B.Ed./M.Ed.

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 (NCF 2005 in Hindi)

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा 2005 (National Curriculum Frame Work 2005)

वर्तमान शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम शिक्षकों को एक ऐसी व्यवस्था को समायोजित करने के लिए प्रशिक्षण देता है जिसमें शिक्षा के बारे में यह समझा जाता है कि उसमें केवल सूचनाओं का प्रसार होता। नब्बे की दशक की मुख्य कोशिशों का ध्यान शिक्षकों को सेवाकाल के दौरान प्रशिक्षण देने पर केन्द्रित था। शिक्षक प्रशिक्षण के अनुभवों से पता चलता है कि उसमें ज्ञान को ‘प्रदत्त’ की तरह बिना सवाल उठाए पाठ्यचर्या में बाँध दिया जाता है पाठ्यचर्या पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का न तो शिक्षक-विद्यार्थियों द्वारा परीक्षण किया जाता है न ही वहाँ के अन्य शिक्षकों द्वारा। शिक्षकों की भाषिक क्षमता को भी बढ़ाए जाने की आवश्यकता है।

NCF पाठ्यचर्या की रूपरेखा

2005 के अनुसार शिक्षक को शिक्षा की स्कूली व्यवस्था की उभरती माँगों के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए। उसे शिक्षकों को इसके लिए तैयार करना चाहिए कि वे निम्नलिखित रूप में अपनी भूमिका निभाएँ-

(i) उन्हें उत्साहवर्धक, सहयोगी व मानवीय होना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपनी सम्भावनाओं का पूर्ण विकास कर जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपनी भूमिका निभाएँ और ऐसे व्यक्तियों के समूह का सक्रिय सदस्य बनें जो लगातार सामाजिक और विद्यार्थियों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सजगता में पाठ्यचर्या सुधार में रत हो।

इसे साकार रूप देने हेतु शिक्षक प्रशिक्षण में ऐसे तत्व समाहित हों जो विद्यार्थी शिक्षक को निम्न दिशाओं में सक्षम बनाए-

(i) सीखना किस प्रकार होता है इसकी समझ इसमें हो और वह उसके लिए अनुकूल माहौल बनाए।

(ii) ज्ञान को व्यक्तिगत अनुभव के रूप में समझें जो सीखने सिखाने के साझे अनुभव के रूप में प्राप्त किया जाता है न कि पाठ्यपुस्तकों के बाह्य यथार्थ के रूप में।

(iii) भाषा की गहरी समझ व दक्षता हासिल करें।

(iv) एक शिक्षक के रूप में पेशवर उन्मुखीकरण का प्रयास करें।

(v) मूल्यांकन को सतत शैक्षिक प्रक्रिया मानें।

(vi) कला शिक्षा के माध्यम में विद्यार्थियों में कला व सौन्दर्य बोध समझ का विकास करें।

(vii) वंचित बच्चों और विभिन्न आवश्यकताओं वाले बच्चे की आवश्यकताओं सहित सभी बच्चों की सीखने की आवश्यकताओं को समझ सकें।

(viii) परामर्श के कौशल और क्षमताओं का विकास कर सके ताकि बच्चों के शैक्षणिक व्यक्तिगत और सामाजिक स्थितियों का समाधान सुझाने में उसे सुविधा हो।

(ix) कार्य के द्वारा विभिन्न विषयों का ज्ञान विविध मूल्यों और विविध कौशलों के विकास के साथ किस प्रकार प्राप्त होता है, इसकी शिक्षा देना सीखे।

शिक्षक शिक्षा के कार्यक्रम में बदलाव के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु (Some Im portant Point in Change of Programme of Teacher Education)

आज शिक्षक की भूमिका में एक बड़ी तब्दीली आई है उसे अब तक ज्ञान के स्रोत के रूप में केन्द्रीय स्थान मिलता रहा है। वह सीखने सिखाने की समूची प्रक्रिया का संरक्षक प्रबंधक रहा है और पाठ्यचर्या या अन्य विभागीय आदेश के जरिए सम्पूर्ण शैक्षणिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को पूरा करने वाला रहा है। अब उसकी भूमिका ज्ञान के स्रोत के बदले एक सहायक की होगी जो सूचना को ज्ञान / बोध के बदलने की प्रक्रिया में विविध उपायों से शिक्षार्थियों को उनके शैक्षणिक लक्ष्यों की पूर्ति में मदद करें।

