B.Ed./M.Ed.

पाठ्यचर्या निर्धारण के प्रमुख विषयों को बताइए।

पाठ्यचर्या निर्धारण के प्रमुख विषय
पाठ्यचर्या निर्धारण के प्रमुख विषय

पाठ्यचर्या निर्धारण के प्रमुख विषय (some considernations as curriculum determinants)

पाठ्यचर्या निर्धारण के प्रमुख विषय- पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जो शिक्षार्थियों को ऐसे अनुभव उपलब्ध कराए जो उसके क्रमशः विवेक की क्षमता बढ़ाते हुए उसके ज्ञान के आधार को पुष्ट करे और दूसरों के प्रति संवेदनशील बनाए। ज्ञान एवं समझ पाठ्यचर्या के चुनाव और विषय-वस्तु के प्रस्तावों. के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं।

ज्ञान की कल्पना संगठित अनुभव के रूप में की जा सकती है जो भाषा, विचार- खला या संकल्पना की संरचना के माध्यम से अर्थबोध पैदा करती है, जिसके माध्यम से हमें अपने संसार को समझने में सफलता मिलती है। पाठ्यचर्या उन क्षमताओं के विकास की योजना होती है जिनके माध्यम से चयनित शैक्षणिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। मानवीय क्षमताओं के आयाम काफी विस्तृत होते हैं और शिक्षा के माध्यम से हम उन सबका विकास नहीं कर सकते, अतः हमें ज्ञान के विविध रूपों का सामंजस्यपूर्ण ढंग से पाठ्यचर्या में स्थान देना होता है।

ज्ञान के उन विविध रूपों में बच्चों के समुदाय आधारित स्थानीय ज्ञान को पाठ्यचर्या में अवश्य स्थान देना चाहिए। बच्चे का समुदाय और उसका स्थानीय वातावरण अधिगम प्राप्ति के लिए प्राथमिक सन्दर्भ होता है, जिसमें ज्ञान अपना महत्त्व अर्जित करता है। परिवेश के साथ अन्तःक्रिया करके ही बच्चा ज्ञान सृजित करता है और जीवन में सार्थकता पाता है। बच्चों का अपना अनुभव ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश का बेहतर माध्यम होता है। यह केवल साधन नहीं बल्कि साधन और साध्य दोनों है। इसके लिए हमें ज्ञान को व्यावहारिक बनाने की जरूरत नहीं होती और न तात्कालिक रूप से प्रासंगिक बनाने की।

शिक्षार्थी जब तक अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को पाठ्य-पुस्तक में निरूपित सन्दर्भों के सम्बन्ध में स्थित नहीं कर पाते और इस ज्ञान को समाज के अपने अनुभवों से जोड़ नहीं पाते तब तक ज्ञान मात्र सूचना के स्तर पर ही रहता है। अपने स्थानीय सन्दर्भों से दिन-प्रतिदिन जो अनुभव प्राप्त करता है वह उसके ज्ञान के सृजन में सहायक होते हैं। अतः, आजकल जो कम्प्यूटर आधारित सीखने के नाम, जैविक संसार को अनुप्राणित रेखाओं में बदलकर बच्चों से उन्हें कप्यूटर पटल पर देखने की उम्मीद की जाती है, इसकी बजाय यदि जैविक-अजैविक का पाठ शुरू करने के पहले अध्यापक उन्हें मैदान में सैर के लिए ले जाएँ और कक्षा में वापस आकर बच्चे दस जैविक व दस अजैविक चीजों के नाम लिखें तो यह ज्यादा प्रभावी होगा ।

इसी प्रकार जल प्रदूषण के पाठ के दौरान बच्चे जलस्रोतों व जलाशयों का निरीक्षण करें, फिर उन्हें प्रदूषण के प्रकारों से जोड़कर देखें तो यह सब स्थलीय ज्ञान की व्यवस्था होगी।

