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भारत में व्यावसायिक शिक्षा
भारत में ब्रिटिश शासनकाल से ही व्यावसायिक शिक्षा प्रारम्भ करने के प्रयास प्रारम्भ हुए थे। सन् 1917 से सैडलर आयोग ने सर्वप्रथम कक्षा XII में व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने की सिफारिश की थी। इस आयोग की सिफारिश के आधार पर देश में 45 व्यावसायिक शिक्षा की संस्थाएँ प्रारम्भ की गई। इसके बाद हटाँग कमेटी और वुड एवं एक्ट ने देश में व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार के लिए। सुझाव दिये। इनकी सिफारिश के कारण सन् 1947 में देश में 58 कृषि कॉलेज, 40 इंजीनियरिंग कॉलेज, 55 पॉलीटेक्निक और 60 बी. एड. कॉलेज थे। स्वतन्त्र भारत में सर्वप्रथम 1952 में नियुक्त माध्यमिक शिक्षा आयोग ने व्यावसायिक शिक्षा प्रारम्भ करने की सिफारिश की। इस आयोग ने बहुउद्देश्यीय माध्यमिक विद्यालय खोलने तथा पाठ्यक्रम में विविधता लाने की अनुशंसा की। इसके बाद 1964 में गठित कोठरी आयोग ने माध्यमिक स्तर से व्यावसायिक शिक्षा प्रारम्भ करने की सिफारिश की। इस आयोग का मत था कि उच्चतर माध्यमिक स्तर पर प्रविष्ट छात्रों में से 50 प्रतिशत छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा की सुविधा प्राप्त होनी चाहिये। हस्तश्रम के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण पैदा करने के उद्देश्य से कार्यानुभव प्रारम्भ करने पर बल दिया। इसको बाद में ‘समाजोपयोगी उत्पादक कार्य’ नाम से प्रारम्भ किया गया। सन् 1975 में केन्द्रीय सरकार ने व्यावसायिक शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय समिति गठित की जिसने व्यावसायिक पाठ्य-विषयों को 22 वर्गों में विभक्त किया। सन् 1977 में गठित राष्ट्रीय पुनरीक्षण समिति ने + 2 के समस्त पाठ्यक्रम को दो धाराओं में विभक्त किया। प्रथम धारा सामान्य शिक्षा धारा और दूसरी व्यावसायिक शिक्षा धारा कहलाई। व्यावसायिक शिक्षा वर्ग में कृषि व्यवसाय, व्यापार व कार्यालय सम्बन्धी व्यवसाय, पैरा मेडिकल व मेडिकल व्यवसाय, शिक्षा सम्बन्धी व्यवसाय, स्थानीय निकाय व सेवाएँ, गृह विज्ञान से सम्बन्धित व्यवसाय, अन्य सेवाओं को सम्मिलित किया। नई शिक्षा नीति में भी व्यावसायिक शिक्षा प्रारम्भ करने की अनुशंसा की गई। लेकिन शिक्षा के व्यवसायीकरण में असफलता का मुख्य कारण अपर्याप्त संगठनात्मक ढाँचा तथा स्वीकृत नीतियों के प्रति पदाधिकारियों की उदासीनता है। शिक्षा आयोग ने अनुसंशा की थी कि 1986 तक निम्न माध्यमिक स्तर के कुछ छात्रों में 20% और कक्षा X के अन्त तक 50 % छात्र अंशकालीन या पूर्णकालीन व्यावसायिक पाठ्यक्रम में प्रवेश लेंगे। लेकिन 1985 86 में व्यावसायिक पाठ्यक्रम में से केवल 20% छात्रों ने ही प्रवेश लिया था। विद्यालय स्तर पर में व्यावसायिक शिक्षा की योजना सफल न होने के लिए कुछ सामाजिक-आर्थिक कारक उत्तरदायी हैं। सामाजिक कारणों में प्रमुख कारण यहाँ व्यवसाय का समाज में सम्मान से जुड़ा होना है। परिणामस्वरूप अभिभावक अपने बालकों को निम्न स्तर के व्यावसायिक प्रशिक्षण के पक्ष में नहीं हैं। आर्थिक कारण में धन की कमी के कारण विद्यालयों में व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए कार्यशाला का निर्माण न होना, प्रशिक्षण देने के लिए शिक्षकों का अभाव तथा छात्रों में रुचि की कमी आदि के कारण यह योजना सफल नहीं हो सकी।
उभरते व्यावसायिक अवसरों से सम्बन्धित सूचनाएँ छात्रों को देने के लिए विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं को निम्न सोपानों का अनुसरण करना चाहिये-
1. उभरते जीविका अवसरों के बारे में उपयोगी सुझाव देने के लिए केन्द्र व राज्य स्तर पर सलाहकार बोर्ड का गठन होना चाहिये।
2. व्यावसायिक निर्देशन देने के लिए प्रत्येक विद्यालय में नियोजन ब्यूरो होना चाहिये।
3. छात्रों को कार्यानुभव प्रदान करने के उद्देश्य से विद्यालय में सहकारी स्टोर स्थापित करने चाहिये जहाँ छात्र कार्य करके प्रबन्ध बिक्री आदि का अनुभव प्राप्त कर सकें।
4. विद्यालय में परीक्षण सेवा होनी चाहिये जो परीक्षा के आधार पर छात्र को उसके उपयुक्त जीविका का परामर्श दे सके।
5. विद्यालय में नियोक्ता बाजार कार्यक्रम का आयोजन होना चाहिये जो छात्रों को उपयुक्त जीविका का चयन करने तथा नियोक्ता को नवयुवा पीढ़ी के लिये नये जीविका अवसर पैदा करने में सहायता करेगा।
6. व्यावसायिक पाठ्यक्रमों द्वारा छात्रों को स्वरोजगार के लिए निर्देशित करना चाहिये। स्वरोजगार के इच्छुक छात्रों की सहायता तथा निर्देशित करने के लिए फैक्ट्री या जीविका में प्रशिक्षण देने के लिए कार्यक्रम का आयोजन करना चाहिये।
7. उभरते जीविका अवसरों की सूचना का कार्यक्रम बनाने तथा उपर्युक्त क्रियाओं के संचालन के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था होनी चाहिये।
8. विद्यालय की निर्देशन सेवाओं को जीविका अवसरों से सम्बन्धित नवीनतम सूचनाएँ छात्रों को उपलब्ध करवाने के लिए राज्य नियोजन केन्द्र, नवयुवक नियुक्ति सेवा, आल इण्डिया रेडियो, प्रशिक्षण संस्थाएँ आदि के सम्पर्क में रहना चाहिये।
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