NCF 2005 के अनुसार शिक्षार्थी को भी शिक्षण प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार के रूप में देखना चाहिए न कि निष्क्रिय ग्रहणकर्त्ता के रूप में तथा ज्ञान को पूर्व निर्धारित न मानकर प्रत्यक्ष स्व-अनुभवों से निर्मित माना जाना चाहिए। पाठ्यचर्या इस प्रकार निर्मित की जाए कि शिक्षक को विद्यार्थियों को खेलते व काम करते हुए प्रत्यक्ष अवलोकन के अवसर मिलें तथा बच्चों में चिन्तन व अधिगम सम्बन्धी अन्तर्दृष्टि विकसित हो।

एक और महत्वपूर्ण बदलाव ज्ञान की अवधारणा में आया है। ज्ञान को एक सतत् प्रक्रिया माना जाने लगा है जो वास्तविक अनुभवों, अवलोकन, पुष्टिकरण आदि से उत्पन्न होता है। अतः शिक्षा की दृष्टि से सजग प्रयास किए जाएँ न कि सम्बन्धित अनुशासनों के सैद्धान्तिक विचारों का ‘शिक्षा के आशय के साथ उल्लेख मात्र किया जाय।

इस प्रकार के शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में सिद्धांत और व्यवहार को समन्वित रूप से देखने का मौका मिलेगा न कि उनको दो अलग-अलग पहलुओं के रूप में देखने का। एक और बड़ा बदलाव शैक्षिक ने प्रक्रियाओं पर सामाजिक सन्दर्भों के प्रभाव की समझ से सम्बन्धित है। विविध प्रकार के सन्दर्भों के कारण शिक्षण में विविधता लाने की जरूरत होती है। स्कूल की शिक्षा पर स्कूल के बाहर के व्यापक सामाजिक सन्दर्भों का प्रभाव होता है अतः शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में समकालीन भारतीय समाज के मुद्दों और चिंताओं, उसके बहुलतावादी स्वभाव और पहचान, लिंग, समता, जीविका और गरीबी के मुद्दों के लिए स्थान होना चाहिए। इससे शिक्षकों में शिक्षा को उसके सन्दर्भों में रखने उसके उद्देश्य और समाज के साथ उसके सम्बन्धों की समझ अधिक गहरी होगी।

शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में साल में एक बार मूल्यांकन के चलन की जगह उसे एक सतत प्रक्रियागत गतिविधि के रूप में पहचानने की आवश्यकता है। इससे शिक्षक-प्रशिक्षक, शिक्षक-विद्यार्थियों के बीच सहयोग, सहकार, पर्यवेक्षण, लिखित मौखिक क्षमता, दृष्टिकोण की प्रस्तुति आदि में मौलिकता को परख सकेंगे। इसके साथ ही यह मूल्यांकन ज्यादातर अंक आधारित संख्यात्मक न होकर एक पैमाने पर (गुणात्मक) किया जाय। इसमें विद्यार्थियों की उपलब्धियों के आकलन में निरंतरता होती है और विभिन्न गतिविधियों में उसके अपने प्रदर्शन के आधार पर उसे आंका जाता है।

सेवाकालीन शिक्षक-शिक्षा और प्रशिक्षण (In-Service Teacher Education and Training)

