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शिक्षा के साधन के रूप में विद्यालय | School as a Medium of Education in Hindi

शिक्षा के साधन के रूप में विद्यालय
शिक्षा के साधन के रूप में विद्यालय

शिक्षा के साधन के रूप में विद्यालय (School as a Medium of Education)

शिक्षा के साधन के रूप में विद्यालय- समाज अथवा राज्य अपने उद्देश्य की प्राप्ति, औपचारिक अभिकरणों द्वारा करता है। इस अभिकरण के अर्न्तगत हम शिक्षा की व्यवस्था सुचारू रूप से करते हैं, शिक्षण उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं शिक्षण विधियाँ व पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार कर, शिक्षकों की देख-रेख एवं निर्देशन में शिक्षा प्राप्त करते हैं, ये अभिकरण पूर्व निर्धारित होते हैं और इनके अपने नियम व निर्धारित कार्यक्रम होते हैं। साथ ही साथ ये अभिकरण प्रत्यक्ष रूप से बालक के आचरण को रूपान्तरित करते हैं इसलिए ये ‘प्रत्यक्ष साधन’ भी कहलाते हैं। इस प्रकार शिक्षा के औपचारिक अभिकरण वे सामाजिक समूह अथवा संगठन है जिसका निर्माण समाज शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करता है, जैसे- शिक्षण संस्थाएँ (विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय) आदि।

प्राचीन काल में शिक्षा प्रदान करने के लिए विद्यालय जैसी कोई संस्था नहीं थी क्योंकि तब समाज के ज्ञान का भण्डार सीमित एवं सरल था जिसको नई पीढ़ी को सिखाने के लिए विशेष कौशल एवं विद्वता की आवश्यकता नहीं होती थी। उस समय यह कार्य परिवार तथा धर्म संस्थाओं के माध्यम से किया जाता था लेकिन धीरे-धीरे समाज के ज्ञान–भण्डार, सभ्यता एवं संस्कृति में वृद्धि एवं विकास होता रहा । औद्योगिक क्रान्ति एवं वैज्ञानिक प्रगति ने समाज के ज्ञान को जटिल, विविधतापूर्ण एवं विशिष्ट बना दिया अतः नयी पीढ़ी में इस नवीन ज्ञान का हस्तान्तरण परिवार के द्वारा सम्भव नहीं रहा इसलिए समाज ने अपने ज्ञान-विज्ञान को नवीन पीढ़ी में सफलतापूर्वक हस्तान्तरित करने के लिए विद्यालय नामक संस्था की स्थापना की। इस प्रकार विद्यालय समाज के द्वारा स्थापित शिक्षा का औपचारिक अभिकरण है।

मानव जीवन को उन्नतशील, सफल एवं सुखी बनाने के लिए समाज में विभिन्न संस्थाओं एवं समितियों का स्वतः तथा मानव प्रयास से सृजन किया जाता रहा है। इन विभिन्न समितियों एवं संस्थाओं में से विद्यालय का स्थान सर्वोपरि है। विद्यालय ही एक ऐसा स्थान है जहाँ व्यक्ति का सर्वागीण विकास होता है। वर्तमान समय में बालक की शिक्षा में विद्यालय का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। विद्यालय व्यक्ति के जीवन को तो उन्नतशील बनाता है साथ ही वह राष्ट्र के निर्माण में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है।

विद्यालय का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of School)

विभिन्न दृष्टियों से विद्यालय का अर्थ इस प्रकार है-

(1) पाश्चात्य दृष्टि से विद्यालय का अर्थ- पाश्चात्य दृष्टि से देखा जाए तो विद्यालय (School) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। (School) शब्द अंग्रेजी भाषा का शब्द है परन्तु इसकी उत्पत्ति यूनानी भाषा के Schola या Skhole शब्द से हुई है जिसका अर्थ है- ‘अवकाश’ (Leisure )। अवकाश शब्द एक विचित्रता प्रकट करता हैं इसे स्पष्ट करते हुए लीच महोदय लिखते हैं, “एथेन्स के युवक जिन स्थानों पर अपने अवकाश के समय को विचार-विमर्श, वाद-विवाद, खेलकूद आदि में व्यतीत करते थे, वे स्थान शनैः-शनैः दर्शन एवं उच्च कलाओं के स्कूलों में बदल गए। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्कूल संस्थागत केन्द्र हैं जहाँ शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होती है।”

(2) भारतीय दृष्टि से विद्यालय का अर्थ- विद्यालय शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के योग से हुई है विद्या+आलय अर्थात् वह स्थान जहाँ विद्या प्राप्त हो। इस प्रकार विद्यालय वह स्थान है जहाँ ज्ञान प्राप्त होता है। यह एक ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जिसमें बालक एक निश्चित अवधि में निश्चित पाठ्यक्रम पूरा करता है।

