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जातीय संघर्ष (Caste Conflict in Hindi)
भारत में जातीय संघर्ष सर्वाधिक मिलता है। स्वतंत्र भारत में जातीय संघर्षो में बाढ़ सी आई है। जातीय ऊंच-नीच, भेदभाव व संकीर्णता से अनेक तत्वों, विरोधों व संघर्षों को जन्म दिया है। पी० एन० हक्सर ने लिखा है कि आज एक जाति दूसरी जाति के विरुद्ध मोर्चाबंदी किये हैं, एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र के विरोध में खड़ा है। लेखक के ही शब्दों में, Today caste is ranged against caste, region against region. आज जाति व जातिवाद देश की एकता में सबसे अधिक बाधक है। इससे देश का कोई भाग अछूता व मुक्त नहीं। पूरा देश इनकी चपेट में है। उत्तर प्रदेश में हरिजन व सवर्णों में, राजस्थान में जाट राजपूतों में मध्य प्रदेश में ब्राह्मणों बनियो व राजूपतों में बिहार में राजपूत व भूमिहा गुजरात में पाटीदार व अन्य जातियों में आंध में कामा य रेडी में केरल में मुसलमान, नावर व इजावाह में जातीय संघर्ष के ये कुछ उदाहरण है। इनसे इस समस्या की गम्भीरता व विकरालता का सरलता अनुमान हो सकता है। संक्षेप में एक जाति की उपजातियों में अथवा विभिन्न जातियों के विरोध तनाव व संघर्ष को जातीय संघर्ष कहा जाता है। जातीय संघर्षो का अनेक लोगों ने अध्ययन किया है। इसमें प्रमुख है डी० ए० मजूमदार, बी० एस. कोहेन, एम० एन० श्रीनिवास, आंद्रे बिताई व एम० के० शुक्ल |
जातीय संघर्ष के कारण
जातीय तनाव व संघर्ष का कोई एक कारण नहीं वरन इस जटिल समस्या के लिए अनेक कारक उत्तरदायी हैं। राजनीति के चतुर खिलाड़ियों ने सत्ता सुख के लिए आवे दिन नये हथकण्डे अपनाये हैं जो इस समस्या के विस्तार में आग में घी का काम करते हैं। जातीय संघ के लिए उत्तरदायी कारकों का विवेचन संक्षेप में निम्नलिखित हैं-
1. जातिवाद (Casteism)
जातिवाद जातीय संघर्ष का प्रमुख कारण है। जातिवाद एक संकीर्ण भावना है जिसमे अपनी जाति या उपजाति को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है, अधिकाधिक सुविधाओं की भाग की जाती है तथा अन्य जातियों के हितों की अनदेखी और उपेक्षा की जाती है।
2. जजमानी प्रथा का पतन (Downfall of Jajmani System)
जजमानी प्रथा जाति पर आधारित सहयोगी व्यवस्था थी। इससे विभिन्न जातियों में प्रकार्यात्मक सम्बन्ध पनपे सेवा सम्बन्ध विकसित हुए तथा विभिन्न जातियाँ एक सूत्र में बंधी सेवा प्रदान करने वाले परिजन या प्रजा तथा सेवा ग्रहण करने वाले यजमान में सहयोग सौहाद्र घनिष्ठता व एकता की भावना सदियों तक पनपी किन्तु आगे, चलकर इसमें अनेक दोष आ गये। अंग्रेजी शासन से यह जर्जर हुई और इसका अन्त हो गया। इससे जातीय संघर्षो को बढ़ावा मिला।
3. आरक्षण (Reservation)
शोषित, कमजोर और पिछड़ी जातियों की प्रगति व राज्य की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए संविधान में आरक्षण की सुविधा दी गई थी। एक निश्चित अवधि तक तो आरक्षण का औचित्य था वोट की पर राजनीति से जुड़ गया। अतः अब किसी दल में इतनी दृढ इच्छा शक्ति नहीं कि इसकी समय सीमा निर्धारित करे।
