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विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग 1948-49 | विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का स्थापना – स्वतन्त्रता – प्राप्ति के उपरान्त विश्वविद्यालयों और उनमें शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों की संख्या में दिन प्रतिदिन वृद्धि हुई परन्तु विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार शिक्षा प्रदान की जा रही थी उससे जन साधारण में अत्यधिक असन्तोष था। अतः “अन्तर्विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय शिक्षा परिषद” ने सरकार से एक “अखिल भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग” नियुक्ति करने की सिफारिश की। फलस्वरूप भारत सरकार ने 4 नवम्बर 1948 ई० को डा० एस० राधाकृष्णन की अध्यक्षता में

‘“विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग” (university education commission) की नियुक्ति की। आयोग के अध्यक्ष डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के नाम से इस आयोग को “राधाकृष्णन आयोग” भी कहा जाता है।

आयोग का कार्य क्षेत्र अति विस्तृत था। इसका प्रमुख कार्य था – “भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना और उन सुधारों तथा विस्तारों के विषय में सुझाव देना जो देश की वर्तमान तथा भावी आवश्यकताओं के उपयुक्त होने के लिए वांछनीय हो सकें।

आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें

1. विश्वविद्यालय शिक्षा का उद्देश्य :- आयोग ने विश्वविद्यालय शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बतलाये हैं।

(i) स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात हमारे विश्वविद्यालयों के कर्तव्यों तथा दायित्वों में वृद्धि हो गयीहै। अब उन्हें ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करना है जो राजनीतिक, प्रशासकीय तथा व्यावसायिक क्षेत्रों में नेतृत्व गृहण कर सकें।

(ii) विश्वविद्यालय समाज सुधार में महत्वपूर्ण योग दे सकते हैं। अतः उनका उद्देश्य ऐसे नेताओं को जन्म देना होना चाहिए जो दूरदर्शी, बुद्धिमान तथा साहसी हों।

(iii) विश्वविद्यालयों को ऐसे विवेकी व्यक्तियों को जन्म देना चाहिए जो प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए शिक्षा का प्रसार कर सकें।

(iv) शिक्षा का उद्देश्य जीवन और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समन्वय स्थापित करना है। अतः यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों में जो विषय पढ़ाये जाय, पाठयक्रम के अभिन्न अंग हो।

(v) विश्वविद्यालय देश की सभ्यता तथा संस्कृति के पोषक हैं। अतः विश्वविद्यालय शिक्षा का उद्देश्य नवयुवकों में इन तत्वों का संचार करना होना चाहिए।

(vi) स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ शरीर में निवास करता है। अतः विश्वविद्यालयों में छात्रों के न केवल मानसिक विकास अपितु शारीरिक स्वास्थ्य को ओर भी ध्यान दिया जाय।

2. अध्यापक वर्ग- राधाकृष्णन आयोग ने विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की दशा में सुधार करने के लिए निम्नांकित सुझाव दिये हैं –

(i) अध्यापकों को प्राविडेण्ट फण्ड की अधिक उत्तम सुविधा दी जाय इसके लिए अध्यापक और विश्वविद्यालय दोनों का 8.8 प्रतिशत देना चाहिए।

(ii) अपने पद पर 60 वर्ष की आयु तक रहें और यदि उनका स्वास्थ्य अच्छा है तो 64 वर्ष आयु तक कार्य कर सकते हैं। की

(iii) विश्वविद्यालयों के समीप ही आध्यापकों के निवास की व्यवस्था की जाय।

(iv) अध्यापकों को एक सप्ताह में अधिक से अधिक 18 घण्टे का अध्यापन कार्य दिया जाए।

(v) अध्यापकों के अध्ययन के लिए एक बार में 1 वर्ष का अवकाश और अपने सम्पूर्ण सेवा काल में 3 वर्ष का अवकाश मिलना चाहिए।

3. शिक्षक के स्तर- आयोग ने कालेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षण स्तर का उन्नयन करने के लिए अधोलिखित सिफारिशें की हैं।

(i) छात्रों की बढ़ती हुई भीड़ को रोकने के लिए शिक्षण विश्वविद्यालयों में 3000 और उनसे सम्बद्ध कालेजों में 1500 से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए।

(ii) कालेजों और विश्वविद्यालयों में परीक्षा दिवसों को छोड़कर एक वर्ष में कम से कम 180 दिन शिक्षण कार्य किया जाना चाहिए।

