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श्रवण अक्षमताग्रस्त बच्चों के लिए शैक्षिक कार्यक्रम की विवेचना कीजिए। (Discuss the educational Programmes for hearing Impaired children)
श्रवण अक्षमताग्रस्त बच्चों के शैक्षिक अनुर्वास के लिए कई तरह के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं :
1. विशिष्ट शिक्षण कार्यक्रम 2. समेकित शिक्षण कार्यक्रम 3. समावेशी शिक्षण कार्यक्रम 4. गृह-आधारित कार्यक्रम 5. व्यावसायिक स्थापन
1. विशिष्ट शिक्षण कार्यक्रम (Special Education Programme)- श्रवण अक्षमताग्रस्त बालकों के शिक्षण अधिगम हेतु उन्हें बधिरों के लिए संचालित विशिष्ट 1 विद्यालयों में दाखिला कराया जा सकता है। इन स्कूलों में बधिरों के लिए विशेष रूप से बनाए गए पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या के जरिए उन्हें पठन-पाठन की तालीम दी जाती है।
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पश्चिमी देशों में बधिरों के नियमित शिक्षण-प्रशिक्षण की शुरूआत हुई इससे पूर्व बधिरों को मंदबुद्धि एवं निदेशमानन में असमर्थ समझा जाता था। इसलिए ऐसे श्रवणबाधित बच्चों के शिक्षण के विषय में कोई कोशिश नहीं की गई। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में स्पेन के पेड्रो पॉन्स डी लियोन ने पहली बार बताया कि बधिरों को भी पढ़ाया जा सकता है और वे आसानी से सीख भी सकते हैं। सत्रहवीं सदी में फ्रांस में बधिरों के लिए पहली स्कूल खोली गई। अठारहवीं सदी के मध्य तक बधिरों के शिक्षण के लिए मैनुअल एप्रोच हावी रहा।
19वीं शताब्दी के अंत में भारत में बधिरों की शिक्षण की दिशा में जागरूकता आयी इससे पूर्व इन्हें शिक्षण योग्य नहीं समझा जाता था बावजूद इसके भारत में प्रथम बधिर बच्चों का विद्यालय 1884 में ही खुला पाया। इस विद्यालय का नाम था – “बॉम्बे इन्स्टीच्यूट फॉर द डेफ’। इसकी स्थापना रोगन कैथोलिक मिशन द्वारा 1884 में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के मंझगाँव में की गई थी। ‘कलकता डेफ एवं डम्ब स्कूल’ नामक दूसरे स्कूल की स्थापना 1893 ई. में की गई। वहीं तीसरा बधिर विद्यालय तमिलनाडु के पालमकोट्टाई में फरवरी 1896 में की जा सकी। 1900-1947 के दौरान विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं स्वयंसेवी संगठनों ने विकलांग बच्चों के लिए पुनर्वास सेवा शुरू की। वर्ष 1908 में अहमदाबाद में ‘स्कूल फॉर द डेफ-म्यूट’, 1915 में नागपुर में ‘भोंसले डेफ एंड डम्ब स्कूल’, 1909 में बड़ौदा में मुख विद्यालय, 1913 में बड़ौदा के मेहसाना में ‘स्कूल फॉर द डेफ एंड ब्लाइंड’ और 1931 में दिल्ली में गवर्नमेंट लेडी न्वाईस स्कूल फॉर द डेफ खुली। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के कारण बधिर बच्चों की शिक्षा में थोड़ी बाधा आयी लेकिन 1947 तक भारत में बधिर स्कूलों की संख्या बढ़कर 38 हो गई।