4. प्रजातंत्र एवं चुनाव (Democracy and Elections)
स्वतंत्रता मिलने के बाद “भारत में प्रजातंत्र की स्थापना की गई। प्रजातंत्र के जाने माने आधार स्वतंत्रता, समानता व भाईचारा है। इन सिद्धान्तों का जाति प्रथा से कोई तालमेल नहीं वरन दोनों विरोधी हैं। प्रजातंत्र के चुनाव अभिन्न अंग है। राजनीति व चुनावों में खुलकर जाति का सहारा लिया गया। जाति के आधार पर चुनाव के प्रतिनिधि खड़े किये जाते हैं और उसी आधार पर वे चुनाव हारते व जीतते हैं। कुछ राजनैतिक दल जैसे- बहुजन समाज पार्टी, अकाली दल, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम जाति की राजनीति पर जिन्दा है। दूसरे राष्ट्रीय दल भी सत्ता की होड़ में पीछे नहीं रहना चाहते। इससे देश की राजनीति बहुत निम्न स्तर पर उतर आई है।
5. संस्कृतिकरण (Sanskritization)
संस्कृतीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए ए एन. श्रीनिवास ने लिखा है “संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या जनजाति अथवा अन्य समूह अपने रीति रिवाजों, कर्मकाण्ड विचारधारा व जीवन शैली को किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में परिवर्तित करती है।” संस्कृतीकरण द्वारा निम्न हिन्दू जाति द्वारा मांस, मंदिरा का त्याग उच्च जातियों के रीति-रिवाज व जीवन शैली को अपनी स्थिति ऊँची करने के उद्देश्य से अपनाती है। इसका विरोध उच्च जातियाँ करती हैं। इसी से जातीय तनाव संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
6. आर्थिक स्थिति में सुधार (Improvement in Economic Condition)
अनुसूचित जातियाँ, जनजातियों व अन्य पिछड़े वर्ग आर्थिक दृष्टि से पंगु व पिछड़ी हैं। खाना कपड़ा और मकान की आधारभूत आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं होती थी। वे ऊँची जातियों पर इस प्रकार निर्भर थी कि शोषण, अन्याय व अत्याचार का विरोध नहीं कर पाती थी। किन्तु समय ने करवट ली उनके सामने आर्थिक प्रगति के द्वार खुल गये। उनकी दशा सुधार की अनेक योजनायें अपनाई गई। इससे कमजोर जातियों की आर्थिक कायाकल्प हुई।
7. शिक्षा सुविधायें (Educational Function)
प्राचीनकाल से निम्न जातियाँ शिक्षा व अज्ञान में पल रही थी। वे भाग्यवादी, संतोषी व निराशावादी थी किन्तु शिक्षा के प्रचार प्रसार से उनमें नई चेतना आई वे अपने आर्थिक व स्वाभाविक स्थिति सुधारने की दिशा में प्रयत्नशील हुई। इसमें प्रगति की लालसा बढ़ी सर्वोच्च पदों में नियुक्ति से उनमें आत्मविश्वास बहा। सवर्ण इसे सहन नहीं कर पाये। अतः विरोध तनाव व संघर्ष बढे पढ़ा-लिखा व्यक्ति जाति की दैवीय उत्पत्ति की खिल्ली उड़ाता है तथा उच जातियों के अह व बडबोलेपन को सीधी चुनौती देता है।
8. सुधार आन्दोलन (Reform Movement)