(iii) अध्ययन के किसी भी कोर्स के लिए पाठ्य पुस्तकें निर्धारित नहीं की जानी चाहिए। (iv) स्नातकोत्तर कक्षाओं में विचार गोष्ठियों की योजना क्रियान्वित की जानी चाहिए।

(v) विभिन्न व्यवसायों में संलग्न व्यक्तियों के लिए सांयकालीन कक्षाएं प्रारम्भ की जानी चाहिए।

4. पाठयक्रम- आयोग के पाठयक्रम सम्बन्धी विचार अग्रांकित हैं चूंकि पाठ्यक्रम की सहायता से छात्रों को न केवल विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान व अनुभव प्राप्त होता है अपितु विद्यार्थियों की स्वतन्त्रता, विचार शक्ति व रचनात्मक कार्य क्षमता भी विकसित होती है। अतः कमीशन ने पाठयक्रम को अनौपचारिक शिक्षण के लिए अत्यन्त आवश्यक मानते हुए उसके सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(i) विश्वविद्यालयों और माध्यमिक कक्षाओं कला व विज्ञान की शिक्षा के साथ साथ सामान्य शिक्षण का भी प्रबन्ध होना चाहिए जिसका उद्देश्य विद्यालयों को तथ्यों एवं सिद्धान्तों से सम्बन्धित बुद्धिमतापूर्वक चुनी गई सूचनाएं प्राप्त करना हो ।

(ii) माध्यमिक कक्षाओं में निम्नलिखित विषय रखे जा सकते हैं- 1. मातृभाषा, 2. संघीय भाषा या एक प्राच्य भाषा या जिनकी मातृभाषा संघीय भाषा हो, उनके लिए आधुनिक भारतीय भाषा, 3. अंग्रेजी, 4. प्रारम्भिक गणित, 5. सामान्य विज्ञान, 6. सामाजिक अध्ययन। निम्नलिखित विषयों में से कोई दो – 1. प्राच्य भाषा, 2. आधुनिक भारतीय भाषा, 3. गणित, 4. भौतिकी, 5. रसायन, 6. जीव विज्ञान, 7. इतिहास, 8. संगीत, 9. शिल्प कार्य, 10. चित्रकला, 11. गृहविज्ञान, 12. बुक कीपिंग और लेखा, 13. टाइप राइटिंग, 14. वाणिज्य,

(iii) स्नातक (बी०ए०) की परीक्षा में चार विषयों की व्यवस्था की जाय जिनमें संघीय भाषा या प्राच्य भाषा या जिनकी मातृभाषा संघीय भाषा हो उनके लिए आधुनिक भारतीय भाषा और अंग्रेजी नामक विषय अनिवार्य हो तथा कला के अन्तर्गत दो विशेष विषय और लिए जाएं जो कि इन वर्गों में से प्रत्येक से एक हो ।

पहला वर्ग – भाषा शास्त्र – 1. एक प्राच्य या आधुनिक भारतीय भाषा, 2. अंग्रेजी, फ्रेंच या जर्मन, 3. दर्शन, 4. इतिहास, 5. मानव शास्त्र, 6. गणित, 7. ललित कला ।

दूसरा वर्ग- सामाजिक अध्ययन- 1. राजनीतिशास्त्र, 2. समाजशास्त्र, 3. मनोविज्ञान, 4. अर्थशास्त्र, 5. मानवशास्त्र, 6. भूगोल, 7. गृह विज्ञान, 8. अर्थशास्त्र ।

इसी प्रकार विज्ञान के छात्रों को इनमें से कोई भी दो विषय लेने चाहिए। 1. गणित, 2. भौतिकी, 3. रसायन, 4. प्राणिशास्त्र, 5. वनस्पतिशास्त्र

5. व्यावसायिक शिक्षा- आयोग ने व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया है और उसके विभिन्न अंगों के सम्बन्ध में अपनी निम्नलिखित सिफारिशें दी हैं।

1. कृषि – कृषि शिक्षा के सम्बन्ध में कमीशन ने निम्नलिखित सुझाव दिये-

(i) कृषि शिक्षा को एक प्रमुख राष्ट्रीय समस्या मान लिया जाय क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है।

(ii) राष्ट्रीय आर्थिक योजना में प्राथमिक, माध्यमिक या उच्च शिक्षा में कृषि को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

(iii) यथासम्भव ग्रामीण क्षेत्रों में ही कृषि शिक्षा की व्यवस्था हो और ग्रामीण विधि को भी अपनाया जाय ताकि छात्रों की कृषि जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सके।

(iv) कृषि शिक्षा, कृषि शोध और कृषि नीति का निर्माण उन्हीं व्यक्तियों व संस्थाओं द्वारा होना चाहिए जिन्हें कृषि – जीवन का विशेष ज्ञान व अनुभव हो।