स्थानीय चीजें एक स्वाभाविक अधिगम का स्रोत होती हैं, अतः कक्षा में कार्य सम्पादन के निर्णय लेते समय उन्हें प्रधानता देनी चाहिए। भाषा एवं सामाजिक विज्ञानों की विषय-वस्तु का चयन करते हुए यह महत्त्वपूर्ण है कि संविधान में स्थापित मूल्यों एवं आदर्शों को ध्यान में रखा जाए। स्थानीय परिवेश केवल भौतिक-प्राकृतिक नहीं होता, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक भी होता है। भारत में आज भी ऐसी स्थानीय ज्ञान परम्परागत कई समुदाय व व्यक्ति हैं जो भारत के पर्यावरण के विविध रूपों की सूचनाओं और उनके प्रबंधन सम्बन्धी ज्ञान के भण्डार हैं जो उन्होंने पीढ़ियों में परम्परागत ज्ञान के रूप में पाने के साथ अपने व्यावहारिक अनुभव से भी प्राप्त किया है। इस प्रकार के ज्ञान में पौधों का नामकरण और वर्गीकरण, जल-संरक्षण और जल संचय के उपाय या टिकाऊ कृषि की प्रथा शामिल है। इसके साथ ही सभी प्रकार के ज्ञान को संवैधानिक मूल्यों व परम्पराओं के अनुकूल भी होना चाहिए।

ज्ञान के सृजन एवं पुनः सृजन हेतु अनुभव के आधार, भाषा या क्षमताओं एवं प्राकृतिक संसार और दूसरे लोगों के साथ अन्तःक्रिया की जरूरत होती है। हर चीज जो बच्चे बाद में सीखते हैं, वह उस ज्ञान से सम्बन्धित होता है जो वह स्कूल से लेकर आते हैं। यह ज्ञान भी अन्तःप्रज्ञात्मक होता है। स्कूल अवसर देता है कि इसी ज्ञान को आधार मानकर, सचेत रहकर और जुड़ाव के साथ आगे बढ़ा जाए।

अतः, सीखने के शुरूआती स्तर पर स्कूल पूर्व से प्राथमिक स्कूली वर्षों में पाठ्यचर्या प्रस्तुत की सभी गतिविधियों में भाषा व गणित को महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए व उपर्युक्त वर्णित ज्ञान के समस्त क्षेत्रों को, के सामने परिवेश के शैक्षिक अनुभवों के रूप में किया जाना चाहिए। उच्च माध्यमिक स्तर पर भी ज्ञान के स्वरूपों को ध्यान में रखते हुए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि बच्चे प्राकृतिक, सामाजिक, गणितीय और भाषायी आँकड़ों के संकलन में व्यस्त रहें। उन आँकड़ों को वर्गीकृत करें और विशिष्ट ज्ञान क्षेत्रों, जैसे नैतिक समझ और समीक्षात्मक सोच के द्वारा उनका करें। जब तक बच्चे माध्यमिक स्तर तक पहुँचते हैं वे पर्याप्त ज्ञान आधार, अनुभव, भाषायी क्षमताएँ और ज्ञान के विभिन्न स्वरूपों के साथ जुड़ने में परिपक्वता ग्रहण कर चुके होते हैं, जिसमें अवधारणाएँ, ज्ञान की संरचना, खोज परीक्षण के तरीके और पुष्टिकरण के तरीके शामिल हैं, इसलिए ज्ञान के सभी रूपों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व पाठ्यचर्या के निर्धारण में होना चाहिए।

(i) सम्बन्धित स्तर हेतु शैक्षिक उद्देश्यों की सार्थकता व स्पष्टता (Relevance and Specificity of Educational Objectives For Concerned Level)

पाठ्यचर्या के निर्धारण हेतु किस स्तर हेतु पाठ्यचर्या का निर्माण किया जा रहा है तथा उस विशिष्ट स्तर हेतु किन शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण की आवश्यकता है, पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि शिक्षा के सामान्य लक्ष्यों के मद्देनजर विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग उद्देश्यों के वर्गीकरण की आवश्यकता है, जैसे बच्चे के विकास की अवस्थाएँ, ज्ञान की प्रकृति सामान्य तौर पर और खासतौर पर पाठ्यचर्या के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में और बच्चे का सामाजिक-राजनीतिक परिवेश । इसके अतिरिक्त विशिष्ट उद्देश्य होने चाहिए जिनका इस्तेमाल पाठ्य सामग्री के चुनाव एवं संगठन के लिए दिशा-निर्देश की तरह किया जा सके।

स्तर के अनुसार उद्देश्यों तक पहुँचने के लिए शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों, बच्चों के विकास के चरण, ज्ञान की प्रकृति एवं बच्चे के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को ध्यान में रखना होगा। ये विषय केवल विशिष्ट ज्ञान के रूप में नहीं हो सकते। यहाँ पर उद्देश्य शिक्षा के सामान्य लक्ष्यों के ज्यादा स्तर की विशिष्ट व्याख्या होगी। इसीलिए उनकी अभिव्यक्ति क्षमताओं, मूल्यों, अभिवृत्तियों और ज्ञान के सन्दर्भ में होगी। उद्देश्यों को पर्याप्त रूप से विशिष्ट भी होना होगा जिससे वे विषय-वस्तु के चयन एवं संगठन में निर्देश दे पाएँ।