आजादी के बाद केन्द्र और राज्य सरकारों ने बधिर शिक्षा की ओर अपना ध्यान देना रू किया। संविधान के अनुच्छेद 45 के तहत मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों के अधिकार ने बधिर बच्चों की शिक्षा को भी बल प्रदान किया। शुरू कालांतर में राज्य सरकार एवं नगरपालिकाओं द्वारा बधिर बच्चों के लिए विशेष विद्यालयों की स्थापना की जाने लगी। वर्ष 1947 में लखनऊ में एक ‘शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय’ खोली गई। वह किसी भी राज्य सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा मान्यता प्राप्त देश का पहला प्रशिक्षण केन्द्र था। वर्ष 1960 में कल्याण मंत्रालय ने श्रवणबाधितों के लिए एक अलग सेल खोला और श्रवणबाधितों के कल्याण के लिए एक विशेष पदाधिकारी नियुक्त किया। इसके बाद कल्याण मंत्रालय ने ग्रांट इन एड जारी करने के अलावा श्रवणबाधितों के लिए विभिन्न पाठ्यक्रमों में नामांकन हेतु सीटों का आरक्षण, श्रवण यंत्रों की आपूर्ति से लेकर विशेष विद्यालयों की स्थापना करने की अनुशंसा की। इसी परिप्रेक्ष्य में 9 अगस्त, 1965 को मैसूर में ‘ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ स्पीच एंड हियरिंग’ की स्थापना की गयी इस ने आउडियोलॉजी और स्पीच थेरॉपी के क्षेत्र में कई पाठ्यक्रमों की शुरूआत की कालांतर में श्रम मंत्रालय के अधीन देश भर में कई पुनर्वास केंद्र और रोजगार कार्यालय खोले गए। 1981 में देशभर में अंतर्राष्ट्रीय विकलांगता वर्ष मनाया गया इस वर्ष के अंत तक देश भर में श्रवणबाधित संस्थानों की संख्या 100 से बढ़कर 350 हो गई।
1983 में अली यावर जंग राष्ट्रीय श्रवण विकलांग संस्थान की स्थापना के बाद इसके मुम्बई स्थित मुख्यालय एवं नई दिल्ली, हैदराबाद और कलकत्ता के अलावा भुवनेश्वर स्थि क्षेत्रीय केन्द्र में श्रवण बाधितों के शिक्षण प्रशिक्षण की शुरूआत की गई। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन शुरू किया गया यह संस्थान श्रवणबाधिता क्षेत्र के शिक्षण-प्रशिक्षण का सर्वोच्च संस्थान है जिसमें मानव शक्ति विकास, शोध, प्रशिक्षण आदि बखूबी किया जाता है।
बधिरों के अधिकांश विशेष विद्यालयों में केवल प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा दी जाती है। दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई और मद्रास जैसे महानगर स्थित कुछेक विशिष्ट विद्यालयों में दसवीं कक्षा तक की शिक्षा सुविधा उपलब्ध है। वहीं चेन्नई के दो विद्यालयों में इंटरमीडिएट तक की शिक्षा व्यवस्था है।
इन विशेष विद्यालयों में कोई मानक पाठ्यक्रम नहीं है। प्रत्येक विद्यालय का अपना अलग पाठ्यक्रम है जहाँ मौखिक – श्रवण विधि का प्रयोग किया जाता है। प्री-स्कूल पाठ्यक्रम में भी भिन्नताएँ हैं। व्यावसायिक पाठ्यक्रम में प्रायः पारम्परिक प्रशिक्षण दिए जाते हैं। वर्ष 1974 में भारत सरकार ने विकलांग बच्चों के लिए समेकित शिक्षा शुरू की जिसमें सामान्य बच्चों के साथ बधिर बच्चों को भी सामान्य विद्यालयों में शिक्षा देने की बात की गई। सैद्धांतिक रूप से यह योजना अच्छी थी लेकिन प्रायोगिक रूप से इसे धरातल पर लाने। मैं कठिनाई हुई।