शिक्षक-प्रशिक्षण, शिक्षकों के पेशेवर विकास और स्कूली गतिविधियों के बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इससे शिक्षक व्यावहारिक कार्यों के माध्यम से अपने अनुभव को पक्का कर आत्मविश्वास अर्जित करते हैं तथा पेशेवर ढंग से कार्य करने और ज्ञान में नयापन लाने में भी सहायता मिलती है। शिक्षकों के प्रशिक्षण सम्बन्धी में सुझाव शिक्षा आयोग (1964-66) ने भी दिये थे। इसके अनुसार हर शिक्षक को हर पाँच साल में इस तरह के सेमिनार, कार्यशालाओं रिफ्रेशर कोर्स, ग्रीष्मकालीन इंस्टीट्यूट में 2-3 महीने बिताने चाहिए। शिक्षकों पर राष्ट्रीय आयोग (1983- 85) ने भी शिक्षक केन्द्रों का विचार सामने रखा जहाँ लोग इकट्ठे हो और अपने-अपने अनुभवों पर विचार विमर्श करें। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) ने सेवा- पूर्व और सेवाकालीन शिक्षक-शिक्षा को एक सतत् प्रक्रिया में जोड़ दिया । इसने हर जिले में शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान (DIET) की कल्पना की। 250 शिक्षा महाविद्यालयों का दर्जा बढ़ाकर उन्हें शिक्षक – शिक्षा महाविद्यालय (CTE) बना देने को कहा। आचार्य राममूर्ति समीक्षा समिति (1990) में भी संस्तुति की कि रिफ्रेशर कोर्स आदि शिक्षकों की विशेष आवश्यकताओं से जोड़ दिए जायें और मूल्यांकन और उसके बाद फॉलोअप की गतिविधियाँ भी इस योजना का हिस्सा बनें।

जिन स्थानों पर प्राथमिक विद्यालय तक पहुँच बनाने के ख्याल बहुश्रेणीय स्कूल स्थापित किए गए, वहाँ शिक्षकों को कक्षा प्रबंधन का विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। परंतु इसमें भी केवल यह बताने की बजाए कि क्या करता है; विस्तृत पाठयोजना अभ्यास के साथ प्रत्यक्ष व्यावहारिक अनुभवों के द्वारा यह दिखाने की जरूरत है कि किस प्रकार बहुस्तरीय स्कूलों में कामकाज होता है।

सेवारत शिक्षक-शिक्षा की पहले और रणनीतियाँ ( Priotities of In-Service Teacher Education And Strategies)

नई शिक्षा नीति (1986) के मद्देनजर प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के शिक्षकों की शिक्षा के लिए जिला में शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाइट), उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान (आई ए. एस. ई), शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय (CTE) आदि के गठन पर बल दिया गया। जिला प्राथमिक शिक्षा परियोजना (DPET) ने खण्ड और संकुल सन्दर्भ केन्द्र बनाए और सेवाकालीन शिक्षक-शिक्षा का प्रसार किया तथा संकुल स्तर के स्कूलों में शिक्षा तकनीक में महत्वपूर्ण बदलाव लाए गए। इतने प्रयासों का भी शिक्षक शिक्षण प्रक्रिया पर कुछ खास प्रभाव नजर नहीं आता है।

प्रशिक्षण की गुणवत्ता एक बड़ा मानक है। शिक्षक के लिए उसकी प्रासंगिकता। लेकिन इस तरह के ज्यादातर कार्यक्रम वास्तविक जरूरत को ध्यान में रखकर नहीं बनाये जाते।

अधिकांश कार्यक्रमों में भाषण-आधारित अधिक अपनाया जाता है। जिसमें प्रशिक्षुओं को भागीदारी करने का मौका नहीं मिलता। स्कूल अनुवर्तन (Followp) की शुरूआत भी नहीं हो सकी है और संकुल स्तर की बैठकें ऐसे पेशेवर मंचों के रूप में विकसित नहीं हो सकी हैं जो हाँ शिक्षक बैठें, चिन्तन करें और एक साथ योजना बनाएँ।

परीक्षा सुधार (Examination Reforms) – शिक्षा बिना बोझ के में कहा गया है कि दसवीं व बारहवीं के अन्त में होने वाली परीक्षा की इस दृष्टि से सभीक्षा की जानी चाहिए। कि अभी के पाठ आधारित और प्रश्नोत्तर प्रकार की परीक्षा की विधि को बदलकर ज्ञान व बोध आधारित किया जाना चाहिए।

वर्तमान परीक्षाओं को वैध बनाने हेतु प्रश्नपत्र बनाने की प्रक्रिया में अत्यधिक बदलाव की जरूरत है । आज कम्प्यूटरीकरण के कारण अंक पत्र पर विस्तृत प्रदर्शन मानकों को दर्शाना भी सम्भव हो गया है-