पाठ्यचर्या के उद्देश्यों की अभिव्यक्ति लक्ष्यों के कथनों से संकेत लेना चाहिए और ये प्रत्येक चरण के लिए दो भागों में लिखे जा सकते हैं। चरणों को ऐसे परिभाषित किया जा सकता है-

(1) प्राथमिक-I : 2 साल की विद्यालयी शिक्षा, औसतन 5-7 वर्ष की आयु।

(2) प्राथमिक – II : 3-5 साल की विद्यालयी शिक्षा, औसतन 8-11 वर्ष की आयु।

(3) उच्च प्राथमिक : 6-8 साल की विद्यालयी शिक्षा, औसतन 12-14 वर्ष की आयु।

(4) माध्यमिक : 9-10 साल की विद्यालयी शिक्षा, औसतन 15-16 वर्ष की आयु।

(5) उच्च माध्यमिक : 11-12 साल की विद्यालयी शिक्षा, औसतन 17-18 वर्ष की आयु।

पाठ्यचर्या से उद्देश्यों के विभाजन की जरूरत नहीं, उद्देश्यों की चरणवार उपलब्धि ही काफी होगी। अगर जरूरत हो तो पाठ्यचर्या को आगे विभाजित किया जा सकता है हालाँकि चरण के हिसाब से पाठ्यचर्या विद्यालय एवं शिक्षकों को ज्यादा आजादी और विकल्प देगा।

प्रत्येक चरण का पहला भाग सामान्य लक्ष्यों से सम्बन्धित भागों से अर्थ निकालना चाहिए। उदाहरण के लिए, प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक चरण के अन्त में लोकतांत्रिक मूल्य क्या रूप लेंगे इत्यादि। भाग दो में अपेक्षित अधिगम के स्तर कथित होने चाहिए। ये स्तर सम्बन्धित चरण के पहले भाग की अपेक्षित उपलब्धियाँ होनी चाहिए।

आखिरी चरण ( उच्च माध्यमिक) को छोड़कर बाकी सभी चरणों की पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को जिला एवं राज्य स्तर पर बनाया जाना चाहिए और हरेक विद्यालय उन्हें अपने- बच्चों एवं अध्यापिकाओं की जरूरत के अनुसार पुनःसंगठित कर सकता है।

(ii) छात्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ-बहुसांस्कृतिक बहुभाषिक पहलू (Social Cultural Context of Student: Multicultural Multilingual, Aspects)

अनुभव भारत में असंख्य ऐसी स्थानीय परम्पराएँ हैं, ऐसे भी कई समुदाय और व्यक्ति हैं जो भारत के पर्यावरण के विविध रूपों की सूचनाओं और उनके प्रबंधन सम्बन्धी ज्ञान के भंडार हैं जो उन्होंने पीढ़ियों से परम्परागत ज्ञान के रूप में पाने के साथ अपने व्यावहारिक से भी प्राप्त किया है। इसमें विद्यालयी परम्परा को भी जोड़ा जा सकता है।

इसी प्रकार शिक्षा के सामाजिक सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या की कुछ प्रमुख विशेषताओं को निहित करना होगा-

(1) व्यक्ति के व्यवहार को वातावरण के अनुसार परिवर्तित करना।

(2) सफल सामाजिक जीवन के लिए।

शिक्षा में समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति की प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है-

1. व्यक्ति के व्यवहार को वातावरण के अनुसार परिवर्तित करना।

2. सफल सामाजिक जीवन के लिए व्यक्ति को तैयार करना।

3. व्यक्तिवाद का विरोध तथा सामाजिक गुणों का विकास करना।

4. पाठ्यचर्या में सामाजिक विषयों के अध्ययन को प्रोत्साहन देना।

5. निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा।

6. राज्य शिक्षा प्रणाली का विकास।

7. बालक को जीवन की जटिलताओं से अवगत कराना।

8. बालक को व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं से परिचित कराना तथा उनका सामना करने के लिए तैयार करना।

9. विज्ञान एवं तकनीकी, औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना।

10. प्रौढ़ शिक्षा तथा समाज शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल देना।

