B.Ed./M.Ed.

बहुभाषिकता एक संसाधन है। (Multilingualism is a resource)

बहुभाषिकता एक संसाधन है।
बहुभाषिकता एक संसाधन है।

बहुभाषिकता एक संसाधन है। (Multilingualism is a resource)

बहुभाषिकता एक संसाधन है।- भारत में भाषा समस्या का समाधान करने के लिए बहुभाषिता को उचित माना गया है। बहुभाषिता को एक मानवीय संसाधन भी माना गया है और एक व्यूह रचना भी। मानवीय साधन इस कारण माना गया है क्योंकि बहुभाषी होने पर भाषा विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे। बहुभाषिता के लिए सरकार ने त्रिभाषी सूत्र दिया है। उनका मत है कि अहिन्दी भाषी राज्यों में मातृभाषा तथा हिन्दी का अनिवार्य अध्ययन हो। मातृभाषा तथा हिन्दी के साथ वे सरल संस्कृत का अनिवार्य अध्ययन कर सकते हैं। अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाएँ तथा संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाएँ वैकल्पिक स्थान प्राप्त करेंगी। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में त्रिभाषा सूत्र की परिभाषा इस प्रकार करनी होगी-

मातृभाषा तथा एक अन्य भारतीय भाषा यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि अन्य भाषाओं में संस्कृत का स्थान रखना होगा।

बहुभाषी व्यक्ति को कई भाषाओं का ज्ञान होता है। इस कारण वह एक देश का संसाधन माना जा सकता है।

बहुभाषिता की अवधारणा लाने का विचार इस कारण आया क्योंकि भारतवर्ष में बहुत-सी भाषाएँ हैं। सभी भाषाओं के हजारों समर्थक हैं जो अपनी-अपनी भाषा की वकालत करते हैं। यहाँ एक प्रश्न यह भी है कि विभिन्न भाषाएँ होने के कारण राष्ट्रभाषा के रूप में अहिन्दी भाषी क्षेत्र के लोग हिन्दी का विरोध करते हैं, वे अपनी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में आसीन करना चाहते हैं। यद्यपि भाषाएँ तो अनेक हैं लेकिन भारतवर्ष में हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो राष्ट्रभाषा, राजभाषा अथवा सम्पर्क भाषा बन सकती है। भारतवर्ष लोकतंत्र है। लोकतंत्र की भावना की दृष्टि से यह आवश्यक है कि सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाए। परंतु यह भी सत्य है कि दक्षिण भारत में सम्पर्क भाषा के रूप में लोग अंग्रेजी को अपनाए हुए हैं। यद्यपि लोगों का तर्क यह है कि अंग्रेजी विदेशी भाषा है साथ ही विश्वभाषा है। इसलिए यह हिन्दी से अधिक महत्वपूर्ण हैं। दक्षिण अमेरिका में स्पेनिश भाषा समझी और पढ़ाई जाती है अंग्रेजी नहीं। पूरे यूरोप में फ्रांसीसी भाषा सभी देशों में समझी जाती है, अंग्रेजी नहीं। सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश चीन, सारा अफ्रीका, रूस, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, इटली, जापान कोई भी आंग्ल भाषी देश नहीं है। उच्च शिक्षा की प्राप्ति के लिए जो भी छात्र वहाँ जाते हैं, उन्हें पहले 6 माह वहाँ की भाषा सीखनी होती है। क्योंकि वहाँ शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं बल्कि वहाँ की अपनी भाषा है। ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि अंग्रेजी विश्वभाषा है। जहाँ तक समृद्ध साहित्य का संबंध है, जर्मनी, फ्रेंच, रूसी भाषाएँ आदि भाषाएँ भी इस दिशा में बहुत आगे है। भारतवर्ष में बंगला, मराठी आदि भाषाएँ बहुत समृद्ध हैं। हिन्दी भी बहुत समृद्ध हो चली है। पहले भाषा प्रयोग में लायी जाती है बाद में उसका साहित्य समृद्ध बनता है। जब इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में अंग्रेजी को अनिवार्य किया गया तभी धीरे-धीरे उसका साहित्य समृद्ध बना।

सबसे अधिक समृद्ध भाषा तो संस्कृत है। अतः अंग्रेजी की समृद्धि की दुहाई देना उचित नहीं है।

