्रयोग प्रसार शिक्षण में किया जाता है, निम्नलिखित हैं-

(i) परिसंवाद (Symposium)

इसके माध्यम से कुछ लोग एक ही विषय पर, दर्शकगण के समक्ष चर्चा करते हैं। परिसंवाद का विषय वक्ताओं एवं श्रोता समूह को पूर्व ज्ञात होता है। वक्ता अपने विचार प्रायः लिखित रूप में प्रस्तुत करते हैं जिन्हें वे श्रोता समूह के समक्ष पढ़ते हैं। परिसंवाद का विषय तो एक रहता है किन्तु अलग-अलग लोग उसी विषय को जब अपने ढंग से प्रस्तुत करते हैं तो श्रोताओं को एक ही विषय के विविध अर्थ एवं स्वरूप का परिचय मिलता है। वक्ता अधिकतर विषय विशेषज्ञ होते हैं, अतः विषय के विभिन्न पक्षों का ज्ञान श्रोता वर्ग को प्राप्त हो जाता है।

(ii) सेमिनार (Seminar)

सेमिनार भी एक प्रकार का परिसंवाद होता है, जिसमें एक छोटा समूह दर्शक या श्रोता के रूप में उपस्थित रहता है। सेमिनार में कई वक्ता एक ही विषय के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। आख्यान समाप्त होने पर श्रोता आख्यान पर अपने विचार तथा समस्या मूलक प्रश्न पूछते हैं, जिनके उत्तर वक्ता को देने पड़ते हैं। वक्ताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि अपने द्वारा प्रस्तुत लेख व विषय से पूरी तरह भिज्ञ हों तथा पूछे गए प्रश्नों का समुचित, स्पष्ट उत्तर श्रोताओं को दें तथा उन्हें अपने उत्तर से संतुष्ट करें।

(iii) कार्यशाला (Workshop)

कार्यशाला एक लम्बी अवधि तक चलने वाली गोष्ठी होती है, जिसमें परिसंवाद, समूह चर्चा, विचार-विमर्श, विचारों का आदान-प्रदान, प्रदर्शन, कार्य-प्रणाली- प्रदर्शन आदि होते हैं। कार्यशाला में भाग लेने वाले प्रायः एक ही व्यवसाय से जुड़े। रहते हैं। उद्योग या व्यवसाय से जुड़े लोगों के व्यावहारिक शिक्षण के निमित्त यह अत्यन्त उपयोगी शिक्षण पद्धति है। इसमें भाग लेने वाले को निश्चित रूप से कुछ न कुछ लाभ एवं अनुभव की प्राप्ति होती है। इससे कार्य दक्षता का स्तर भी उन्नत होता है।

(iv) पैनेल (Panel)

पैनेल के रूप में चार या छः विशेषज्ञ सदस्यों का एक मण्डल अर्द्धचंद्राकार वृत्त बनाकर श्रोता समूह के समक्ष बैठता है तथा सर्व सामान्य के हित एवं रुचि के अनुरूप विषय पर विचार-विमर्श करता है। मण्डल का संचालक सर्वप्रथम विषय का परिचय श्रोताओं को देता है तथा चर्चा की बागडोर किसी वक्ता को पकड़ाकर पूछता है कि आपके इस सम्बन्ध में क्या विचार हैं। वह हर वक्ता से विषय के विभिन्न पक्षों पर बारी-बारी से प्रश्न करता जाता है। पैनेल चर्चा के अन्तर्गत विषय के प्रत्येक पक्ष पर हर वक्ता के विचार सामने आते हैं। विषय के जितने भी पक्षों को चर्चा में उठाया जाता है, उतनी बार वक्ता को अपने विचार प्रस्तुत करने का मौका मिलता है। इस प्रकार चर्चित विषय के विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में अनेक लोगों के विचार जानने का अवसर श्रोताओं को प्राप्त होता है। चर्चा के अन्त में, श्रोता यदि चाहें तो वक्ताओं से प्रश्न पूछ सकते हैं या उनके किसी विचार के संदर्भ में स्पष्टीकरण माँग सकते हैं।