इसी प्रकार वर्तमान पाठ्यचर्या में जनसंख्या शिक्षा, पर्यावरण शिक्षा, प्रदूषण की समस्या, सुरक्षा – शिक्षा, परिवहन – शिक्षा, काम-शिक्षा, जाति उन्मूलन, परिवार कल्याण, विवाह एवं तलाक की समस्या, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय एकता की शिक्षा आदि विषयों का समावेश किया जा रहा है इसका उद्देश्य यह है कि इनके अध्ययन से बालकों में वांछित अभिवृत्तिका विकास होगा तथा उन्हें सामाजिक समायोजन में सरलता होगी। परंतु, जब तक समाज में व्यावहारिक रूप से इस दिशा में कार्य नहीं किया जाएगा, तब तक हमें अधिक सफलता की आशा करना ठीक नहीं है। उदाहरणार्थ, हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही विद्यालयों में प्राथमिक स्तर से ही पाठ्यचर्या के विभिन्न अंगों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव की शिक्षा प्रदान की जा रही है, किन्तु आए दिन क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, धर्मवाद आदि समस्याएँ उभरकर हमारी राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुँचाने का प्रयास कर रही हैं। अतः, जब तक समाज में व्यवहार स्तर पर इन ऋणात्मक दृष्टिकोणों में परिवर्तन नहीं लाया जाता अथवा विपरीत दिशा में ही कार्य किया जाता है तब तक पाठ्यचर्या की सार्थकता की बात करना व्यर्थ ही होगा। अतः, पाठ्यचर्या की उपयुक्तता के लिए सामाजिक स्थिति को अच्छी तरह समझना अति आवश्यक होता है।

भारतीय परिवेश के आधार पर विद्यालयी पाठ्यचर्या में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि वह भारतीय सभ्यता का विश्व सभ्यता पर एवं विश्व सभ्यता का भारतीय सभ्यता के विचार एवं कर्म पर पड़ने वाले प्रभाव के सम्यक् बोध के माध्यम से विद्यार्थियों में भारतीय होने में गर्व करने की भावना का संचार और पोषण करे । राष्ट्रीय अस्मिता एवं एकता का सुदृढ़ीकरण भारत की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन के साथ गहराई से जुड़ा है जो कि नाना प्रकार के रंग-रूपों से समृद्ध है। अतः, जहाँ पाठ्यचर्या भूमण्डलीय विश्व व्यवस्था का अवलोकन होता है, वहीं दूसरी ओर शिक्षा ऐसी दिखाई देनी चाहिए कि वह राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय पहचान के लिए आवश्यक राष्ट्रीय एकता को विकसित करने वाली बने । आज भी भारत में कई लोग ऐसे हैं जो यहाँ की प्रगति और उपलब्धियों, विशेषतः विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में की गई प्रगति से अनभिज्ञ हैं, जो राष्ट्र की एकता को सुदृढ़ बनाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि सांस्कृतिक विरासत, परम्परा और देश की विभिन्न जातियाँ एवं क्षेत्रीय समूहों के इतिहास व उनके योगदान को पाठ्यचर्या में स्थान मिले ताकि देश के बहुलतानिष्ठ समाज और उसकी सामाजिक संस्कृति की प्रकृति को सही ढंग से समझने में मदद मिले।

इसी प्रकार जहाँ तक बहुभाषावाद की अवधारणा का प्रश्न है तो भारत विभिन्नताओं युक्त देश होने के कारण यहाँ कई भाषाएँ बोली जाती हैं। आज भूमण्डलीकरण से सांस्कृतिक खुलेपन की वजह से भी बहुभाषिकता एक सामाजिक आवश्यकता बनती जा रही है। इंटरनेट द्वारा प्रदान की गई सूचनाओं की सहूलियतों के पाने की होड़ में हरेक व्यक्ति का बहुभाषावादी होना दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, अतः पाठ्यचर्या निर्धारण में भी इस बहुभाषिकता को स्थान दिया जाना चाहिए। भारत की भाषिक विविधता यद्यपि एक जटिल चुनौती तो प्रस्तुत करती है। पंरंतु, वह कई प्रकार के अवसर भी देती है। भारत केवल इस मामले में ही अनूठा नहीं है कि यहाँ अनेक प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं, बल्कि उन भाषाओं में अनेक भाषा-परिवारों का प्रतिनिधित्व भी है। दुनिया के और किसी भी देश में पाँच भाषा परिवारों की भाषाएँ नहीं पाई जाती हैं। संरचना के स्तर पर वे इतनी भिन्न हैं कि उन्हें विभिन्न भाषा परिवारों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिनके नाम हैं— इंडो-आर्यन, द्रविड़, ऑस्ट्रो-एशियाटिक, तिब्बतो-बर्मन और अंडमानी । अनेक भाषिक व सामाजिक-भाषिक विशेषताएँ ऐसी हैं जो सभी भाषाओं में समान रूप से पाई जाती हैं यह इस बात का सबूत है कि भारत में विभिन्न भाषाएँ और संस्कृतियों सदियों से एक-दूसरे को समृद्ध करती रही हैं।