(3) वास्तविक अर्थ- भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के मतों को जानने के पश्चात् आवश्यक है कि विद्यालय के वास्तविक अर्थ को जाना जाए। वस्तुतः विद्यालय का तात्पर्य उस स्थान साधन या संस्था से है जहाँ पर देश तथा समाज की प्रत्येक नवजात पीढ़ी को उनकी क्षमता एवं बुद्धि के अनुरूप निश्चित विधि से सुप्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा उस राष्ट्र और समाज के विज्ञान कला- कौशल, धर्म नैतिकता एवं दर्शन आदि को जीवन में प्रयोग करने का ज्ञान कराया जाता है।

इस प्रकार विद्यालय के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं जो इस प्रकार हैं-

जॉन ड्यूवी (John Dewey) के अनुसार, “विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है, जहाँ जीवन के कुछ गुणों एवं कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा इस उद्देश्य से दी जाती है कि बालक का विकास वांछित दिशा में हो।”

जे.एस.रॉस (J.S. Ross) के अनुसार, “विद्यालय वे संस्थाएँ है जिनको सभ्य मनुष्य द्वारा इस उद्देश्य से स्थापित किया जाता है कि समाज में सुव्यवस्थित और योग्य सदस्यता के लिए बालकों को तैयारी में सहायता मिले।”

टी.पी. नन (T.P. Nunn) के अनुसार, “विद्यालय को इस प्रकार का स्थान नहीं समझना चाहिए कि जहाँ केवल निश्चित ज्ञान ही सीखा जाता है बल्कि ऐसा स्थान समझना चाहिए जहाँ बालकों की क्रियाओं को उन निश्चित रूपों में प्रशिक्षित किया जाता है जो इस विशाल संसार में सबसे महान और सबसे अधिक महत्व वाली हैं।”

ओटावे (A.K.C. Ottaway) के अनुसार, “विद्यालय को एक ऐसा सामाजिक आविष्कार समझना चाहिए जो कि समाज के बालकों के लिए विशेष प्रकार का शिक्षण प्रदान करने के लिए हो।

श्री एस. बालकृष्ण जोशी के अनुसार, “किसी की उन्नति का निर्णय विधान सभाओं न्यायालयों एवं कारखानों से नहीं वरन् विद्यालय में होता है।”

According to Sri S. Balkrishan Joshi, “The progress of a nation is decided not in legislation, not in court, not in factories, but in school.”

वर्तमान समय के विद्यालयों का स्वरूप बाल केन्द्रित है। विद्यालय मात्र निश्चित विषयों का ज्ञान ही छात्र-छात्राओं को नहीं देता बल्कि वे बातें जो बालक के सर्वांगीण विकास से सम्बन्धित है, इसके क्षेत्र में आती है।

बालकृष्ण जोशी के अनुसार, “विद्यालय आध्यात्मिक संगठन है जिसका अपना स्वयं का विशिष्ट व्यक्तित्व है। विद्यालय गतिशील सामुदायिक केन्द्र है जो चारों ओर जीवन एवं शक्ति का संचार करता है। विद्यालय एक आश्चर्यजनक भवन है, जिसका आधार सदभावना है- जनता की सद्भावना, माता-पिता की सद्भावना, छात्रों की सद्भावना सारांश में एक सुसंचालित विद्यालय एक सुखी परिवार, एक पवित्र मन्दिर, एक सामाजिक केन्द्र लघु रूप में एक राज्य एवं मनमोहक वृन्दावन है जिसमें इन सभी बातों का सुन्दर मिश्रण होता है।”

विद्यालय की उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि- (1) विद्यालय समाज द्वारा निर्मित संस्था है।

(2) इसकी स्थापना का उद्देश्य मनुष्य की विशिष्ट ज्ञान, व्यवसायों एवं कार्यों की शिक्षा देना है।

(3) विद्यालय एक भवन न होकर वातावरण होता है जिसकी अपनी निश्चित संस्कृति और व्यवस्था होती है।

(4) यह समाज का लघुरूप है जिसका उद्देश्य समाज द्वारा मान्य व्यवहार व कार्य की शिक्षा देना है। यह समाज के उत्कृष्ट रूप का ही प्रतिनिधित्व करता है।

(5) विद्यालय शिक्षा का औपचारिक सक्रिय अभिकरण है। इसके सदस्यों में परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रहती है।

विद्यालय का महत्व (Importance of School)