जाति प्रथा की अनेक बुराइयों क्या जय “नीच अस्पृश्यता, भेदभाव, शोषण व अन्याय से सन्त महात्माओं व प्रबुद्ध भारतीयों में सुधार आन्दोलन किये। इनमें उल्लेखनीय है समाज, ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन, दलित सेवा संघ व ईश्वर भक्त आश्रम इन्होंने समतावादी समाज की स्थापना की दिशा में प्रयास किये और उच्च जातियों को हृदय परिवर्तन के लिए प्रेरित किया। इन्होंने स्वस्थ जनमत तैयार करने की दिशा में सराहनीय प्रयास किये निम्न जातिया में नई आशा व जीवन का संचार हुआ उन्हें लगा कि अधिकार मांगने से नहीं वरन संघर्ष से ही मिल सकते हैं।
9. जमींदारी का अन्त (Abolition of Jamidari)
जमीदारी प्रथा के समय अधिकांश कृषि योग्य भूमि सवर्णों व जमींदारों के अधिकार में थी। निम्न जाति के लोग भूमिहीन श्रमिक व बटाईदार थे। जमींदारी उन्मूलन से निम्न जातियों भी भूस्वामी बनी ये बेगार व शोषण का विरोध करने लगे हैं। इससे उच्च जातियों और निम्न जातियों में तनाव व विरोध बढ़ा है।
जातीय संघर्ष के दुष्परिणाम
जातीय संघर्ष के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं-
1. तनाव व संघर्ष कटुता (Tension and betterness)
जातीय संघर्ष से समाज में एकता, शान्ति, सहयोग व सामंजस्य पर कुठाराघात हुआ है। उनमें सेवा, सहनशीलता की कमी आई है। जातीय वैमनस्य व विरोध इतना बढ़ा है कि वे परस्पर खून के प्यासे हो गये हैं।
2. प्रगति में बाधक (Hurdle in progress)
जाति प्रथा का आधार श्रम विभाजन था। अतः वह सदियों तक प्रगति व विकास में सहायक रही किन्तु जातीय संघर्षो ने समाज की प्रगति में रोड़ा अटका है। अब तो जातीय स्वार्थ व संकीर्णता इतनी प्रबल हो है कि जातीय हितों के लिए राष्ट्रीय हितों का बलिदान करने में कोई संकोच नहीं होता। यह सहयोगी अवस्था की जगह असहयोग व्यवस्था हो गई है।
3. जन धन की हानि (Loss of Life and Proper)
जातीय उपद्रवों व दंगों में अपार जन-धन की हानि हुई है और आज भी हो रही है। प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल है कि स्त्री, बच्चे, बूढ़े, अपाहिजों को मौत के घाट उतारने, आग के हवाले करने में लोग नहीं हिचकते। दुकानो, घर, स्कूल, कार्यालय, बस, खेत-खलिहान में आग लगाकर असामाजिक तत्वों को लूटपाट, हिंसा, हत्या के जातीय आधार पर मौके की तलाश रहती है। जातीय आधार पर डाकू व लुटेरों के गैंग कार्य कर रहे हैं।
जातीय संघर्षों को दूर करने का सुझाव (Suggestion for Removal of Caste Conflict)
जातीय संघर्षो के निराकरण के लिए सामाजिक वैज्ञानिकों ने कई सुझाव दिये हैं। स्वस्थ समाज के विकास के लिए आवश्यक है कि विकास के मार्ग की बाधाओं और समस्याओं को दूर किया जाये तथा अनुकूल परिस्थितियों का सृजन किया जाये। जातीय संघर्षो को दूर करने के सुझाव निम्नलिखित हैं
जातीय संघर्षों को दूर करने के सुझाव निम्नलिखित हैं-
1. जातिवाद की समाप्ति (Revmoval of Casterism)
जातिवाद देश के लिए अभिशाप है। इसके रहते क्षुद्र स्वार्थो, संकीर्णता व विघटन को बढ़ावा मिलता है। जातिवाद की समस्या के समाधान के लिए ईरावती कर्वे ने सभी जातियों की आर्थिक व सामाजिक समानता को आवश्यक बताया है। घुरिये ने अन्तः जातीय विवाहों की वकालत की है। काका कालेकर ने उचित शिक्षा पर बल दिया है।