कई अध्ययनों से यह भी पता चला है कि द्विभाषी या बहुभाषी क्षमता संज्ञानात्मक वृद्धि, सामाजिक सहिष्णुता, विस्तृत चिन्तन और बौद्धिक उपलब्धियों के स्तर को बढ़ा देती है। सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर बहुभाषिकता (Multi-lingulism) एक ऐसा संसाधन है जिसकी तुलना किसी भी राष्ट्रीय संसाधन से की जा सकती है। आज हम यह भी जानते हैं कि द्विभाषिकता या बहुभाषिकता से निश्चित संज्ञानात्मक लाभ होते हैं। त्रिभाषा का मूल्य भारत की भाषा स्थिति की चुनौतियों और अवसरों सम्बन्धित करने का एक प्रयास है। यह एक रणनीति है जिससे कई भाषाओं के सीखने के मार्ग प्रशस्त होते हैं। अतः पाठ्यचर्या में इसे कार्यरूप और भावरूप दोनों में ही अपनाने की आवश्यकता है। इसका प्राथमिक उद्देश्य में बहुभाषिकता और राष्ट्रीय सद्भाव का प्रसार है। अतः, पाठ्यचर्या में बहुभाषिकता को प्राप्ति करने हेतु निम्नलिखित दिशा-निर्देश हो सकते हैं-

  • भाषा शिक्षण बहुभाषिक होना चाहिए, केवल कई भाषाओं के शिक्षण के ही अर्थ में नहीं, बल्कि रणनीति तैयार करने के लिहाज से भी ताकि बहुभाषिक कक्षा को एक संसाधन के तौर पर प्रयोग में लाया जाए।
  • बच्चों की घरेलू भाषाएँ स्कूल में शिक्षण का माध्यम हों।
  • अगर स्कूल में उच्चतर स्तर पर बच्चों की घरेलू भाषाओं में शिक्षण की व्यवस्था न हो तो प्राथमिक स्तर की स्कूली शिक्षा अवश्य घरेलू भाषाओं के माध्यम से दी जाए। हमारे संविधान की धारा 350 ‘क’ के मुताबिक भी “प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी, अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा।”
  • बच्चे प्रारम्भ से ही बहुभाषिक शिक्षा प्राप्त कर सकें, इसकी व्याख्या पाठ्यचर्या से की जाए ताकि एक बहुभाषी देश में बहुभाषी संवाद के माहौल को बढ़ावा दिया जा सके यद्यपि बच्चे स्कूल से बुनियादी संवाद क्षमता के कौशल में समर्थ होकर आते हैं, उनकी स्कूल में संज्ञानात्मक रूप से उच्चस्तरीय भाषिक क्षमता को अपनाने की जरूरत होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि उसके लिए हर सम्भव प्रयत्न पाठ्यचर्या द्वारा किए जाएँ ताकि स्कूल स्तर पर भारतीय भाषाओं में सतत् शिक्षा को समृद्ध किया जा सके।

भाषा शिक्षण केवल भाषा की कक्षा तक सीमित नहीं होता। विज्ञान, सामाजिक विज्ञान या गणित की पाठ्यचर्या भी एक तरह से भाषा की ही कक्षा होती है । अतः, भाषा को लेकर पाठ्यचर्या में ऐसे नीति अपनाने की आवश्यकता है जिससे बहुभाषिकता को बढ़ावा मिले। साथ ही भाषा की शिक्षा कुछ अनूठे अवसर भी उपलब्ध कराती है जिससे बच्चे कहानी, कविता, गीत, नाटक के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ते हैं। भारत के बहुभाषी समाज में अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है, परंतु इसके भी कुछ अच्छे लक्ष्य हैं, जैसे—बुनियादी दक्षता प्राप्त करना, ऐसी शैक्षणिक गतिविधियों से परिचित होना जिससे विश्व जागरूकता को बढ़ावा मिले। अंग्रेजी शिक्षण का लक्ष्य ऐसे बहुभाषी लोगों को तैयार करता है जो हमारी भाषाओं को समृद्ध कर सके। अतः, बहुभाषिकता को पाठ्यचर्या का एक निर्धारक मानकर शिक्षण के सभी स्तरों और शिक्षा की राष्ट्रीय नीति से जोड़ते हुए एक भाषा नीति तैयार करनी चाहिए और पूरी तरह से स्थानीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने हेतु अधिगम सामग्री भी स्थानीय भाषा में तैयार करनी चाहिए।