(v) फोरम (Forum)

फोरम एक प्रकार की परिचर्चा होती है जिसमें सामान्य श्रोता या दर्शक वर्ग के लोग एक ही विषय पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। श्रोताओं के विचारों में मतैक्य या मतभेद होना आवश्यक नहीं। फोरम के माध्यम से श्रोताओं की ग्राह्यता का मूल्यांकन किया जा सकता है तथा यह जाना जा सकता है कि उन्हें बताई गई बातों का क्या लाभ पहुँचा है या इस संदर्भ में उनके विचार क्या हैं।

(vi) वाद-विवाद तथा भाषण प्रतियोगिता (Debate and Elocution)

वाद-विवाद के लिए किसी ऐसे विषय का चयन किया जाता है जिसके पक्ष और विपक्ष में स्पष्ट रूप से बातें कर सकना सम्भव हो। दर्शक समूह के समक्ष सर्वप्रथम अध्यक्ष या संयोजक विषय का परिचय देते हैं, फिर बारी-बारी से वक्ताओं को अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए मंच पर आमंत्रित करते हैं। विषय के पक्ष और विपक्ष में वक्ताओं की संख्या समान रहती है। वाद-विवाद का विषय प्रायः सामाजिक होता है। वक्ताओं को यह स्वतंत्रता रहती है कि वे अपने पक्ष को सुदृढ़ बताने के लिए विचारकों के उद्धरण प्रस्तुत करें तथा अपने विपक्ष में बोलने वाले के विचारों का खंडन करें। सभी वक्ताओं द्वारा अपने विचार प्रस्तुत करने के बाद संयोजक सभापति से कार्यक्रम में प्रस्तुत विचारों की समीक्षा करने को कहते हैं। इसी बीच निर्णायक मण्डल द्वारा सर्वश्रेष्ठ वक्ता का चयन कर लिया जाता है। इसकी घोषणा सभा के अन्त में की जाती है।

भाषण प्रतियोगिता की प्रकृति वाद-विवाद से पृथक होती है। इसके निमित्त चुने गये विषय के संदर्भ में सभी वक्ता अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। चूँकि इसमें विचारों को स्पष्ट रूप से पक्ष या विपक्ष में प्रस्तुत नहीं किया जाता अतः लोग एक-दूसरे के विचारों को खंडित करने की चेष्टा नहीं करते। वाद-विवाद के सदृश्य इसके भी अन्त में निर्णायक मण्डल द्वारा सर्वश्रेष्ठ वक्ता की घोषणा की जाती है। भाषण प्रतियोगिता का संचालन वाद-विवाद की तरह ही होता है।

(vii) प्रतियोगिता (Competition)

हर शिक्षण क्षेत्र में प्रतियोगिता का अपना एक अलग महत्व होता है। प्रसार शिक्षण में प्रतियोगिताएँ अनेक क्षेत्रों में आयोजित की जाती हैं। इनमें उत्पादन, प्रदर्शन, विचार-प्रस्तुतीकरण, कार्य दक्षता, कार्य-निष्पादन, घर, खेत आदि का रख- रखाव आदि प्रमुख हैं। प्रतियोगिता की सूचना काफी पहले से लोगों को दे दी जाती है, विशेषकर जब फसल उत्पादन से सम्बन्धित प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता हो। कार्य- दक्षता बढ़ाने, कार्य-निष्पादन क्षमता में परिवर्तन लाने, सोचने का ढंग या मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने में प्रतियोगिता का अच्छा योगदान रहता है। लोग प्रतिस्पर्द्धा की भावना के फलस्वरूप आत्मोन्नति के निमित्त प्रयत्नशील रहते हैं। प्रतियोगिताओं के आयोजन, मेला, प्रदर्शनी आदि के साथ भी किए जाते हैं।

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shubham yadav

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