औपचारिक शिक्षा के साधन में विद्यालय का अपना ही महत्व है, क्योंकि इस अभिकरण के अन्तर्गत् हम शिक्षा की व्यवस्था बालकों को समाज के उद्देश्यों की प्राप्ति व सर्वांगीण विकास हेतु सुचारू रूप से करते हैं।

(1) मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु किसी न किसी व्यवसाय में लग जाता है, इसके लिए उसे शिक्षित होना आवश्यक है। आज विशिष्ट शिक्षा के साथ-साथ सामान्य शिक्षा में भी शिशु शिक्षा तक की व्यवस्था के लिए विद्यालयों का महत्व है।

(2) बालकों में शिष्टाचार और सहानुभूति तथा निष्पक्ष दृष्टिकोण को उत्पन्न करने के लिए घर की अपेक्षा, विद्यालय ज्यादा उत्तम स्थान है। बालक घर की चहारदीवारी के अन्दर इन दृष्टिकोणों को नहीं सीख सकता।

(3) विद्यालय एकमात्र वह साधन है जहाँ शिक्षित नागरिकों का निर्माण होता है। विद्यालय बालकों को साक्षर बनाने के साथ उनमें सहयोग, उत्तदायित्व एवं धैर्य इत्यादि भावनाओं को भी विकसित करता है।

(4) विद्यालय, बालकों के व्यक्तित्व के विकास हेतु हर सम्भव प्रयास करता हैं तथा उसके लिए पाठ्यक्रम का निर्धारण करता है। इसके साथ ही पाठ्य सहगामी क्रियाओं का भी आयोजन कराता है जिससे उनका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक व चारित्रिक विकास होता है।

(5) विद्यालय, समाज अथवा राष्ट्र के उद्देश्यों की प्राप्ति कराता है। समाज के द्वारा ये उद्देश्य भी निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं, अतः इन बदली हुई आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की प्राप्ति हम विद्यालय द्वारा ही करते हैं।

(6) विद्यालय राज्य के आदर्शों, विचारधाराओं एवं मान्यताओं का प्रसार करने का अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है इसलिए सभी प्रकार के राज्यों (साम्यवादी, फासिस्टवादी तथा । लोकतन्त्रीय आदि) में विद्यालय का अपना ही स्थान है।

(7) विद्यालय ही शिक्षा का वह एकमात्र साधन है जो बालकों को विशिष्ट वातावरण प्रदान करता है, यह वातावरण शुद्ध, सरल व स्वास्थ्यप्रद होना चाहिए।

(8) विद्यालय समाज की निरन्तरता और विकास के लिए भी एक महत्वपूर्ण साधन हैं।

टी. पी. नन (T.P. Nunn) ने लिखा है “विद्यालय को समस्त संसार का नहीं, वरन् समस्त मानव-समाज का आदर्श लघु रूप होना चाहिए।”

According to T.P. Nunn, “A Nation’s schools are an organ of its life, whose special function is to consolidate its spiritual strength, to maintain its historic continuity, to secure its past achievement and guarantee its future.”

(9) विद्यालय, बालकों को लोकतन्त्र के मूल सिद्धान्त ( स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता) के साथ-साथ नागरिकता की भी शिक्षा देता है।

इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर विद्यालय के महत्व को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।

विद्यालय की भूमिका (Role of School)

स्कूल निश्चित रूप से एक अभिकरण के रूप में पढ़ने, लिखने, ज्ञान एवं शैक्षिक कौशल को हस्तान्तरित करने के लिए कार्य करते है। भारतीय विद्यालयों को शिक्षा का प्रभावशाली अभिकरण बनाने हेतु विद्यालय की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-

(1) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास – विद्यालय मात्र छात्र के एकांकी विकास पर ही ध्यान नहीं देता बल्कि व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास पर बल देता है जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास उचित रूप से सम्भव हो सकता है।

(2) सामाजिक मूल्यों का विकास- बालक के व्यक्तित्व में सामाजिक मूल्यों का विकास विद्यालय से होता है। शिक्षक छात्रों में सामाजिक मूल्यों की समझ विकसित कर समाज की उन्नति में योगदान करता है।

(3) सामाजिक उत्तरदायित्व का विकास- स्कूल समाज का लघु रूप होता है क्योंकि स्कूल में छात्र अलग-अलग स्थानों से आते हैं। छात्रों के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने से समाज की वास्तविक परिस्थितियों का अनुभव करने तथा सामाजिक जीवन का मिलता है। छात्र सामाजिक कर्तव्य, सामाजिक जिम्मेदारियों एवं दूसरों की भावनाओं को समझने का पाठ सीखता है। इस प्रकार विद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्वों के विकास में सहायक होता है।