अध्यापक शिक्षक कार्यक्रम-बधिर बच्चों के शिक्षण के लिए अध्यापक प्रशिक्षण कार्य 1986 में शुरू हुआ। देश का पहला अध्यापक प्रशिक्षण महाविद्यालय 1986 में ही कलकत्ता में स्थापित किया गया। कालांतर में ऐसे ही प्रशिक्षण केन्द्र लखनऊ, अहमदाबाद, मद्रास, नई दिल्ली, हैदराबाद और बम्बई में खोले गए। अली यावर जंग राष्ट्रीय श्रवण विकलांग संस्थान (1983) की स्थापना के बाद भी अध्यापक प्रशिक्षण केन्द्रों के स्थापित होने रहने का सिलसिला जारी रहा। वर्तमान समय में देश में 30 से भी अधिक ऐसे प्रशिक्षण केन्द्र कार्यरत । ये प्रशिक्षण संस्थान और डिग्री प्रदान करते हैं। इन संस्थानों से हर वर्ष करीब 500 शिक्षक प्रशिक्षण की डिग्री हासिल करते हैं ।
बधिरों के लिए विश्वविद्यालयों शिक्षा (University Education for HI)- श्रवण अक्षम व्यक्तियों को विश्वविद्यालीय शिक्षा सुलभ कराने के लिए वर्ष 1993 में मद्रास में ‘संत लुईस कॉलेज फॉर डेफ’ शुरू किया गया यह मद्रास विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। इस महाविद्यालय में कला और वाणिज्य विषयों के पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध है।
2. समेकित शिक्षा कार्यक्रम ( Integrated Education Programme)- न्यून श्रवण अक्षमताग्रस्त बच्चों को समेकित विद्यालयों के जरिए पठन-पाठन की सुविधा मुहैया कराया जा सकता है। समेकित शिक्षा व्यवस्था में श्रव्य बाधाग्रस्त बच्चों को शाि करने के लिए निम्नलिखित दिशा-निर्देशों पर ध्यान दिया जाना जरूरी होता है:
(i) अध्यापक द्वारा किसी ऐसे बच्चे की निःशक्तता का मजाक न उड़ाया जाए, न ही उसकी कमियों के लिए उसे ताने दें। इसके अतिरिक्त जिन छात्रों द्वारा अनुचित व्यवहार किया जाए उन्हें भी ऐसा करने से रोका जाए। यदि दूसरे बच्चे ऐसे बच्चों की कमजोरी को समझ लेंगे तो उन्हें आपसी तालमेल बढ़ाने में सहायता मिलेगी।
(ii) ऐसे बच्चों को नियमित रूप से श्रवण यंत्र के उपयोग के लिए प्रेरित करें, तथा यंत्र कार्य कर रहा है यह सुनिश्चित करें।
(iii) अध्यापक माता-पिता को समझाएँ कि उनको बच्चा विशेष आवश्यकताओं वाला है, उस पर अधिक ध्यान दें साथ ही न तो अधिक संरक्षण दें, न ही उसके प्रति उदासीन रवैया अपनाएँ।
(iv) अध्यापक ऐसे बच्चों के शिक्षण में लिखित या मौखिक कौशल को बहुत अधिक महत्व न दें।
(v) गम्भीर श्रव्य बाधाग्रस्त छात्रों के लिए विशुद्ध बातचीत कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
(vi) किसी कठिन शिक्षण शीर्षक को स्पष्ट करने के लिए उसे छोटी इकाइयों में बाँट लें एवं अवधारणा को समझने के लिए उदाहरण देकर भी उसे पढ़ा सकते हैं।
(vii) ऐसे बच्चों को गृहकार्य करने में माता-पिता, अभिभावक इत्यादि सहयोग प्रदान करें।