(v) कृषि विद्यालयों को पर्याप्त आर्थिक सहायता दी जाय और उन्हें साधन सम्पन्न बनाने की ओर सरकार को ध्यान देना होगा।

(vi) बी०एस०सी० (कृषि) उपाधि में कृषि के लिये तीन वर्ष और पशुपालन के लिये चार वर्ष की अवधि होनी चाहिए।

(vii) “इण्डियन काऊंसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च” (Indian council of Agricul tural research) के साधनों में वृद्धि की जाय तथा उसे विभिन्न कृषि अनुसन्धान केन्द्रों के लिये संयोजक का कार्य करना चाहिये।

2. वाणिज्य कमीशन ने देश भर का भ्रमण कर विभिन्न स्तरों पर वाणिज्य शिक्षा का अवलोकन कर उसके सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये. –

(i) वाणिज्य शिक्षा में व्यावहारिक कार्य को स्थान देते हुए छात्रों को तीन चार विभिन्न प्रकार की फर्मों में व्यवहारिक कार्य का अवसर दिया जाय।

(ii) स्नातक शिक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात छात्रों को किसी विशेष शाखा में विशेषज्ञ बनने का परामर्श देकर उन्हें व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाय।

(iii) स्नातकोत्तर परीक्षा में पुस्तकीय ज्ञान अधिक न रखा जाय और केवल कुछ ही विद्यालयों को इसके अध्ययन की अनुमति दी जाय।

3. शिक्षण- विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने शिक्षण व्यवसाय के सम्बन्ध में निम्नांकित सिफारिशें की हैं।

(i) प्रशिक्षण विद्यालयों के पाठ्यक्रम में परिवर्तन कर पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक ज्ञान को अधिक महत्व दिया जाय।

(ii) प्रशिक्षण विद्यालयों में अधिकांश अध्यापक ऐसे होनें चाहिए जिन्हें शाखाओं में पढ़ाने का प्रर्याप्त अनुभव हो।

(iii) प्रत्येक विद्यार्थी विद्यालयों में कम से कम 12 सप्ताह अवश्य अध्यापन कार्य करे।

(iv) अध्यापन के अभ्यास के लिए उपयुक्त विद्यालयों को ही चुनना चाहिए।

(v) शिक्षा सिद्धान्त का पाठ्यक्रम लचीला और स्थानीय वातावरण के अनुरूप हो।

(vi) प्रोफेसरों और लेक्चररों द्वारा अखिल भारतीय स्तर का मौखिक कार्य किया जाय।

4. इन्जीनियरिंग और टेक्नॉलाजी – इन व्यवसायों के सम्बन्ध में कमीशन ने इन तथ्यों को प्रस्तुत किया –

(i) आधुनिक इन्जीनियरिंग और टेक्नालाजी की संस्थाओं को देश की राष्ट्रीय सम्पत्ति मानकर उनकी उपयोगिता में वृद्धि करने की ओर ध्यान देना चाहिए।

(ii) इनके पाठयक्रम में सामान्य शिक्षण के साथ साथ व्यवहारिक शिक्षण की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

(iii) व्यावहारिक शिक्षण के लिए छात्रों को अपने लम्बे अवकाश में कारखानों में कार्य करने की सुविधा दी जाय या फिर स्नातक होने के बाद वे एक वर्ष एप्रेन्टिस की हैसियत से कार्य करे।

(iv) इन शिक्षण संस्थाओं के लिए केन्द्रीय व राज्य सरकारों को धन का प्रबन्ध करना चाहिए।

(v) फोरमैन, ड्राफ्टमैन और ओवरसीयरों को शिक्षा देने वाले इन्जिनीयरिंग स्कूलों की संख्या बढ़ाई जाय तथा देश में विभिन्न उद्योगों की मांग को देखते हुये उपरोक्त संस्थाओं के पाठयक्रम को भी विस्तृत किया जाय।

विधि – कमीशन ने विधि की शिक्षा के सम्बन्ध में अधोलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(i) चूँकि देश में विधि शिक्षा में एकरूपता का अभाव है अतः सभी विधि महाविद्यालयों का पूर्ण रूप से पुनर्गठन किया जाय।

(ii) सम्पूर्ण देश में उच्च श्रेणी के विधि महाविद्यालय स्थापित होने चाहिए।

(iii) विधि विभाग के अध्यापकों की नियुक्ति भी अन्य विभागों के अध्यापकों की भाँति   विश्वविद्यालयों द्वारा की जाय।