भारतवर्ष में लगभग दो सौ वर्षों तक अंग्रेजों का राज्य रहा। उन्होंने अंग्रेजी को भी प्रश्रय दिया। आज भी प्रशासकीय पक्षों पर बैठे लोग इसको प्रश्रय दे रहे हैं। दक्षिण भारतीय लोग अंग्रेजी का विरोध नहीं करते लेकिन हिन्दी को राजभाषा के पद पर नहीं देखना चाहते हैं। अतः इसे अनिवार्य बनाने की तुक हमारी समझ में नहीं आती। यहाँ पर सवाल किसी विदेशी भाषा के विरोध का नहीं है, केवल अंग्रेजी ही क्यों, विदेशी भाषा को एक संसाधन मानकर तथा देश के नागरिकों को एक संसाधन के रूप में बहुभाषी बनाने के लिए जर्मन, फ्रेंच, रूसी, जापानी भाषाएँ भी वैकल्पिक रूप से पढ़ायी जा सकती हैं। जिन राष्ट्रभाषियों का मातृभाषा हिन्दी नहीं है उन्हें बहुभाषी बनाने के लिए त्रिभाषा सूत्र के अनुसार तीन भाषाएँ सीखनी होंगी परंतु जिनकी मातृभाषा हिन्दी है, उन्हें दो भाषाएँ ही पढ़नी होंगी। ऐसा क्यों? अतः हिन्दी भाषी क्षेत्रों में एक ओर भाषा अनिवार्य कर दी जाए। वह दक्षिण भारत की कोई भाषा हो सकती है। बहुत से लोगों का मत है कि हिन्दी भाषा ही सम्पर्क भाषा क्यों हो? इसका कारण यह है कि सभी भारतीय भाषाओं में हिन्दी ही ऐसी भाषा है जो जिसके बोलने वाले और जिसे समझने वाले सबसे अधिक है, जिन्हें और कोई भाषा नहीं आती है, वे भी टूटी-फूटी हिन्दी में अपना काम चला लेते हैं। बहुत से राष्ट्र ऐसे हैं जहाँ सम्पर्क भाषा अंग्रेजी है परंतु विभिन्न राज्यों में बहुभाषी व्यक्ति मिल जाएँगे जैसे कोई जर्मन भाषा है, कोई फ्रेंच भाषी है, कोई इतालवी भाषी है। परंतु सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी होने का कारण यह है कि वहाँ अंग्रेजी बोलने वाले तथा समझने वाले अधिक हैं।

राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से यह देखा जाए तो यदि हिन्दी भाषी प्रदेशों में कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा अनिवार्य बनायी जाती है, तो यह भी अच्छी बात ही है। परंतु, यह आग्रह नहीं होना चाहिए कि कुछ विशेष भाषाओं को ही अनिवार्य बनाया जाए। यह सभी राज्यों पर छोड़ देना चाहिए कि राज्य की जनता के हित में किन भाषाओं को अनिवार्य बनाया जाए। दक्षिण मध्य प्रदेश के लोग तेलुगू भाषा सीखना चाहेंगे, पूर्व मध्य प्रदेश के लोग गुजराती सीखना चाहेंगे और शेष लोगों को मराठी भाषा का अध्ययन करना चाहिए। इसलिए मध्य प्रदेश में तेलुगू, गुजराती और मराठी भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था की जाए और यह छात्रों पर छोड़ दिया जाए कि वे कौन-सी भाषा पढ़ना चाहते हैं। यदि किसी अन्य भाषा को अनिवार्य बनाया जाएगा तो लोग उसे क्यों पढ़ना चाहेंगे। कुछ लोग यह भी आग्रह करते हैं। कि त्रिभाषा सूत्र में संस्कृत को शामिल न किया जाए बल्कि उसे चतुर्थ भाषा के रूप में ग्रहण किया जाए।

इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि संस्कृत की उपेक्षा हो गयी है, कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि हमारी प्रगति संस्कृत में ही निहित है। संस्कृत एक अत्यन्त प्राचीन भाषा है। इसका साहित्य भी बहुत ही समृद्ध है तथा हमारे वेद, पुराण, उपनिषद् आदि ज्ञान के खजाने इसी भाषा में छिपे हैं और यह जन-जन तक तभी पहुँचेंगे जब संस्कृत आम जनता तक पहुँचेगी। इसमें कोई शक नहीं है कि संस्कृत एक अत्यन्त समृद्ध और सम्पन्न भाषा है। यह भारत की सांस्कृतिक भाषा है। रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, शंकर आदि आचार्य कालिदास, भवभूति आदि के ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही हैं। भारतीय भाषाओं का साहित्य संस्कृत साहित्य पर ही आधारित है। संस्कृत भाषा की अवहेलना करने पर हम अपनी संस्कृति से कट जाएँगे। आज भी भारतीय भाषाओं को जब नये-नये विषयों के लिए नये-नये शब्दों की आवश्यकता है तो वे संस्कृत का ही सहारा लेते हैं। अतः संस्कृत की उपेक्षा किसी भी सूरत में नहीं करनी चाहिए। उसे तो अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। हमारे विचार से बहुभाषा को विवाद का प्रश्न न बनाकर उसे संसाधन के रूप में देखना चाहिए और बहुभाषी. व्यक्ति को एक मानवीय संसाधन समझना चाहिए जो देश की समृद्धि में सहायक हो सकता है।

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shubham yadav

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