(viii) ऐसे बच्चों में भाषा की कमी को देखते हुए, इन्हें निबंधात्मक प्रश्न न देकर शब्द आधारित प्रश्न अधिक मात्रा में दें।
(ix) जिन छात्रों के लिए मौखिक एवं हस्तलेख कार्यक्रम पर्याप्त न ही उनके लिए, मौखिक एवं हस्तलेख कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
(x) कक्षा में कहानियों तथा प्रत्यक्ष क्रिया विधि जैसे फलों की चाट बनाना, सब्जियों की सलाद बनाना, कागज की नाव बनाना आदि उनकी भाषा को बढाने में सहायता प्रदान करें।
(xi) इन बच्चों को शादी, जन्मदिन, उत्सवों, समारोह, पार्क, प्रार्थना स्थल, संग्रहालय, बाजार, पिकनिक आदि में ले जाना चाहिए तथा इनसे वार्तालाप करनी चाहिए।
(XII) उच्चारण दोष या वाणी दोष वाले बच्चों में कवितापाठ या सस्वर वाचन न करवाए जाएँ। इसके अंक लिखित कार्य में विभाजित कर दें।
(xiii) ऐसे बच्चों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण, व्यवसायोन्मुखी हों तथा बधिरताग्रस्त बच्चों की क्षमताओं और योग्यताओं के अनुरूप पहले से आरम्भ ड्राइंग, पेंटिंग, सिलाई कार्य, कसौदाकारी, जिल्दसाजी आदि जैसे थोड़े से व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम से बिल्कुल विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए। इन बहुविध व्यवसायों में मैटल कर्म, प्रिंटिंग, टर्निंग, फिटिंग, बेल्डिंग, बिजली का कार्य, बढ़ई गिरी, आदि जैसे औद्योगिक कार्य भी शामिल किए जाने चाहिए।
(xiv) यदि पढ़ाते समय अध्यापक की पीठ खिड़की की तरफ हो तो कक्षा में बात न करें, क्योंकि बाहर के प्रकाश से चेहरे पर अंधेरा हो जाता है, जिसके कारण वाणी वाचन (ओष्ठ पठन) प्रभावित होता है।
(xv) ऐसे बच्चों को कक्षा की अगली पंक्ति में बैठाएँ तथा समझाएँ, पढ़ाने के समय व ओष्ठ संचालन का ध्यानपूर्वक अवलोकन करें, तथा ओष्ठ पठन सीखें।
(xvi) बच्चे से बात करते समय अपने चेहरे को इधर-उधर न घुमाएँ, न ही किसी पुस्तक से ढकें।
(xvii) ऐसे बच्चों के जोड़ीदार सहायक बच्चे बनाएँ, जिन्हें बुलाकर श्रव्य बाधाग्रस्त बच्चों को उनकी क्षमता वाले कार्य करने में सहायता देने हेतु प्रेरित करें। इस तरीके से सभी बच्चे यह सीख सकेंगे कि उन सभी में कुछ क्षमताएँ तथा दुर्बलताएँ मौजूद हैं।
(xviii) कक्षा में उपलब्ध सामग्री जैसे मेज, कुर्सी, श्यामपट्ट, डस्टर, छत, दीवार, पंखा, अलमारी, दरवाजा, स्विच बोर्ड आदि पर शब्द कर चिपका दें।
(xix) कक्षा में सामान्य बच्चों की तरह इन्हें भी पाठ का सस्वर पठन कराया जाए, ताकि दूसरों के सामने इनकी झिझक खत्म हो सके।
(xx) ऐसे बच्चों को पूरे वाक्य अपनी बात में बोलते हुए पूरे करने देने चाहिए।
