अनुक्रम (Contents)
ज्ञान के प्रमुख सिद्धान्त (Theories of Knowledge)
ज्ञान के सिद्धान्त ज्ञान के प्रकारों पर आधारित है; जैसे-
1. आधुनिक सिद्धान्त (Empirical Theory)– प्रायोगिक सिद्धान्त इन्द्रियांगों के द्वारा अनुभवों की सहायता से प्राप्त किए गए ज्ञान पर आधारित है। यह ज्ञान का ऐसा सिद्धान्त है जो ज्ञान को प्राप्त करने में इन्द्रियों के सहयोग पर बल देता है। सबसे अधिक प्रायोगिक व्यक्ति शायद दार्शनिक तथा अध्यापक हैं। हम गणित तथा भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों का सार्वभौमिक तथा विश्वस्त ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और यह केवल तथ्य का ज्ञान है केवल तथ्यों के प्रारूप तथा क्रमबद्ध संगठन का ज्ञान है।
मध्ययुग में अंग्रेज दर्शनशास्त्री जॉन लॉक ने अनुभववाद को पुनः चेतना प्रदान करने के लिए इस तथ्य पर बल दिया कि जन्म के समय मनुष्य का मन एक सपाट स्लेट की भाँति होता है जिन पर अनुभवों की सहायता से कुछ भी लिखा जा सकता है और इसके पश्चात् एक अन्य अंग्रेज दार्शनिक ह्यूम ने भी यह कह कर उसका अनुगमन किया कि मानव का मस्तिष्क उसकी संचेतनाओं को जोड़ दिया है। इस प्रक्रिया में मनुष्य की आनुवंशिकता, बौद्धिकता तथा सांस्कृतिक संरचना कोई योगदान नहीं करते है।
2. तर्कवाद का सिद्धान्त (Rationalism Theory)- तर्कवाद यह निश्चित करता है। कि तर्क ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत है। इन्द्रियों के द्वारा केवल कच्चा माल प्रदान किया जाता है जिसको आकार देने का कार्य तर्क के द्वारा किया जाता है। कच्चे माल का स्वयं में कोई ज्ञानात्मक मूल्य नहीं होता। यह तब तक मृतक रहेगा जब तक इसे तर्क के छूने से रोशन न किया जाए। मृतक सामग्री को दिए जाने वाले विभिन्न रंग तथा आकार तर्क पर निर्भर करते हैं। यूनानियों में प्लेटों को तर्कवाद का पिता माना जाता है। वास्तविकता विचारों में है, मस्तिष्क में है, शुद्ध प्रकार में है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह केवल दिखाई देने में है। वास्तविक संसार तथ्य में है जिसे विचारों की सहायता से मस्तिष्क में बनाया जाता है। अतः तर्कवादी के लिए फूल भी उतना ही सुन्दर है जैसा कि उसका विचार है फूल में स्वयं में कोई जन्मजात सौन्दर्य नहीं होता।
3. संवेद विवेकपूर्ण सिद्धान्त (Sense Rationalisation Theory)– अरस्तु ने पूर्ण अनुभववाद तथा पूर्ण तर्कवाद को स्वीकार नहीं किया यद्यपि उसका यह मानना था कि चेतना तथा तर्क ज्ञान के निर्माण में आवश्यक रूप से सहयोगी है। चेतन सामग्री की क्षमता को तर्क के द्वारा वास्तविक बनाया जाता है और इस प्रकार हमारे पास विचारों, तथ्यों, सिद्धान्तों तथा ज्ञान प्रणाली का विस्तृत स्वरूप होता है। कान्ट के विचारों में, हम अनुभव के साथ ज्ञान के उद्देश्य के लिए कार्य आरम्भ कर सकते हैं, परन्तु अनुभव स्वयं में ज्ञान प्रदान नहीं करते। इसमें ज्ञान को रूप देने के लिए तर्क की आवश्यकता होती है। यही विचार शैक्षिक प्रक्रियाओं में लागू होता है। आधुनिक विद्यालय मस्तिष्क तथा चेतना दोनों के प्रशिक्षण के कार्य करते हैं। शिक्षण कौशल मस्तिष्क तथा चेतना की सहायता से ज्ञान प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करता है ताकि वे स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सके।
4. प्रायोगिक सिद्धान्त (Experimental Theory)– प्रयोजनवाद जीवन का सिद्धान्त है जो प्रयोगों पर आधारित ज्ञान के सिद्धान्त को स्वयं में समेटे हुए हैं। इस पर बहुत कार्य किया जा चुका है तथा वर्त्तमान में यह प्रायोगिक रूप में है। इन वर्षों में बहुत से शैक्षिक सिद्धान्त इसी पर आधारित बनाए गए हैं। इसका जन्म स्थान तथा वृद्धि की भूमिका विशेष रूप से अमेरिका है।
5. योग का सिद्धान्त (Yogic Theory)- भारतीय विचारकों के प्रतिनिधि के रूप में पातंजली का योग विश्व के दार्शनिक कार्यों में सबसे प्रमुख है। इसके अनुसार शरीर तथा मन ऐसे तत्त्वों के बने हैं जो उत्तेजना के स्रोत बनते हैं। वे केवल आत्मा के लिए विद्यमान हैं जो कि अटल सत्य है और उनका प्रभाव उसी क्षण दिखाई देता है जब आत्मा स्वयं को अनुभव करती है तथा स्वतंत्र हो जाती है। मस्तिष्क की एक प्रमुख विशेषता है कि यह व्यग्र / चंचल है, इसके साथ-साथ इसमें अज्ञानता/अविद्या है जो सभी शारीरिक तथा मानसिक विचलनों की जड़ है। योग का उद्देश्य इस मानसिक चंचलता को नियंत्रित करना है तथा इस मस्तिष्क को एक बिन्दु पर केन्द्रित करना है और सभी बुराइयों की जड़ अज्ञानता को जड़ से खत्म करना है। यह केवल वैराग्य की चेतना के विकास से सम्भव है और इसके लिए कुछ ऐसी शारीरिक तथा मानसिक क्रियाएँ करवाई जाएँ जिससे केन्द्रीयकरण की सहायता से मानसिक संचेतना को उच्च स्तर तक ले जाया जा सके। जब एक योगी इस उच्च स्तर को प्राप्त करता है तो वह व्यक्ति तथा वस्तु ( में तथा तुम) दोनों के बारे में सब कुछ भूल जाता है।