(iv) अध्यापक पूर्णकालीन और अंशकालीन दोनों ही प्रकार के होने चाहिए।

(v) छात्रों को विधि शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति तभी मिलनी चाहिए जबकि वे तीन वर्ष का सामान्य स्नातक पाठयक्रम उत्तीर्ण कर लें।

(vi) विधि महाविद्यालय को अपनी अध्ययन अवधि में अन्य डिग्री कोर्स की अनुमति केवल विशेष परिस्थितियों में ही मिलनी चाहिए।

6. चिकित्सा – चिकित्सा शिक्षा के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये।

(i) प्रत्येक चिकित्सा महाविद्यालय में छात्र संख्या सौ से अधिक नहीं होनी चाहिए।

(ii) महाविद्यालयों के विभागों का सम्बन्ध अस्पताल से हो, वह सब एक स्थान पर हो।

(iii) इन महाविद्यालयों में प्रवेश होने वाले प्रत्येक छात्र के लिए दस रोगी हों।

(iv) विद्यार्थियों को ग्रामीण क्षेत्रों में भी अधिक महत्व दिया जाय।

(v) उच्च स्तर बनाये रखने के लिए सरकार द्वारा स्थापित आर्थिक सहायता प्रदान की जाय।

(vi) देशी चिकित्सा प्रणाली में शोध कार्य के लिए विशेष सुविधा दी जाय।

7. धार्मिक शिक्षा– आयोग की रिपोर्ट में डा० राधाकृष्णन ने स्वयं एक पृथक अध्याय धार्मिक शिक्षा पर लिखा है। अन्य सदस्यों ने भी उनके विचारों का समर्थन किया है। अतः आयोग का धार्मिक शिक्षा सम्बन्धी दृष्टिकोण इस प्रकार है-

(i) भारतीय विश्वविद्यालयों का धार्मिक दृष्टिकोण संकीर्ण न हो और धार्मिकता से अभिप्राय आध्यात्मिक शिक्षा होनी चाहिए।

(ii) विद्यार्थियों के पाठयक्रम में धर्म सम्बन्धी पुस्तकें सम्मिलित की जाय और उनका चुनाव कक्षा में स्टैण्डर्ड के अनुसार हो।

(iii) विभिन्न धर्मो का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए उनसे सम्बन्धित ग्रंथों के आधारभूत अंश विद्यार्थियों को पढ़ाये जांय।

(iv) धर्म दर्शन में शोध कार्य के लिए छात्रों को प्रोत्साहित किया जाए।

(v) सभी शिक्षण संस्थाओं में कुछ क्षणों के लिए मौन चिन्तन के पश्चात कार्य आरम्भ होना चाहिए और इस चिन्तन में सभी छात्रों व उपस्थित अध्यापकों द्वारा भाग लिया जाय।

स्नाकोत्तर प्रशिक्षण एवं अनुसन्धान

आयोग ने विश्वविद्यालयों में स्नाकोत्तर प्रशिक्षण और अनुसंधान कार्य स्तरों को ऊँचा उठाने के लिए अग्रलिखित सुझाव दिये हैं-

(i) स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम में एक विशिष्ट विषय का सुझाव अध्ययन एवं अनुसंधान की विधियों का प्रशिक्षण सम्मिलित किया जाना चाहिए।

(ii) पी०एच०डी० छात्रों को अखिल भारतीय स्तर पर निर्वाचित किया जाय।

(iii) पी०एच०डी० एवं अन्य अनुसंधान कार्य करने वाले विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(iv) डी० लिटoएवं डी०एस०सी० की उपलब्धियाँ केवल उच्चकोटि की मौलिक कृतियों पर प्रदान की जानी चाहिए।

9. शिक्षा का माध्यम आयोग ने सब राज्यों एवं जातियों की भाषाओं पर विचार करने के बाद शिक्षा के माध्यम के विषय में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं-

(i) उक्त शिक्षा माध्यम के रूप में यथाशीघ्र अंग्रेजी के स्थान पर किसी भारतीय भाषा का प्रयोग किया जाए।

(ii) उच्चतर माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय स्तर पर छात्रों की तीन भाषाओं का ज्ञान कराया  जाय।

(iii) उच्चतर शिक्षा का माध्यम प्रादेशिक भाषा हो परन्तु राष्ट्रभाषा को एक या अधिक विषयों की शिक्षा का माध्यम बनाया जा सकता हैं।

10. छात्र क्रियाएं व कल्याण- आयोग ने छात्रों की क्रियाओं और कल्याण के लिए – निम्नलिखित सुझाव उपस्थित किये हैं-