समावेशी शिक्षा Education Programme) – समावेशी शिक्षा कार्यक्रम के तहत श्रवणबाधित बच्चों का शैक्षिक समावेशन भी शामिल है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत श्रवणबाधित बच्चों को मुख्यधारा के स्कूलों में सामान्य बच्चों के साथ सामान्य वर्ग कक्ष में पढ़ने-लिखने का मौका मिलता है। इसके लिए स्कूली वातावरण को भी बाधामुक्त होना जरूरी होता है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत ऐसे बच्चों के समावेशन के लिए उन्हें सलाना 1200 रु. की प्रोत्साहन राशि दिए जाने का भी प्रावधान है ताकि सभी श्रवणबाधित बच्चे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके।
4. गृह-आधारित कार्यक्रम (Home Based Programme) – श्रवणबाधित बच्चों को यह गृह आधारित कार्यक्रम सुविधा शुरूआती दौर में ही मुहैया करवाया जाता है। यह बच्चे श्रवण अक्षमता की मात्रा, बौद्धिक विकास का स्तर और अभिभावक की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है इसके अंतर्गत पीड़ित बच्चों के सुधार के लिए उत्साहित वातावरण तैयार किया जाता है और उन्हें स्कूल जाने के लिए मानसिक तौर पर तैयार किया जाता है।
5. व्यावसायिक स्थापना (Vocational Placement) – श्रवण अक्षमताग्रस्त बच्चों के बुद्धिस्तर, रुचि, अभिरुचि, सामाजिक परिपक्वता, समायोजन एवं संप्रेषण कौशल की जाँच के बाद आवश्यकतानुसार उनका व्यावसायिक स्थापना किया जाता है। व्यावसायिक परामर्शदाता ऐसे बच्चों के व्यावसायिक स्थापना में सहायता पहुँचाता है। ऐसे बच्चों को आवासीय कार्यशालाओं आदि में नियोजित किया जा सकता है।
संपूर्ण भाषा-संप्रेषण (Total Communication) – टोटल कम्युनिकेशन संप्रेषण का वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों, भावों, संवेगों, धारणाओं, चिंताओं का आदान-प्रदान संप्रेषण के सभी माध्यमों को साथ सम्मिलित करके भाषा का आदान-प्रदान करते हैं। इस सिद्धांत में यह देखा जाता है कि किस समय किस माध्यम को प्रयोग में लाया जाए ताकि भाषा के संप्रेषण सरल हो जाए।
अलेक्जेन्डर ग्राहम बेल और एस. उयाई माईनर गेल्टेड ने एक साथ टोटल कम्युनिकेशन सिद्धांत को जनप्रिय बनाते हुए 1950 से समस्त भारत में इस सिद्धांत को प्रचलित किया। इसमें प्राथमिक स्तर के बच्चों के शिक्षण हेतु मौखिक सिद्धांत प्रचलित हुआ तथा बाद में चलकर टोटल कम्युनिकेशन को व्यवहार में लाते हुए भाषा-बोली एवं गणित का शिक्षण देना प्रारंभ किया। टोटल कम्युनिकेशन के माध्यम से बधिर बच्चे के शिक्षण एवं प्रशिक्षण में काफी सहायता प्रदान करता है।
टोटल कमुनिकेशन में श्रवण शक्ति, लीप रिडिंग, फिंगर स्पेलिंग, क्यूड स्पीच, साईन लैंगुएज, बॉडी मूवमेंट, चेहरे का हाव-भाव आदि सभी को एक साथ मिलाकर भाषा को संप्रेषण हेतु प्रयोग में लाया जाने लगा।
यह सिद्धांत बधिर बच्चों के शिक्षण एवं प्रशिक्षण हेतु काफी सरल और सहज तरीका है। बधिर बच्चे को इस मेथड से पढ़ाने पर उनके भाषा का विकास अच्छा होता है।
संकेत भाषा (Sign Language)- बधिर बच्चे को संकेत भाषा के जरिए शिक्षण दिए जाने की प्रक्रिया है। इसके अंतर्गत हाथ, बाँह और ऊँगलियों की विभिन्न दिशाओं में गतिशीलता के जरिए किसी शब्दों या वाक्य खंडों या उक्तियों के बारे में शिक्षण-अधिगम कराया जाता है। इसके लिए अमेरिकी संकेत भाषा तंत्र का उपयोग किया जाता है।