(iii) अधिगमकर्ता की विशेषताएँ (Characteristics of Learner’s)

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्ता का विशेष स्थान है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया तभी सफल हो सकती है जब पाठ्यचर्या विद्यार्थी के सम्पूर्ण विकास में मदद करे। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास करना है जो केवल पाठ्यचर्या द्वारा ही सम्भव हो सकता है। इसलिए पाठ्यचर्या ऐसा होना चाहिए जो विद्यार्थियों को जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने तथा समस्याओं को दूर करने में मदद करे। पाठ्यचर्या अधिगमकर्ता का सम्पूर्ण विकास करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।

प्रत्येक विद्यार्थी/ अधिगमकर्ता रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं व योग्यताओं के आधार पर भिन्न होता है। पाठ्यचर्या में इस प्रकार का प्रावधान रखना चाहिए कि प्रत्येक विद्यार्थी बिना किसी रुकावट के अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सके। निम्न प्राथमिक स्तर के विद्यार्थियों को लेखन, अधिगम व संगठन के द्वारा शिक्षा प्रदान करनी चाहिए ताकि विद्यार्थी में लेखन व अधिगम का विकास हो सके। यदि निम्न प्राथमिक स्तर पर बच्चों को पाठ्यचर्या संगठित करके सिखाया जाएगा तो वे उसे आसानी से सीख सकते हैं। क्रियाओं में भाग लेने के लिए छात्रों को अध्यापक द्वारा प्रोत्साहित करना चाहिए और उन्हें मातृभाषा की जानकारी भी देनी चाहिए। उन्हें उच्च प्राथमिक स्तर तक छात्रों में विभिन्न कौशलों का विकास करना चाहिए। उनको वैज्ञानिक, सामाजिक व शारीरिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। वे अपने आस-पास के वातावरण को आसानी से समझ सकते हैं। माध्यमिक स्तर पर छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा देनी चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।

अतः, अधिगमकर्ता की विशेषताओं के अनुसार पाठ्यचर्या का निर्माण अति आवश्यक है व इसी परिप्रेक्ष्य में बाल-केन्द्रित शिक्षा को भी बच्चों के अनुभवों, उनके स्वरों और उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देने के सन्दर्भ में समझना चाहिए। अतः, शिक्षा की योजना/पाठ्यचर्या ऐसी हो कि वह विशेषताओं व जरूरतों की विशाल विविधताओं के तहत भौतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक प्राथमिकताओं को सम्बोधित करे। पाठ्यचर्या बच्चों को इतना सक्षम बनाए कि वे अपनी आवाज ढूँढ़ सकें, अपनी उत्सुकता का पोषण कर सकें, स्वयं करें, सवाल पूछें, जाँचें-परखें और अपने अनुभवों को स्कूली ज्ञान के साथ जोड़ सकें। इस उद्देश्य से पाठ्यचर्या का पुनर्उन्मुखीकरण हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। क्योंकि अधिगमकर्ता शिक्षार्थी निष्क्रिय वस्तु न होकर सक्रिय व जिज्ञासु व्यक्ति हैं अतः, इन शिक्षार्थियों को अधिगमकर्ताओं की विशेषताओं को समेकित रूप से समझना चाहिए।

पूर्व प्राथमिक स्तर के दौरान बच्चों के भौतिक व मानसिक विकास में बहुत बड़े परिवर्तन होते हैं। जैसे-जैसे उनका शारीरिक विकास सामाजिक और सांस्कृतिक संकेतों के साथ प्रतिक्रिया करने लगता है, वैसे-वैसे उनका स्नायु तंत्र परिपक्व होता जाता है और संज्ञानात्मक अनुभवों की संवृद्धि होती जाती है। वे तेजी से पूरी दुनिया को अपने अनुकूल बनाने लगते हैं और धीरे-धीरे कल्पना करना और काम करने के तरीके खोजना प्रारम्भ करते हैं ताकि वे. भूत और वर्तमान की घटनाओं से जुड़ी स्मृतियों को मन में संग्रहीत कर सकें। बच्चों की यह अवस्था भाषा विकास की भी अवस्था होती है।

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shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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