अनुक्रम (Contents)
माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952
माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन – सन 1948ई0 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने भारत सरकार के सामने माध्यमिक शिक्षा की जाँच करने के लिए एक आयोग की नियुक्ति करने का प्रस्ताव रखा। जनवरी 1951ई0 में इस बोर्ड ने पुनः अपनी इस माँग को दोहराते हुए कहा कि माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन की अत्यधिक आवश्यकता है क्योंकि माध्यमिक शिक्षा एकांगी है और उसमें विद्यार्थियों की रूचियों तथा क्षमताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। इस सुझाव को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने 23 सितम्बर 1952ई0 को “माध्यमिक शिक्षा आयोग” शिक्षा की नियुक्ति की जिसमें नौ सदस्य थे। आयोग के अध्यक्ष लक्ष्मण स्वामी मुदालियर थे।
माध्यमिक शिक्षा आयोग को मूलतः निम्नलिखित दो बातों की जाँच करनी थी-
1. सम्पूर्ण भारत की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा का अध्ययन कर उसके प्रत्येक अंग पर प्रकाश डाला।
2. माध्यमिक शिक्षा के पुर्नसंगठन व सुधार के लिए निम्नांकित विषयों के सम्बन्ध में विचार करना है
अ. माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य, संगठन और पाठयक्रम
ब. माध्यमिक शिक्षा का प्राथमिक, बेसिक और उच्च शिक्षा से सम्बन्ध
स. भिन्न भिन्न प्रकार के माध्यमिक विद्यालयों का पारस्परिक सम्बन्ध
द. माध्यमिक शिक्षा से सम्बन्धित अन्य समस्यायें
आयोग के सुझाव व सिफारिशें
यहाँ आयोग के प्रतिवेदन में निहित माध्यमिक शिक्षा के महत्वपूर्ण अंगों के विषय में उसके विचारों व सिफारिशों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है-
(क.) माध्यमिक शिक्षा के दोष 1. माध्यमिक शिक्षा एक पक्षीय है। अतः यह छात्रों को केवल उच्च शिक्षा के लिए तैयार करती है।
2. माध्यमिक शिक्षा छात्रों के चरित्र निर्माण के प्रति रंचमात्र भी ध्यान नहीं देती है। अतः उनमें अनुशासनहीनता की भावना उत्पन्न करती है।
3. माध्यमिक शिक्षा छात्रों में नैतिकता, सहयोग, अनुशासन, नेतृत्व के गुणों का विकास नहीं करती अतः यह उनको उत्तम नागरिक नहीं बनाती है।
4. माध्यमिक शिक्षा का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः यह छात्रों को व्यवहारिक जीवन का ज्ञान नहीं देती है।
5. माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम संकीर्ण है अतः यह छात्रों को अपनी रूचियों एवं मनोवृत्तियों के अनुसार विषयों का चयन करने का अवसर नहीं देती है।
(ख.) माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं.
1. छात्रों में जनतंत्रीय नागरिकता का विकास करना।
2. छात्रों में व्यवसायिक कुशलता को उन्नत करना।
3. छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना।
4. छात्रों के नेतृत्व करने की क्षमता का विकास करना ।
(ग.) माध्यमिक शिक्षा का पुनर्संगठन- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा का पुनर्संगठन आवश्यक मानते हुए उस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिया –
1. माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष की होनी चाहिए और यह शिक्षा 11 से 15 वर्ष तक की आयु के छात्र छात्राओं को दी जाय।
2. माध्यमिक शिक्षा की अवधि निम्नांकित दो भागों में विभाजित की जाय क. 3 वर्ष तक जूनियर माध्यमिक शिक्षा, ख. 4 वर्ष तक उच्चतर माध्यमिक शिक्षा ।
3. वर्तमान इण्टरमीडिएट कक्षा को हटाकर उसका एक वर्ष माध्यमिक कक्षा के पाठ्यक्रम में और एक वर्ष विश्वविद्यालय के डिग्री कोर्स में मिला दिया जाए।
4. डिग्री कोर्स तीन वर्ष का कर दिया जाय और इण्टरमीडिएट कॉलेजों से विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले छात्रों के लिए एक वर्ष का पूर्व विश्वविद्यालयी कोर्स रखा जाए।