संपूर्ण भाषा संप्रेषण के अंतर्गत अमेरिकी संकेत भाषा तंत्र के अलावा ‘संकेत आंग्ल तंत्र का उपयोग होने लगा। इसके तहत ऊँगलियों की गतिशीलता के जरिए अंग्रेजी वर्णमाला का ज्ञान कराया जाता है। इस सिस्टम का विकास शिक्षण के जरिये बधिर बच्चों में भाषा संप्रेषण क्षमता विकसित करने के लिए किया गया था। फिंगर स्पेलिंग विधि में हाथ की अंगुलियों द्वारा वर्ण (स्वरं और व्यंजन) को भिन्न-भिन्न प्रकारों से इशारा और जगह परिवर्तन करके प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न वर्गों की हाथ और अँगुलियों के भिन्न-भिन्न प्रकारों से शब्दों या वर्णों के संप्रेषण द्वारा भाषा का आदान-प्रदान किया जाता है।
स्पीच रीडिंग (Speech Reading) – यह सामान्य सम्प्रेषण की एक प्रक्रिया है । इसके अंतर्गत मुँह के द्वारा बोले गए शब्दों को ओठ को देखकर संप्रेषण किया जाता है । यह सिद्धांत बधिर बच्चों के शिक्षण-प्रशिक्षण में काफी सहायता प्रदान करता है। इसमें शिक्षक बोलते वक्त अपने हाथों के इशारे से बधिर बच्चों को समझाने की कोशिश करते हैं। बधिर बच्चों को ओठ-पाठन भाषा समझने में सहायता पहुँचता है। जो शब्द अथवा वाक्य वे नहीं समझ पाते हैं उसके लिए वे हाथ के इशारों का प्रयोग करते हैं यानी बोले गए शब्दों के साथ-साथ इशारा से भाषा संप्रेषण करना सरल हो जाता है। इससे बधिर आसानी पूर्वक समझ जाते हैं।
श्रवण प्रशिक्षण (Auditory Training)- चूँकि श्रवणबाधित व्यक्तियों में श्रवण क्षमता ह्रास का स्तर और मात्राएँ अलग-अलग होती हैं। इसलिए उनकी संप्रेषण क्षमताएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। इसलिए ऐसे व्यक्तियों को श्रवण प्रशिक्षण दिए जाने की आवश्यकता होती है।
यह श्रवण प्रशिक्षण की मौखिक विधि है। बच्चों में ध्वनि के प्रति जागरूकता का विकास, वातावरणीय ध्वनियों एवं वाक्ध्वनियों के बीच अंतर स्पष्ट करने की क्षमता का विकास करना इस तकनीक का मुख्य उद्देश्य है। इसके अंतर्गत सर्वप्रथम बच्चों को वातावरण में मौजूद विभिन्न प्रकार की ध्वनियों से रू-ब-रू कराया जाता है। इसके लिए श्रवण अक्षमताग्रस्त बच्चों की शुरूआती दौर में ही श्रवण यंत्रों का उपयोग करने की सलाह दी जाती है।
मौखिक-श्रवण प्रशिक्षण (Oral-aural training)- कान के द्वारा सुनकर और मुँह के द्वारा बोलकर जिन भाषाओं का आदान-प्रदान किया जाता है उसे मौखिक-श्रवण विधि कहा जाता है। उदाहरणार्थ, जब शिक्षक कक्षा में बच्चों को पढ़ाते हैं तो वह शिक्षक द्वारा बोले गए शब्दों को सुनता और देखता है। टेलीविजन पर प्रसार करने वाले व्यक्ति को भी बच्चा देखता है और उसकी आवाज को सुनता है। उसके द्वारा बोले गए शब्दों को समझकर वह भाषा का संप्रेषण सीखता है।