2. आर्थिक समानता (Economic Equality)
कुछ लोग आर्थिक असमानता को जातीय संघर्षो का मूल कारण मानते हैं। इसी के रहते शोषण, अन्याय, बेकार, अत्याचार, पनपते हैं। आर्थिक समानता से आर्थिक अन्तर की खाई पटेगी। शान्ति व्यवस्था, सुख संतोष का वातावरण होगा।
3. उचित शिक्षा (Proper Education)
काका कालेकर उचित शिक्षा पर विशेष बल देते हैं। इससे लोगों से समता मूलक विचार पनपेंगे। भेदभाव, संकीर्णता, शोषण व अन्याय में कमी होगी। इसी के साथ समाजीकरण भी जातीय संघर्ष का प्रभावी समाधान हो सकता है।
4. स्वस्थ जनमत (Healthy Public Opinion)
जनमत में बड़ी शक्ति होती है। शक्तिशाली लोगों को भी इसके सामने झुकना पड़ता है। यदि समाज में स्वस्थ जनमत का निर्माण होतो अनेक विकृतियों और बुराइयों पर काबू पाया जा सकता है जातीय संघर्ष का समाधान सरलता से किया जा सकता है।
5. असामाजिक तत्वों में वृद्धि (Increase in Antisocial Elements)
जातीय में संघर्षो से असामाजिक तत्वों की बन आती है। उनकी सेवा व सहायता बदला लेने के लिए उच्च व निम्म दोनों प्रकार की जातियाँ लेती हैं। असामाजिक तत्वों की बन आती है। उन्हें शरण और संरक्षण मिलता है।
6. सांस्कृतिक विघटन (Cultural Disorganisation)
जातीय संघर्षो से सामाजिक संस्थाओं, सांस्कृतिक मूल्यों व आदर्शों का क्षरण होता है। समाज में घृणा, भय, आशंका व अविश्वास का बोलाबाला होता है। उच्छृंखलता, उदंडता, अनुशासनहीनता व अराजकता का साम्राज्य होता है जो सांस्कृतिक सामंजस्य पर चोट कर विघटन तेज करते हैं।
7. स्थिरता में बाधा (Lack of Stability)
जातीय संघर्ष से समाज की स्थिरता व सामंजस्य कुप्रभावित होता है। एकमत्व का अभाव होता है। महत्वपूर्ण विषयों में विरोध मिलता है तथा अस्थायित्व व विघटन बढ़ता है।
8. शान्ति व व्यवस्था की समस्या (Law and Order Problem )
जब जातीय संघर्ष बढ़ते हैं तो शान्ति व व्यवस्था की समस्या गम्भीर हो सकती है। तनाव, विरोध, हिंसा व हत्या का प्रतिशोध थमने का नाम नहीं लेते। जब और जहाँ जिसे अवसर मिलता है विरोधियों को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है।
9. लोकतंत्र व सरल (Erosion of Democracy)
जनतंत्र के आधारस्तम्भ हैं स्वतंत्रता, समानता व भाईचारा । जातीय संघर्षो के चलते इन सिद्धान्तों की हत्या होती है। इनके स्थान पर असमानता, वैमनस्य, स्वतंत्रता का अपहरण प्रमुखता पाते हैं। शोषण-अविश्वास, अन्याय, अत्याचार की प्रधानता होती है।
10. अन्तःजातीय विवाह (Inter-caste Marriage)
जाति प्रथा में अपनी जाति या उपजाति में विवाह का कठोर नियम होता है। इससे दूरी संकीर्णता व पृथकता पनपती है। यदि विभिन्न जातियों में विवाह होने लगे तो प्रेम, आत्मीयता व घनिष्टता पनपेगी। इससे जातीय संघर्ष के स्थान पर सहयोग और प्रेम बढ़ेगा। जातिवाद की बुराई समाप्त होगी।
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