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निर्देशन के विभिन्न सिद्धान्त
निर्देशन प्रक्रिया का स्वरूप काफी लचीला होता है अर्थात् निर्देशन उद्देश्य के अनुसार उसके स्वरूप में भी परिवर्तन करना लाभकारी होता है। इसी कारण से निर्देशन के सिद्धान्तों की संख्या भी निश्चित नहीं कही जा सकती है। अतः निर्देशन के सिद्धान्तों को अलग-अलग विद्वानों ने अलग अलग संख्याओं में स्वीकार किया है। जिन सिद्धान्तों को विभिन्न विद्वानों ने एकमत से स्वीकार किया है उनका विवरण इस प्रकार है-
1. आवश्यक गोपनीयता बनाये रखना– सफल निर्देशन के लिए परम आवश्यक है कि निर्देशन या निर्देशनकर्त्ता के प्रति व्यक्ति या निर्देशन प्राप्त करने वाले का पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि वह उसकी गोपनीय सूचनाओं को अनावश्यक रूप से किसी अन्य के सामने नहीं कहेगा। अतः वह अपने बारे में जो कुछ भी बताएगा वह अपने तक ही सीमित रखेगा। निर्देशनकर्ता को अपनी यह गोपनीयता स्वयं की नैतिकता का एक आवश्यक अंग बनाकर पालन करना चाहिए। गोपनीयता के अभाव में निर्देशनकर्त्ता निर्देशन प्राप्त करने वाले के प्रति अपना विश्वास खो देगा जो कि उसकी निर्देशन-शैली की असफलता का मुख्य कारण सिद्ध होगा।
2. अधिकांश व्यक्तियों को सामान्य मानना- निर्देशन करते समय अधिकांश व्यक्तियों को सामान्य मानना चाहिए। यद्यपि कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो सामान्य से कम विकसित होते हैं और जिनके लिए सामान्य से अधिक या विशिष्ट निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन इन विशिष्ट निर्देशन की आवश्यकता वाले व्यक्तियों की अपेक्षा सामान्य समस्याओं वाले यथा समायोजन या व्यवसाय समस्याओं वाले व्यक्ति अधिकतर होते हैं। व्यक्ति हों अथवा छात्र, उनको यह अनुभव नहीं होना चाहिए कि निर्देशनकर्त्ता अथवा निर्देशन-सहयोगी किसी विशिष्ट अथवा समस्यात्मक व्यक्ति की ओर उससे अधिक या सामान्य से अधिक निर्देशनात्मक ध्यान दे रहे हैं। उनमें आपसी विभेदीकरण का आभास बिल्कुल नहीं होना चाहिए। यह भी सम्भव है कि वास्तविकता में कुछ समस्यात्मक बालकों या कुछ अधिक निर्देशन की आवश्यकता वाले व्यक्ति हों, जिनको सामान्य की अपेक्षा अधिक समय देना पड़े लेकिन ऐसी स्थिति में निर्देशन को चाहिए कि विशिष्ट व्यक्ति को तो अतिरिक्त समय निर्देशन दे लेकिन उन सामान्य व्यक्तियों को भी अतिरिक्त समय देकर स्वयं की समानता के भाव का उन्हें आभास अवश्य कराये जिससे वह निर्देशन के प्रति भेदभाव को अनुभव न कर सकें।
3. स्वयं निर्देशन की योग्यता- निर्देशक को अपना प्रयास इस प्रकार करना चाहिए कि वह व्यक्ति अपनी समस्याओं के प्रति अपनी सूझ-बूझ, अन्तर्दृष्टि, विवेक व स्व-निर्णय की योग्यता को अपने आप में विकसित कर सके। व्यक्ति को अपनी परिस्थिति के समझने तथा उनके साथ स्वयं को समायोजित करने और अपनी क्षमताओं से अवगत होने में निर्देशन सहायक होता है। निर्देशन का उद्देश्य होता है व्यक्ति में धीरे-धीरे अपने उत्तरदायित्वों के प्रति प्रौढ़ता विकसित हो। ऐसा करने में व्यक्ति अपने आप समस्याओं के बारे में आत्मनिर्भरता तथा आत्मविश्वास को विकसित कर लेता है। यहाँ निर्देशक के लिए एक महत्त्वपूर्ण व ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि निर्देशक को कभी भी परिस्थितियों को भूलकर अपनी समझ या सोच को उस व्यक्ति पर थोपना या लादना नहीं चाहिए बल्कि उसे मानसिक रूप से स्व-समाधान के लिए समर्थ बनाने का प्रयास करना चाहिए। यदि निर्देशक ने ऐसा नहीं किया तो निर्देशन या तो अप्रभावी होगा या होने वाला परिवर्तन अल्पकालिक होगा।