कम्प्यूटर आधारित अनुदेश (Computer Assisted Instruction)- कई विशेषज्ञ के मुताबिक श्रवणबाधित बच्चों को अनुदेश देने के लिए माइक्रो कम्प्यूटर एक अच्छा माध्यम है। प्रिंज और नेल्सन (1985) ने बधिर बच्चों के लिए पठन-पाठन, लेखन एवं संकेत भाषा आदि का विकास किया। इसके तहत पीड़ित बच्चों को शब्दों और वाक्यों को एक अनुक्रम में टाईप करना होता है। इसी क्रम में कम्प्यूटर स्क्रीन पर तस्वीर के साथ सभी शब्द और वाक्य दिखने लगते हैं।
टेलीविजन कैप्शनिंग और टेलेटेक्स्ट (TV Captioning & Telectext)- टेलीविजन प्रसारण के जरिए बधिर बच्चों के शिक्षण अधिगम के लिए बनाए गए विडियो कार्यक्रमों में टी.वी. कैप्शनिंग का उपयोग किया जाता है। इसके तहत टेलीविजन पर शैक्षिक प्रोग्राम के प्रसारण के दौरान स्क्रीन के नीचे दृश्य संबंधी कैप्शन भी दृष्टिगोचर होता है जिसे पढ़कर बधिर बच्चे शिक्षण अधिगम करते हैं। टेलेटेक्स्ट के जरिए भी बधिर बच्चों को लाभ मिलता है।
श्रवण यंत्र (Hearing Aids)- श्रवण बाधित बच्चों के पुनर्वास के लिए श्रवण यंत्रों का उपयोग किया जाता है यह एक ऐसा यंत्र है जो व्यक्ति के श्रवण क्षमता को बढ़ाता है। यह यंत्र हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है उदाहरणार्थ, पॉकेट श्रवण यंत्र, कर्ण स्तरीय श्रवण यंत्र और सूक्ष्म श्रवण यंत्र । सभी श्रवण यंत्रों का प्रयोग व्यक्तिगत तौर पर किया जाता है। लेकिन कुछ ऐसे भी श्रवण यंत्र हैं जिसका सामूहिक उपयोग किया जाता है, जैसे- एम्प्लीफायर।
संसाधन शिक्षकों की भूमिका (Role of Resource Teacher) – चूँकि मुख्यधारा के विद्यालयों के शिक्षक श्रवणबाधित बच्चों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं इसलिए संसाधन शिक्षकों की आवश्यकता महसूस गई और अमूमन प्रत्येक स्कूल के लिए ऐसे शिक्षक की व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है। संसाधन शिक्षक श्रवणबाधित बच्चों के पठन-पाठन के लिए प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति होते हैं जिनके पास विशिष्ट शिक्षा (श्रवण अक्षमता) में बी. एड. की डिग्री होती है। ये श्रवणबाधित बच्चों के साथ-साथ स्कूल के सामान्य शिक्षकों को ऐसे बच्चों प्रति संवेदनशीलता पैदा करते हैं समावेशी शिक्षा अंतर्गत इन संसाधन शिक्षकों की महत्ता अब और बढ़ गई है।
सामान्य शिक्षकों की भूमिका (Role of Regular Teacher)- मुख्यधारा के स्कूलों के श्रवणबाधित बच्चों के वर्ग प्रबंधन में सामान्य शिक्षकों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है। शिक्षकों को श्रवणबाधित बच्चों की पहचान कर उनका निम्नलिखित तरीके से उचित वर्ण प्रबंधन करना होता है।
(i) बच्चों को अगली पंक्ति में बैठाना।
(ii) कोलाहल से दूर बैठाना।
(iii) बाहर से आनेवाली आवाजों एवं शोर को कम करने का प्रयास करना।
(iv) शब्दों का उच्चारण जोर से एवं स्पष्ट रूप से करना।
(v) यथासंभव बच्चे की ओर मुखकर पढ़ाना।
(vi) वर्ग कक्ष में धीरे-धीरे बोलना।
(vii) निर्देशों को श्यामपट्ट पर लिखना।