(i) प्रवेश के समय और तदुपरान्त वर्ष में एक बार प्रत्येक छात्र और छात्रा की निःशुल्क स्वास्थ्य परीक्षा की जाए।

(ii) प्रत्येक विश्वविद्यालय में छात्रों की चिकित्सा के लिए अस्पताल हो।

(iii) प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक “डायरेक्टर आफ फिजिकल एजूकेशन” की नियुक्ति की जाए।

(iv) सभी शिक्षा संस्थाओं में एन०सी०सी० की स्थापना हो ।

(v) विश्वविद्यालय में छात्रावासों की उचित व्यवस्था की जाए। एक छात्रावास में 50 से अधिक विद्यार्थी न हों।

11. स्त्री शिक्षा – इस सम्बन्ध में आयोग के निम्नलिखित सुझाव हैं –

(i) स्त्रियों की शिक्षा होनी चाहिए जिससे वे सुमाता एवं सुगृहणी बन सकें।

(ii) स्त्रियों को शिक्षा सुविधाओं का विस्तार किया जाय।

(iii) शिक्षा प्राप्त करने में स्त्रियां पुरुषों का अनुकरण न करें अपितु स्त्रीयोचित शिक्षा प्राप्त करें।

(iv) शिक्षा संस्थाओं का पाठयक्रम ऐसा होना चाहिए जिससे स्त्रियाँ सामान्य समाज में अपना सामान्य स्थान ग्रहण कर सके।

12. परीक्षाएं – आयोग ने विश्वविद्यालय की परीक्षा प्रणाली को सबसे अधिक दोषपूर्ण माना है। अतः इन परीक्षाओं को दोषमुक्त करने के लिए आयोग ने निम्नलिखित सिफारिशें की।

(i) परीक्षा का शैक्षणिक उद्देश्य होना चाहिए और भारतीय विद्यालयों के लिए बौद्धिक  मानसिक व परिश्रम मापक परीक्षाएं बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

(ii) भारतीय शिक्षा मन्त्रालय और विश्वविद्यालय में परीक्षा लेने की वैज्ञानिक पद्धति का सूक्ष्म अध्ययन कर प्रमाणित परीक्षाओं के निर्माण का प्रबन्ध किया जाय।

(iii) शिक्षा मंत्रालय में एक दो विशेषज्ञ ऐसे हों जो परीक्षाओं के प्रयोग में दक्ष हों जाए।

(iv) स्नातकोत्तर और व्यावसायिक परीक्षाओं के लिए मौखिक परीक्षाओं का भी प्रयोग किया

13. ग्रामीण विश्वविद्यालय- ग्रामीण शिक्षा पर सभी दृष्टियों से विचार करने के उपरान्त “आयोग” ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-

(i) ग्रामों से छोटे और आवासीय स्नातक पूर्व कालेजों की स्थापना की जानी चाहिये। इन कालेजों के केन्द्र में एक ग्रामीण विश्वविद्यालय का निर्माण किया जाना चाहिये।

(ii) एक कालेज के छात्रों की संख्या लगभग 200 और विश्वविद्यालय एवं उससे सम्बद्ध सब कालेज के छात्रों की संख्या 2500 से अधिक नहीं होनी चाहिए।

(iii) एक विश्वविद्यालय से जुड़े कालेजों के लिये पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, चिकित्सालयों, खेल के मैदानों की व्यवस्था एक ही स्थान पर होनी चाहिये।

(iv) ग्रामीण विश्वविद्यालयों में शोध का प्रबन्ध किया जाय।

आयोग का मूल्यांकन – “राधाकृष्ण कमीशन” ने विश्वविद्यालय शिक्षा के सभी पक्षों का विस्तृत और विधिवत अध्ययन करने के पश्चात उनको सशक्त बनाने के लिए व्यावहारिक और रचनात्मक सुझाव दिये।

“विश्वविद्यालय आयोग के प्रतिवेदन का महत्व अधिकांश रूप में इस बात से है कि वह देश की प्रचलित शिक्षा पद्धति आधारभूत परिवर्तन की आवश्यकता को स्वीकार करता है और इस आधार पर उसकी शिक्षा विषयक समस्याओं की विवेचना करता है। यही कारण है कि प्रतिवेदन को अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के सुझाव देने पड़े हैं। साथ ही प्रतिवेदन का एक गुण यह भी है कि वह अतीत से पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद नहीं करना चाहता है वरन उसमें उपलब्ध सर्वोत्तम बात को सुरक्षित रखना चाहता है।”

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shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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