4. वर्तमान वातावरण से परिचय– निर्देशन सेवा के समय की सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ निर्देशनकर्त्ता को उस समय के राजनैतिक परिदृश्य से भी परिचित होना चाहिए क्योंकि क्रो एवं क्रो का कथन है कि व्यक्ति के असमायोजन में समकालीन सामाजिक परिस्थिति तथा राजनैतिक वातावरण भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः सफल निर्देशन के लिए निर्देशक को इन सभी की पर्याप्त जानकारी होना परम आवश्यक होती है। व्यक्ति की किसी समस्या का निदान खोजते समय अर्थात् निर्देशन सेवा देते समय उन सामाजिक तथा राजनैतिक परिवेश का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए जिनके प्रभाव से व्यक्ति में असमायोजन जैसी स्थिति उत्पन्न हुई है। यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो या तो निर्देशन का लाभ पूर्णता के साथ नहीं मिलेगा या फिर परिणाम या जो भी परिवर्तन आयेगा वह दीर्घकालिक न होकर अल्पकालिक ही होगा।
5. समग्र व्यक्ति पर ध्यान दिया जाये – व्यक्ति की समस्याओं पर विचार करते समय निर्देशनकर्ता को व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व पर ध्यान देना चाहिए। व्यक्ति की समस्याएँ व्यावसायिक, शैक्षिक या व्यक्तिगत किसी भी प्रकार की हो सकती हैं लेकिन इन समस्याओं का सम्बन्ध एक-दूसरे से अवश्य ही होता है। उदाहरण के लिए किसी को व्यावसायिक निर्देशन देते समय उसके व्यक्तित्व स्तर, व्यक्तित्व विकास व अन्य गुणों या उसकी समायोजन सम्बन्धी समस्याओं या समायोजन के स्वरूप का भी ध्यान रखना आवश्यक है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंग रूप में अध्ययन या विश्लेषण नहीं किया जा सकता बल्कि वह तो उसका समग्र या व्यापक स्वरूप होता है। व्यक्तित्व एक संश्लिष्ट इकाई के रूप में क्रियान्वित रहता है। निर्देशक आवश्यकतानुसार उस व्यक्ति की रुचियों व अन्य मानसिक शक्ति, समस्याओं का अध्ययन व विश्लेषण तो अलग-अलग कर सकता है लेकिन निर्देशन प्रक्रिया में उसके समग्र व्यक्तित्व तथा उसकी समस्याओं के अन्तर्सम्बन्ध पर अपना पूर्ण ध्यान रखना होगा, तभी निर्देशन को सफल बनाया जा सकता है। व्यक्तित्व के आंशिक भाग का विश्लेषण निर्देशन को कम प्रभावी कर देता है।
6. निर्देशन कार्यों में समन्वय होना– व्यक्तियों को उपलब्ध करायी जाने वाली निर्देशन सेवाओं का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे कि सभी निर्देशनात्मक प्रयासों (निर्देशन सेवाओं) में समन्वय सहजता से स्थापित किया जा सके। निर्देशन प्रक्रिया में सहभागी प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान तो दे लेकिन उन सभी निर्देशन सेवाओं का आपस में समन्वय अवश्य ही होना चाहिए। इसके लिए दो तथ्य अधिक महत्त्व रखते हैं। एक, तो निर्देशन सेवाओं का संगठन तर्कसंगत आधार पर होना चाहिए तथा दूसरे, विशिष्ट योग्यताओं के अनुरूप अलग-अलग अपनी योग्यताओं व दक्षताओं के आधार पर उन्हें अलग-अलग भूमिकायें देनी चाहिए। यहाँ सभी निर्देशनकर्ताओं में सहयोगात्मक भाव महत्त्व रखता है।