पूर्णांक / श्रेणी, विषय विशेष के सभी परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों के बीच प्रतिशतांक श्रेणीबद्ध तरीके से दिये जा सकते हैं। सत्र के मध्य में स्कूल आधारित आंकलनों की ओर बढ़ना चाहिए। अतः ऐसे उपाय खोजे जायें जिसमें इस तरह के आन्तरिक आंकलन विश्वसनीय बन सकें | प्रत्येक स्कूल को इसके लिए एक लचीला और लागू होने योग्य मूल्यांकन प्रक्रिया की सतत और व्यापक योजना लागू करनी चाहिए ।

कार्य केन्द्रित शिक्षा (Work Centered Education) – कार्य केन्द्रित शिक्षा का निहितार्थ है कि बच्चों में उनके परिवेश, प्राकृतिक संसाधनों तथा जीविका से सम्बन्धित ज्ञान-आधारों, सामाजिक अंतर्दृष्टियों तथा कौशलों को विद्यालयी व्यवस्था में उनकी गरिमा और मजबूती के स्रोतों में बदला जा सकता है। इस अर्थ में आनुभाविक आधार को विभिन्न प्रकार के कार्यों, जिसमें सामाजिक जुड़ाव भी कार्य आते हैं, द्वारा आगे भी विकसित किया जा सकता है। स्कूली पाठ्यचर्या में उत्पादक कार्य को एक शिक्षाशास्त्रीय माध्यम की तरह जगह देने से शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं में दार्शनिक पाठ्यचर्यात्मक, संरचनागत और संगठनिक रूप में काफी परिवर्तन आ सकता है। इस प्रकार कार्य केन्द्रित शिक्षा किन्हीं विशिष्ट पहलुओं का पुनर्संगठन एवं पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर जोर देती है।

व्यावसायिक शिक्षा व प्रशिक्षण (Vocational Education and Training)- वर्तमान में व्यावसायकि शिक्षा केवल 12वीं स्तर पर दी जाती है और उसमें भी वह एक विशिष्ट धारा है जिसे आकादमिक धारा के समान्तर रखा जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति -1986 में सन् 2000 तक रखे गए लक्ष्य की बारहवीं के 25% बच्चे व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत आ जाये कि विपरीत अभी तक 5% से भी कम बच्चे इस परिधि में है। कार्य पर आधारित शिक्षा को स्कूली पाठ्यचर्या का समाकलित अंग बना देने से यह आशा की जा सकती है। कि व्यावसायिक शिक्षा की अवधारणाओं पर फिर विचार कर उसकी पुनर्रचना होगी ताकि वह वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का सामना कर सके।

इनके अतिरिक्त और भी कुछ बदलाव जो NCF 2005 की नीतियों के अन्तर्गत दिए गए हैं वे निम्नलिखित हैं-

(i) अध्यापन व अध्ययन सम्बन्धी हमारी समझ का अभिमुखीकरण।

(ii) विद्यार्थियों के विकास एवं अधिगम के सम्बन्ध में सर्वांगीण दृष्टिकोण।

(iii) कक्षा में सभी विद्यार्थियों के लिए समावेशी वातावरण तैयार करना।

(iv) सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ पर विवेचनात्मक परिप्रेक्ष्य को विकसित करने वाली प्रक्रियाओं को पाठ्यचर्या में स्थान देने की आवश्यकता।

(v) सभी बच्चों के लिए संविधान में उल्लिखित मूल्यों जैसे- सामाजिक न्याय, समता व धर्म निरपेक्षता पर आधारित पाठ्यचर्या के आधार पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना।

(vi) भारतीय समाज के बहुभाषात्मक प्रकृति को स्कूली जीवन की समृद्धि के लिए संसाधन के रूप देखना।

(vii) प्रमुख राष्ट्रीय चिन्ताओं, जैसे-लैंगिक मानव अधिकार और हाशिए के समूहों तथा अल्पसंख्यकों के प्रति संवेदनशीलता को विकसित किए जाने के लिए अंतः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

(viii) शान्ति शिक्षा को स्कूली शिक्षा का आवश्यक अंग बनाना।

इसी भी पढ़ें…

About the author

shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment