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प्राचीन भारत में शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ
प्राचीन भारत में शिक्षा की व्यवस्था (Organization of education in ancient India. ) – डा० ए०एम० अल्तेकर के अनुसार- “प्राचीन भारत में सम्भवतः 400 ई० पूर्व शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। उस समय तक बालक का परिवार ही उसकी शिक्षा का केन्द्र था। उसके पश्चात कुछ ब्राह्मणों ने व्यक्तिगत रूप से शिक्षा देने का कार्य किया” इसके फलस्वरूप, जिस शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ उसमें प्राथमिक और उच्च शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी, प्राचीन भारत में शिक्षा के यही दो स्तर थे। हम उनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्राथमिक शिक्षा (Primary education )
1. सामान्य परिचय- प्राथमिक शिक्षा के विषय में सर्वप्रथम उल्लेखनीय बात यह है कि इस पर ब्राह्मणों का अधिपत्य नहीं था। यही कारण है कि उन्होंने धर्म ग्रन्थों में इसका विवरण न देकर इसकी उपेक्षा की है। सन्तोष कुमार दास ने लिखा है “ब्राम्हणों के पास उस शिक्षा की उपेक्षा करने के कारण थे जो उनके हाथ में नहीं था ” ।
ब्राह्मणों की उपेक्षा के बाजजूद “ऋग्वेद” में यत्र-तत्र ऐसे संकेत मिलते है जिनसे पाठशाला की भाँति किसी शिक्षा संस्था की कल्पना की जा सकती है।
2. प्रवेश की अवधि – डा० वेद मित्र के अनुसार प्राथमिक शिक्षा का आरम्भ 5 वर्ष की आयु में “विद्यारम्भ संस्कार” से होता था और सभी जातियों के बालकों के लिए अनिवार्य था। इसका अभिप्राय यह है कि सभी जातियों के बालक प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं इस शिक्षा की अवधि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई श्रोत उपलब्ध नहीं हैं, पर डा० ए० एस० अल्तेकर का मत है कि इसकी अवधि 6 वर्ष की थी।
3. पाठ्यक्रम- प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत बालकों को पहले कुछ वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करना और बोलना सिखाया जाता था। जब वे उन मन्त्रों को कंठस्थ कर लेते थे, तब उनको और लिखने की शिक्षा दी जाती थी। भाषा का वांछित ज्ञान हो जाने के पश्चात उनको साहित्य और व्याकरण से परिचित कराया जाता था। इस प्रकार शिक्षा का पाठ्यक्रम था वैदिक मंत्रों का स्मरण, पढ़ना और लिखना, भाषा, साहित्य एवं व्याकरण |
उच्च शिक्षा (Higher Education )
1. सामान्य परिचय- प्राचीनकाल में सर्वप्रथम केवल प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था थी। किन्तु सामाजिक प्रगति के साथ साथ शिक्षा के विषयों की संख्या में वृद्धि होती चली गयी और उनके लिए पृथक शिक्षा संस्थाओं की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना की गयी। लेखकों का अनुमान है कि इनकी स्थापना ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी तक हो गयी थी। यहीं से उच्च शिक्षा के इतिहास का सूत्रपात होता है।
2. प्रवेश की अवधि- उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को था। इन जातियों के बालक सामान्य रूप से क्रमशः 8, 11 और 12 वर्ष की आयु से शिक्षा संस्था में प्रवेश करते थे। साहित्य एवं धर्मशास्त्र के अध्ययन की अवधि 10 वर्ष और वेद के अध्ययन की अवधि 12 वर्ष की थी।
3. पाठ्यक्रम- पाठ्यक्रम में परा (आध्यात्मिक) विद्या और अपरा (लौकिक) विद्या दोनों को – स्थान दिया गया था। परा विद्या के अन्तर्गत वेद, वेदांग, पुराण दर्शन, उपनिषद् और आध्यात्मिक विषय थे। अपरा विद्या के अन्तर्गत इतिहास, तर्कशास्त्र, भूगर्भ शास्त्र आदि लौकिक विषय थे।
4. शिक्षण विधि- मुद्रित पुस्तकों का अभाव होने के कारण शिक्षण विधि प्रायः भौतिक थी। छात्र गुरू के मुख से वेदादि ग्रन्थों को सुनते थे। उसके उच्चारण का अनुकरण करते थे और पाठ्य विषयों को दोहराते थे तदुपरान्त वे एकान्त में पाठ्य विषय का मनन-चिन्तन स्वाध्याय और पुनरावृत्ति करते थे। शिक्षण विधि में प्रवचन, व्याख्या, शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद आदि का भी प्रयोग किया जाता था।
5. परीक्षाएं व उपाधियाँ- शिक्षा समाप्त होने पर सभी छात्रों की मौखिक परीक्षा होती थी। इसके लिए उन्हें विद्वानों की सभा में उपस्थित होना पड़ता था जहाँ उन्हें विद्वानों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते थे। परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले छात्रों को उपाधियाँ नहीं दी जाती थी।
6. शिक्षा संस्थाएं- प्राचीन काल में अनेक प्रकार की शिक्षा संस्थाएं थी।
(क) टोल- टोल में संस्कृति की शिक्षा दी जाती थी। एक टोल में एक शिक्षक होता था।
(ख) चरण- चरण में वेद के एक अंक की शिक्षा दी जाती थी एक घटिका में अनेक शिक्षक होते थे।
(ग) घटिका- घटिका में धर्म और दर्शन की उच्च शिक्षा दी जाती थी।
(घ) परिषद् – परिषद् में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी। एक परिषद् में साधारणतः एक शिक्षक होते थे।
(ङ) गुरुकुल- गुरुकुल में वेदों, साहित्य, धर्मशास्त्र आदि की शिक्षा दी जाती थी। एक गुरुकुल में एक शिक्षक होता था।
(च) विद्यापीठ- विद्यापीठ में व्याकरण और तर्कशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। एक विद्यापीठ में अनेक शिक्षक होते थे।
(छ) विशिष्ट विद्यालय- विशिष्ट विद्यालय में एक विशिष्ट विषय की शिक्षा दी जाती थी जैसे वैदिक विद्यालय में वेदों की और सूत्र विद्यालय में यज्ञ, हवन आदि की। विशिष्ट – विद्यालय में एक शिक्षक होता था।
(ज) मन्दिर महाविद्यालय- किसी मन्दिर से सम्बद्ध मन्दिर महाविद्यालय में धर्म, दर्शन, वेदों, व्याकरण आदि की शिक्षा दी जाती थी। एक ब्राह्मणी महाविद्यालय में एक शिक्षक होती थी।
(झ) ब्रह्मणीय महाविद्यालय – इस विद्यालय को चतुष्पंथी कहा जाता था क्योंकि इसमें चारों शास्त्रों अर्थात निम्नांकित चार विषयों की शिक्षा दी जाती थी- दर्शन, पुराण, कानून और व्याकरण एक ब्राह्मणी महाविद्यालय में एक शिक्षक होती थी।
(ञ) विश्वविद्यालय – उच्च शिक्षा की कुछ संस्थाओं ने कालान्तर में विश्वविद्यालय का रूप ग्रहण किया। इनमें धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त वाणिज्य, चित्रकला, चिकित्सा शास्त्र आदि की भी शिक्षा विभिन्न शिक्षकों द्वारा दी जाती थी। काशी, नालन्दा और तक्षशिला के विश्वविद्यालय सबसे अधिक प्रसिद्ध थे।
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