5. ग्रामीण विद्यालयों में कृषि शिक्षा का विशेष रूप से प्रबन्ध हो और वहाँ उद्यान, कला, पशुपालन व कुटीर उद्योगों की भी शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए।
6. सरकार को उद्योगों पर “उद्योग शिक्षा कर” लगाकर इससे प्राप्त धन टेक्निकल शिक्षा के विस्तार पर व्यय करना चाहिए।
7. बालक बालिकाओं की शिक्षा में किसी भी विशेष अन्तर की आवश्यकता नहीं है। बालिकाओं के लिए गृह विज्ञानों के अध्ययन की समुचित व्यवस्था हो
(घ.) भाषाओं का अध्ययन – माध्यमिक विद्यालयों में भाषाओं के अध्ययन के सम्बन्ध में कमीशन ने निम्नांकित विचार व्यक्त किया है –
1. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा होनी चाहिए लेकिन बहुभाषा भाषी अल्पसंख्यकों को “केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड” के सुझावों के अनुरूप विशेष प्रकार की सुविधा दी जाए।
2. मिडिल स्कूल में प्रत्येक छात्र को कम से कम दो भाषाओं की शिक्षा दी जाए और हिन्दी व अंग्रेजी शिक्षा जूनियर बेसिक स्तर के पश्चात ही दी जाए, लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाए कि एक ही वर्ष में दोनों भाषाओं की ही शिक्षा न प्रारम्भ कर दी जाय।
3. उच्च माध्यमिक स्तर पर विद्यालयों में कम से कम दो भाषाओं की शिक्षा दी जाए जिनमें से एक मातृभाषा हो और दूसरी प्रादेशिक भाषा।
(ड.) पाठयक्रम और शिक्षा- माध्यमिक शिक्षा के पाठयक्रम पर विस्तारपूर्वक विचार व्यक्त करते हुए कमीशन ने निम्नलिखित सुझाव दिये-
1. पाठयक्रम को छात्रों की विभिन्न योग्यताओं व क्षमताओं के विकास में सहायक होना चाहिए।
2. पाठयक्रम में विविधता व लचीलापन होना चाहिए जिससे उसे विद्यार्थियों के अभिरूचियों के अनुरूप बनाया जा सके।
3. पाठयक्रम का सामुदायिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए।
4. पाठयक्रम ऐसा हो जो छात्रों के न केवल कार्य करने अपितु अपने अवकाश का सदुपयोग करने की भी सुविधा मिले।
(च.) पाठय – पुस्तकें – आयोग ने पाठ्य पुस्तकों के सम्बन्ध में कुछ सुझाव दिये हैं जैसे-
1. पाठ्य पुस्तकों का स्तर ऊँचा उठाने के लिए प्रत्येक राज्य में एक हाई पावर कमेटी का निर्माण किया जाए।
2. उक्त समिति ने पुस्तकों की छपाई आदि के सम्बन्ध में निश्चित सिद्धान्त बनाये।
3. पुस्तकों के चित्र बनाने की कला में प्रशिक्षण देने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा एक संस्था का निर्माण किया जाना चाहिए।
4. प्रत्येक विषय के लिए पर्याप्त संख्या में पुस्तकें निश्चित हो और पाठ्य पुस्तकें जल्दी जल्दी बदली न जाएँ ।
(झ.) शिक्षण पद्धति कमीशन ने माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षण पद्धति के सम्बन्ध में निम्नांकित मत व्यक्त किये हैं-
1. शिक्षण पद्धति का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्ति ही न होकर छात्रों में उपर्युक्त मूल्यों, उचित दृष्टिकोण और कार्य करने की प्रवृत्तियों का समावेश होना चाहिए।
2. सभी विषयों के अध्ययन में छात्रों को आत्मअभिव्यक्ति का अधिक से अधिक अवसर मिले। यथासम्भव “क्रिया पद्धति” और “योजना पद्धति” को प्रमुखता दी जाय।
3. छात्रों को सामूहिक रूप से कार्य करने के पर्याप्त अवसर दिये जाएँ।
(त.) चारित्रिक – निर्माण व धार्मिक शिक्षा- छात्रों के चरित्र निर्माण पर अधिकाधिक बल देते हुए आयोग ने इस सम्बन्ध में अधोलिखित सुझाव दिये हैं-
1. विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण का उत्तरदायित्व अध्यापकों पर है अतः विद्यालय के प्रत्येक कार्यक्रम में चरित्र निर्माण की शिक्षा दी जाए।
2. अनुशासन की भावना विकसित करने के लिए अध्यापकों और विद्यार्थियों में घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए।
