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सांस्कृतिक संदर्भ में भाषा | Cultural context in Language in Hindi

सांस्कृतिक संदर्भ में भाषा
सांस्कृतिक संदर्भ में भाषा

सांस्कृतिक संदर्भ में भाषा (Cultural context in Language)

संस्कृति शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Culture’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है जुताई, कृषि, सभ्यता, शिष्टता, इत्यादि।

‘संस्कृति’ शब्द ‘कृ’ धातु में ‘सम्’ उपसर्ग और ‘क्तिन’ प्रत्यय लगाने से उत्पन्न हुआ है, जिसका मूल अर्थ है- परिष्कृत करना। यह शब्द सुधरी हुई स्थिति का सूचक है। संस्कृति शब्द संस्कार से जुड़ा हुआ है, जिसका सम्बन्ध शुद्ध करने या सुधारने से है।

टायलर के अनुसार – “संस्कृति जटिलपूर्ण है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, नियम, रिवाज और समाज के सदस्यों के रूप में मनुष्यों द्वारा प्राप्त की जाने वाली अन्य योग्यताएँ एवं आकांक्षाएँ सम्मिलित हैं। “

संस्कृति को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न दृष्टियों से परिभाषित किया है। संस्कृति का सम्बन्ध उन समस्त विचारों, कार्यों आदि से है, जिन्हें वह परम्परा विशेष से सीखता है, आगे बढ़ाता है और सम्मान करता है।

बेनडिक राथ के अनुसार-“संस्कृति विचारों और कार्यों द्वारा निर्मित जीवन पद्धति है। प्रत्येक भाषिक समाज की संस्कृति/भाषिक संस्कृति में कुछ विशेषताएँ होती हैं जो सामान्यतः दूसरे भाषिक समाज में नहीं पायी जाती।”

शल्य यज्ञदेव का कथन है कि “सामाजिक अनुभव ही संस्कृति है, व्यक्तिगत अनुभव नहीं। व्यक्तिगत अनुभव सामाजिक अनुभव के दर्पण के रूप में ही संस्कृति कहलाती है।”

साहित्य समाज का दर्पण है। बालक अपने समाज के व्यक्तियों के विचार तथा व्यवहार से परिचित होता है, साथ ही हमारे विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम अपन समाज के रीति-रिवाज, आचार-विचार, परम्परा, धर्म और संस्कृति को ठीक से समझें। समस्त ज्ञान साहित्य में छिपा होता है और साहित्य के ज्ञानवर्धन के लिये यह आवश्यक है कि हमारा अपनी भाषा पर पूर्ण अधिकार हो, तभी हम अपना सांस्कृतिक विकास करने में समर्थ हो सकते हैं। अत: भाषा से संस्कृतिक विकास नहीं किया जा सकता है। संस्कृति पूर्ण रूप से भाषा पर आधारित है । चाहे वह मौखिक भाषा हो अथवा लिखित। हमारी संस्कृति में बहुत ही ऐसी परम्पराएँ एवं रीति-रिवाज हैं जिनका लिखित में विवरण नहीं मिलता है। उनको हम अपने समाज, परिवार द्वारा मौखिक रूप से ग्रहण करते हैं। और पालन करते हैं। यदि भाषा का उदय न हो तो संस्कृति का विकास और ग्रहण करना आसान नहीं होता।

संस्कृति विकास में भाषा की भूमिका (Role of language in context of Cultural development) 

संस्कृति विकास में भाषा की भूमिका निम्नलिखित हैं-

1. सांस्कृतिक ज्ञान-वृद्धि में भाषा की भूमिका – प्रत्येक मानव का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह अपनी संस्कृति के ज्ञान का अर्जन करे। वह अपनी संस्कृति के इतिहास को समझे। वर्त्तमान में उसका प्रयोग करे। सांस्कृतिक ज्ञान जितना अधिक वह प्राप्त करेगा उतना व्यावहारिक जीवन सुखी एवं समृद्ध होगा। सांस्कृतिक ज्ञान में वृद्धि का एकमात्र साधन भाषा ही है, वह चाहे लिखित हो या मौखिक । अतः स्पष्ट है कि सांस्कृतिक ज्ञान में वृद्धि भाषा द्वारा ही की जा सकती है।

2. सांस्कृतिक निरन्तरता में भाषा की भूमिका – संस्कृति किसी भी जाति के इतिहास का विशुद्ध सार है। यह उन रीतियों और परम्पराओं से मिलकर बनती है जिनमें उस जाति के विकास का मूल होता है। हुमायूँ कबीर ने लिखा है-“ सांस्कृतिक परम्परा ही एक जाति के जीवित रहने की आवश्यक शर्त है। “

भाषा सांस्कृतिक परम्पराओं की निरन्तरता में महान सहयोग देती है। भाषा संस्कृति को बनाये रखती है उसका अन्त नहीं होने देती ।

3. सांस्कृतिक हस्तान्तरण में भाषा की भूमिका- व्यक्ति समाज की इकाई के रूप में संस्कृति ग्रहण करता है और ग्रहण किये हुए ज्ञान को आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित करता है। इस हस्तान्तरण की प्रक्रिया में भाषा संस्कृति को अत्यधिक सहायता प्रदान करती। है। जाने-अनजाने में भी व्यक्ति संस्कृति की अनेक बातें जन्म के साथ ही सीखना प्रारम्भ करता है, किन्तु बहुत-सी बातें उसे समाज परिवार द्वारा जान-समझकर भी हस्तान्तरित की जाती हैं। अतः सांस्कृतिक हस्तान्तरण में भी भाषा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का पालन करती है।

4. सांस्कृतिक विकास में भाषा की भूमिका- मानव ने आदिकाल से लेकर आज तर्क जो भी ज्ञान संचित किया, वह हमारी संस्कृति का ही एक अंग है। कला और साहित्य, कानून और इतिहास सभी पर संस्कृति की स्पष्ट छाप है। सांस्कृतिक विकास में भाषा मानव की सहायता करती है। प्राचीन ज्ञान को सुनकर या इतिहास द्वारा पढ़कर मानव ज्ञान प्राप्त करता है जो भाषा के ज्ञान द्वारा ही आसान हुआ है। अतः यह भी स्पष्ट है कि सांस्कृतिक विकास में भी भाषा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का पूर्ण निर्वहन करती है।

5. सांस्कृतिक परिवर्तन में भाषा की भूमिका- बालक जन्म के कुछ समय पश्चात् से ही अपनी संस्कृति के रीति-रिवाजों, आदतों नियमों आदि को सीखता है और उनका पालन करता रहता है। बड़ा हो जाने पर वह सही और गलत में तुलना करता रहता है। यदि उसने कुछ गलत सीखा है या किसी गलत आदत को ग्रहण किया है तब वह उस आदत में परिवर्तन करेगा। समाज में अनेक रीतिरीवाज, परम्पराएँ हैं जो प्राचीन समय से व्याप्त हैं, समय और काल के अनुसार कुरीतियाँ बन गयी है, जैसे- बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, झूठ बोलना, चोरी करना या कोई अपराध करना। इन सभी का त्याग करके भाषा के ज्ञान द्वारा इनके कुप्रभाव का प्रचार-प्रसार किया जाता है और इनमें निरन्तर सुधार या परिवर्तन किया जा रहा है। अत: सांस्कृतिक परिवर्तत्तन में भी भाषा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है।

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shubham yadav

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