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राममूर्ति समिति 1990
सन् 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारत सरकार द्वारा निधार्रित की गयी थी। शिक्षा नीति में इस बात पर विशेष जोर दिया था कि ‘संघर्षपूर्ण और रचात्मक इन दो भूमिकाओं के लिए शिक्षा को एक सशक्त बनाया जाय।
समिति का गठन
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की समीक्षा के लिए 7 मई 1990 ई०. को श्री राममूर्ति की अध्यक्षता में केन्द्र सरकार ने एक समिति का गठन किया। समिति ने अपनी समीक्षा रिपोर्ट 26 दिसम्बर, 1990 ई० को सरकार के सामने प्रस्तुत की। जिन कारणों से इस समिति का गठन किया गया था उसका सरकार ने स्वयं संकल्प किया है।
आचार्य राममूर्ति रिपोर्ट की प्रस्तावना में कहा गया है कि शैक्षिक समस्याएँ नयी नहीं है। 1986 ई० के पश्चात् चार वर्षों में स्थिति और खराब हुई है। असन्तोष, संस्कृतिक मूल्यों का क्षरण, सामाजिक विघटन और युवकों में विद्रोह की भावना भड़की है। हिंसा जीवन का अंग बन गयी है। अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी पतन की स्थिति रोकने में हमारे प्रयास सफल नहीं रहें हैं। देश के अनेक संकट है, राष्ट्र के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। धार्मिक और शैक्षिक संकट भी इनमें सम्मिलित हैं। अतः प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा वह भूमिका क्यों नहीं निभा सकी जो स्वतन्त्रता के उपरान्त नियुक्त विभिन्न आयोगों एवं समितियों द्वारा उसे सौंपे गये थे।
राममूर्ति समिति की रिपोर्ट का आशय
(i) शिक्षा की असफलता का एक आधारभूत कारण यह रहा है, यद्यपि हम मौलिक विरोध करते रहे हैं फिर भी हमारी शिक्षा पर वे मान्यताएँ, लक्ष्य एवं मूल्य लागू होते हैं जो ब्रिटिश राज्य में थे। अंग्रेजों ने जनसामान्य को शिक्षा से दूर रखा और शिक्षा को जीवन से, लेकिन अंग्रेजों के जाने के पश्चात् भी शिक्षा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। आज भी हमारी शिक्षा के प्रमुख हितभागी उच्च एवं मध्यवर्गीय लोग हैं। इस प्रकार शिक्षा समाजवादी परिवर्तन लाने में सहायक न होकर बाधक रही है और देश मैकालेवादी शिक्षा-व्यवस्था से आज भी बँधा हुआ है।
(ii) दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह है कि हमारी शिक्षा सदैव विशिष्ट विषय विशेषज्ञों की पहल एवं निर्णय पर निर्भर रही है। इसका नियन्त्रण और मार्गदर्शन वे लोग करते रहे हैं जो जन साधारण से अलग-थलग होते हैं। सरकार की नीतियों, जैसे-शिक्षा कृषि, उद्योग, वन एवं जल विषयक नीति यहाँ तक कि अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए निर्धारित नीतियों में कोई पारस्परिक तालमेल नहीं दिखायी देता है। इसका केवल एक विकल्प रह जाता है कि शिक्षा की गुणवत्ता या औचित्य पर विचार किये बगैर इसका विस्तार होता रहा है। यह बात भी सही है कि इस स्थिति के लिए केवल शिक्षा ही उत्तरदायी नहीं है।
(iii) स्वतन्त्रता के उपरान्त हमने आर्थिक विकास के लिए ऐसे मॉडल का अनुसरण किया है जिसके फलस्वरूप दो प्रकार के भारत बने-एक, धनी लोगों का भारत, दूसरा, निर्धन लोगों का भारत। देश में एक ऐसे सुविधा प्राप्त वर्ग का उदय हुआ जिसका राजनीतिक तथा आर्थिक शक्ति तथा धन के स्त्रोतों पर एकाधिकारी है। संस्कृति तथा शिक्षा पर इसी वर्ग का नियन्त्रण है। यह वर्ग सुदृढ़ रूप से स्थापित है। यही वर्ग है कि जिसके हितों की पूर्ति हमारी शिक्षा को करनी पड़ती है। परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था की भाँति दो समानान्तर प्रणालियाँ चालू हो गयी हैं। एक धनी लोगों के लिए और दूसरी निर्धन लोगों के लिए। इस प्रकार विभाजित शिक्षा पूर्णतः प्रोत्साहनरहित होती है और वह स्वतन्त्र भारत में राष्ट्रीय जीवन की भी चुनौतियों का सामना नहीं कर सकती है।
(iv) रिपोर्ट में कहा गया है कि समय की माँग यह है कि ऐसी नवीन शिक्षा के लिए जन आन्दोलन प्रारम्भ किया जाय जो इन गिने-चुने लोगों के लिए नहीं बल्कि सर्वसाधारण के लिए हो । जब तक जनमत का दबाव निरन्तर नहीं डाला जाता और लोगों के द्वारा शान्तिपूर्ण कार्यवाही नहीं की जाती तब तक वर्तमान प्रचलित शिक्षा प्रणाली को समाप्त किये जाने की सम्भवना नहीं है।
राममूर्ति समिति की सिफारिशें
समिति ने सार्वजनिक स्कूल प्रणाली का विकास करने का सुझाव दिया है। इस सम्बन्ध में निम्नांकित बातें कही गयी है-
(i) प्राथमिक शिक्षा के लिए पर्याप्त व अधिक धन की व्यवस्था, इससे अपेक्षित आधारभूत संरचना और शैक्षिक स्तर सुधारने के लिए सहायता मिलेगी। इस प्रकार राजकीय, स्थानीय निकाय और सहायता प्राप्त स्कूलों को सच्चे अर्थों में पड़ोसी स्कूलों का रूप दिया जा सकेगा।
(ii) पिछड़े क्षेत्रों, शहरी मिलन बस्तियों, आदिवासी क्षेत्रों तथा दलदली क्षेत्रों, सूखा एवं बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों, तटीय इलाकों एवं द्वीप समूहों में स्कूली तन्त्र में सुधार करने के लिए विशेष धन में आबण्टित करने का प्रावधान।
(iii) प्राथमिक स्तर पर सभी व्यक्तियों के लिए मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने की व्यवस्था सुनिश्चित करना। माध्यमिक स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षण को प्रोत्साहित करना तथा अन्य माध्यम से शिक्षा देनेवाले स्कूलों की राजकीय आर्थिक सहायता समाप्त करना।
(iv) महँगे निजी स्कूलों को सार्वजनिक स्कूल प्रणाली में सम्मिलित करने की सम्भावनाओं की खोज करना। इसके लिए प्रोत्साहन देने, हतोत्साहित करने और कानून बनाने जैसे उपायों का इस्तेमाल करना ।
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