3. सभी विद्यालयों में एन0सी0सी0, जूनियर रेडक्रास व स्काउटिंग आदि कार्यों को प्रोत्साहित किया जाए।
4. राजनीतिक चुनावों एवं प्रचार कार्यों में 10 वर्ष से कम आयु के छात्रों का प्रयोग करना दण्डनीय अपराध माना जाय।
5. विभिन्न कार्यक्रमों के संचालन हेतु स्वशासन पद्धति को अपनाया जाय।
(थ.) शारीरिक स्वास्थ्य शिक्षण- आयोग की दृष्टि में विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास के लिए उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। अतः इस सम्बन्ध में उसने निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत किये –
1. सभी छात्रों की प्रति वर्ष पूर्णरूप से स्वास्थ्य परीक्षा की जाए और जो विद्यार्थी गम्भीर रोगों से पीड़ित हो या हमेशा अस्वस्थ रहते हों उनकी बार बार स्वास्थ्य परीक्षा की जाए।
2. सभी राज्यों में “स्कूल मेडिकल सर्विस” का संगठन किया जाए।
3. समस्त बीमार विद्यार्थियों को विद्यालय स्वास्थ्य अधिकारी द्वारा चिकित्सा की जाए।
4. चालीस वर्ष से कम आयु के अध्यापक स्वयं छात्रों के साथ शारीरिक श्रम के कार्य करें ताकि छात्रों में शारीरिक श्रम के प्रति उत्साह उत्पन्न हो ।
5. विद्यार्थियों के लिए यथासम्भव सन्तुलित आहार का भी प्रबन्ध किया जाए।
(द.) परीक्षाएं एवं मूल्यांकन – अब तक के अन्य आयोगों की अपेक्षा मुदालियर कमीशन का परीक्षाओं के सम्बन्ध में सर्वथा नवीन दृष्टिकोण रहा है और उसकी दृष्टि में –
1. बाह्य परीक्षाओं की समस्या कम कर दी जाय।
2. यथासम्भव निबन्धात्मक पद्धति परीक्षाओं को कम करने का प्रयास किया जाय।
3. विद्यार्थियों के कार्यों का मूल्यांकन आन्तरिक परीक्षाओं, नियतकालिक परीक्षाओं और विद्यालय अभिलेखों के आधार पर करना चाहिए।
4. प्रत्येक विद्यार्थियों का एक विद्यालय अभिलेख अवश्य रखा जाय तथा उसमें उसके द्वारा किये गये विभिन्न कार्यों एवं सफलताओं का उल्लेख करें।
5. माध्यमिक विद्यालय का सम्पूर्ण पाठ्यक्रम समाप्त होने पर ही केवल एक सार्वजनिक परीक्षा ली जाए।
(ध.) विद्यालय भवन और पुस्तकालय- माध्यमिक विद्यालय की उन्नति के लिए पाठशाला भवन एवं पुस्तकालय निर्माण के सम्बन्ध में भी कमीशन ने उपयोगी सुझाव पेश किया है, जैसे-
1. पाठशाला भवन किसी योजना के अनुसार बनाया जाए और नगर के कोलाहल से दूर हो तथा वहाँ प्रकाश और वायु का विशेष ध्यान रखा जाए।
2. माध्यमिक पाठशालाओं में श्रेणी पुस्तकालय व पुस्तकालय दोनों की आयोजन की जाए।
3. सभी सार्वजनिक पुस्तकालयों में विद्यार्थियों के लाभ की दृष्टि से एक विशेष भाग होना चाहिए।
4. छात्रों और जनसाधारण के हित की दृष्टि से पुस्तकालय गर्मी की छुट्टियों में भी खुले रहें।
(न.) माध्यमिक विद्यालयों में निर्देशन एवं परामर्श- आयोग की दृष्टि में माध्यमिक विद्यालयों के छात्रों के मार्ग प्रदर्शन का निर्देशन आवश्यक है ताकि वे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के व्यवसायों व कार्यों को भलीभाँति समझ सकें। अतः इस दृष्टि से कमीशन की निम्नलिखित सिफारिशें थी-
1. शिक्षा अधिकारियों को विद्यार्थियों के शैक्षिक निर्देशन पर अधिक से अधिक ध्यान देना चाहिए।
2. विभिन्न उद्योगों व व्यवसायों के सम्बन्ध में छात्रों को पूर्ण जानकारी दी जाय।
3. विद्यालय में प्रशिक्षित निर्देशन अधिकारियों और जीविकोपार्जन शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
4. उक्त मार्ग प्रदर्शन अधिकारियों और जीविकोपार्जन शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था
केन्द्रीय सरकार करे।
(य.) अध्यापकों की स्थिति में सुधार –
1. देश के सब माध्यमिक विद्यालयों के अध्यापकों के चुनाव एवं नियुक्ति की विधि समान के होनी चाहिए।
2. अध्यापकों के उचित वेतन के लिए विशिष्ट समितियों की नियुक्ति करके उनसे यह सुझाव माँगा जाना चाहिए कि वर्तमान स्थिति में उनका वेतन कितना होना चाहिये।
3. सब अध्यापकों के लिए “त्रिमुखी लाभ योजना” जीवन बीमा, पेंशन एवं प्रावीडेण्ट फंण्ड आरम्भ की जानी चाहिए।
(र.) अध्यापक प्रशिक्षण- प्रशिक्षण समस्याएं दो प्रकार की होनी चाहिए।
1. उच्चतर माध्यमिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों के लिए उनके प्रशिक्षण की अवधि दो वर्ष की होनी चाहिए।
2. स्नातकों के लिए इनके प्रशिक्षण की अवधि पहले 1 वर्ष हो, बाद में दो वर्ष कर दी जानी चाहिए।
3. प्रथम प्रकार की संस्थाएं एक बोर्ड के अधीन होनी चाहिए और स्नातकों की प्रशिक्षण संस्थाएं विश्वविद्यालय के अधीन होनी चाहिए।
4. प्रशिक्षण संस्थाओं के छात्रों से शुल्क नहीं लिया जाना चाहिए।
5. ट्रेनिंग कालेजों में शिक्षण में शास्त्र के महत्वपूर्ण अंगों के सम्बन्ध अनुसंधान किया जाना चाहिए।
6. अध्यापिकाओं के अभाव को दूर करने के लिये विशिष्ट अल्पकालीन प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की योजना कार्यान्वित करनी चाहिये।
आयोग का आलोचनात्मक मूल्यांकन- यह कहना असंगत प्रतीत नहीं होता है कि भारतीय शिक्षा के इतिहास में “मुदालियर कमीशन” का स्थान बेजोड़ है। उसने माध्यमिक शिक्षा के पुननिर्माण के सम्बन्ध में अनेक सुन्दर एवं सुदुरगामी सुझाव दिये हैं- यथा स्वतन्त्र भारत की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए शिक्षा के नवीन उद्देश्यों का निर्धारण, छात्रों को अपनी व्यक्तिगत अभिरूचियों एवं अभिवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए पाठयक्रम का विभिन्नीकरण, छात्रों को अपनी वैयक्तिक क्षमताओं के अनुकूल विभिन्न विषयों का अध्ययन सुलभ बनाने के लिए बहुउद्देशीय विद्यालयों की योजना, छात्रों को अपने भावी व्यवसायों का चयन करने में सहायता देने के लिए निर्देशन एवं परामर्श की उपलब्धि, कृषि प्रधान देश की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए कृषि शिक्षा की अनिवार्यता का समर्थन, देश के उद्योगों एवं व्यवसायों के लिए प्रशिक्षित व्यक्तियों को तैयार करने के लिए तकनीकी स्कूलों एवं प्राविधिक संस्थाओं की व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली, अध्यापक – प्रशिक्षण एवं शिक्षकों की स्थिति सुधार किये जाने पर बल ।
- वैदिक कालीन भारत में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
- बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य
- वैदिक कालीन भारत में शिक्षा में प्रमुख उद्देश्य
- प्राचीन भारत में शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ
- वैदिक कालीन भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र
इसी भी पढ़ें…
- अभिप्रेरणा क्या है ? अभिप्रेरणा एवं व्यक्तित्व किस प्रकार सम्बन्धित है?
- अभिप्रेरणा की विधियाँ | Methods of Motivating in Hindi
- अभिप्रेरणा का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार
- अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
- अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ, परिभाषाएं, प्रकार, महत्त्व, उपयोग/लाभ, सीमाएँ
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अनुप्रयोग
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का क्षेत्र
- विद्यालयों में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अर्थ
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का प्रारम्भ
- अधिगम के नियम, प्रमुख सिद्धान्त एवं शैक्षिक महत्व
- शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ, परिभाषा ,क्षेत्र ,प्रकृति तथा उपयोगिता
- वैश्वीकरण क्या हैं? | वैश्वीकरण की परिभाषाएँ
- संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा देते हुए मूल्य और संस्कृति में सम्बन्ध प्रदर्शित कीजिए।
- व्यक्तित्व का अर्थ और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले कारक