(4) नैतिक शिक्षा तथा आध्यात्मिकता का विकास- नैतिक शिक्षा तथा आध्यात्मिक विकास के बिना बालक का सम्पूर्ण ज्ञान निराधार होता है इसलिए विद्यालयों में नैतिक शिक्षा एवं आध्यात्मिक ज्ञान पर विशेष बल दिया जाता है।

(5) नागरिकता का ज्ञान- विद्यालय के छात्र समाज के प्रथम नागरिक होते हैं। इसलिए छात्रों को एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में देश के लिए उसके उत्तरदायित्व एवं नागरिक अधिकारों से सम्बन्धित शिक्षा दी जाती है। इसके अतिरिक्त समाज के अन्य व्यक्ति यानि अभिभावक भी विद्यालय के सम्पर्क में रहने के कारण विद्यालय की प्रगति में रुचि लेने लगते हैं।

(6) समाज में समायोजन- विद्यालय छात्रों को समाज की समस्याओं का सामना करने के लिए तैयार करता है। उचित समायोजन एवं अधिगम ज्ञान का परीक्षण विद्यालय द्वारा ही निर्देशित किया जाता है। छात्रों में समायोजन की क्षमता विकसित करने के लिए विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के समारोहों का आयोजन किया जाता है।

(7) व्यावसायिक प्रशिक्षण – विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से विद्यालय विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण देता है। इसके अतिरिक्त छात्रों के भौतिक जीवन की उन्नति के लिए विद्यालय व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था करता है जिससे वे बड़े होकर अपनी आजीविका की व्यवस्था कर आत्मनिर्भर बनते हैं।

(8) चरित्र निर्माण – भारत में प्राचीन काल से ही चरित्र निर्माण की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया जाता है इसी के परिणामस्वरूप मार्कोपोलो तथा फाह्यान ने भारतीय चरित्र की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। वर्तमान समय में चरित्र का पतन हो रहा है इसलिए विद्यालयों में बालकों के चरित्र निर्माण पर अत्यधिक बल देने की आवश्यकता है तथा इस पर ध्यान दिया भी जाता है।

(9) सामाजिक जीवन से सम्पर्क- विद्यालय छात्रों को इस प्रकार की शिक्षा देते हैं कि वे सामूहिक जीवन में कुशलतापूर्वक भाग ले सकें। विद्यालय बालक को समाज की वास्तविक परिस्थितियों में स्वानुभव द्वारा सीखने के लिए प्रेरित करते हैं। सामाजिक जीवन से सम्पर्क स्थापित होने पर छात्र समाज का उत्तरदायी नागरिक बनता है।

(10) सामाजिक एकता एवं स्थानान्तरण- विद्यालयी शिक्षा छात्रों को एक बड़े पैमाने पर सामाजिक एकता एवं स्थानान्तरण करने में सहायक होती है। विद्यालय की पहचान करने एवं प्रत्येक छात्र की अभिरुचि तथा क्षमताओं को विकसित करने तथा सामाजिक पृष्ठभूमि की उपलब्धि में शिक्षा सहायक होती है। शिक्षक, सबसे अच्छा एवं प्रतिभाशाली चुनौतीपूर्ण एवं अध्ययन को उन्नत करने में छात्रों का मार्गदर्शन करते हैं।

(11) रचनात्मक तथा सृजनात्मक क्रियाओं का विकास – विद्यालयों में क्रिया का सिद्धान्त पर विशेष बल देने की आवश्यकता है, इसीलिए छात्रों को विभिन्न क्रियाओं के प्रयोग द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा रचनात्मक एवं सृजनात्मक क्रियाओं पर विशेष बल दिया जाता है। इसके लिए पाठ्येत्तर क्रियाओं को महत्व दिया जाता है।

(12) मनोवैज्ञानिकतापूर्ण वातावरण- विद्यालयों में उल्लासपूर्ण मनोवैज्ञानिक वातावरण का सृजन किया जाता है। जिससे छात्रों का समुचित विकास एवं उत्तरदायित्वपूर्ण भावना विकसित होती है।

(13) अन्य साधनों का सहयोग- विद्यालयों को प्रभावी अभिकरण बनाने के लिए परिवार समुदाय राज्य तथा धार्मिक संस्थाओं के साथ सामंजस्य स्थापित कर अधिकतम सहयोग प्राप्त करता है जिससे छात्रों का समुचित विकास होता है इसलिए विद्यालय को समय-समय पर अन्य संस्थाओं द्वारा सहयोग लेते रहना चाहिए।

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