7. दीर्घकालीन प्रक्रिया – निर्देशन आवश्यकतानुसार व्यक्ति मात्र को में उपलब्ध सुगमता होना चाहिए। इसकी आवश्यकता सामान्य व्यक्ति से लेकर किसी विशिष्ट समस्या वाले व्यक्ति तक किसी को भी हो सकती है। निर्देशन प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलने वाली एक लम्बी प्रक्रिया होती है। निर्देशन प्रक्रिया किसी आयु वर्ग तक ही सीमित नहीं होती। इसकी जीवन में कभी भी आवश्यकता पड़ सकती है। जैसा कि सभी को अनुभव होता है कि व्यक्ति के जीवन में समस्याएँ कभी भी उत्पन्न हो सकती हैं और उस व्यक्ति को समस्या समाधान हेतु सहयोग की अर्थात् निर्देशन की कभी भी आवश्यकता पड़ सकती है। व्यक्ति के जीवन में उत्पन्न होने वाली ये समस्याएँ कभी-कभी ऐसी भी होती हैं कि जिनका समाधान तुरन्त नहीं किया जा सकता बल्कि कुछ समय तक प्रतीक्षा भी करनी पड़ सकती है। निर्देशन में समझ-बूझ या अन्तर्दृष्टि भी एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है और उचित भी यही होता है कि जीवन में कोई भी निर्णय जल्दबाजी में न लेकर पूरी सूझ-बूझ या समझदारी से ही लेना चाहिए। निर्देशक को भी निर्देशन में पर्याप्त समय लेना चाहिए जिससे कि निर्देशन सार्थक रूप में प्रभावी हो सके। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि विशिष्ट समस्या के समाधान होने में अथवा समाधान हो जाने के पश्चात् भी कुछ छोटी-मोटी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं, तब पुनः निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। अतः निर्देशन जीवन पर्यन्त चलने वाली लम्बी प्रक्रिया होती है।
8. व्यक्ति की प्रतिष्ठा व महत्त्व को स्वीकारना – निर्देशन देते समय व्यक्ति की प्रतिष्ठा तथा उसके महत्त्व का भी निर्देशन को पूरा ध्यान रखना चाहिए। निर्देशन का लक्ष्य उस व्यक्ति को उसकी शक्तियों व क्षमताओं और अन्य सम्भावनाओं को पूर्ण विकास तक पहुँचाना भी होता है। अतः निर्देशन की सफलता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के महत्त्व तथा उसकी मान-प्रतिष्ठा को पर्याप्त महत्त्व दिया जाना चाहिए। तत्पश्चात् ही निर्देशन का वास्तविक उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा। समाज में सामान्य व्यक्ति के जीवन में प्रगति तथा उसकी विभिन्न समस्याओं के समाधान में निर्देशन का उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान होता है जितना विशेष समस्या वाले व्यक्ति के लिए निर्देशन आवश्यक होता है।
9. गतिशीलता का होना– व्यक्ति के जीवन में समस्याओं का जन्म उसके वातावरण या परिवेश से होता है अथवा यह कहा जाये कि समस्याओं के उत्पन्न होने में उसके वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस वातावरण में परिवर्तन होने से समस्या के स्वरूप में भी कम या अधिक परिवर्तन आ जाता है। अतः इस समस्या समाधान के लिए जो भी निर्देशन हो उसमें भी लचीलेपन का स्वभाव अवश्य ही होना चाहिए। प्रयुक्त किये जाने वाले निर्देशन का स्वरूप रूढ़िवादिता पर आधारित न होकर लचीलेपन के स्वभाव का होना चाहिए जिससे समस्या में परिवर्तन के अनुसार निर्देशन में परिवर्तन लाया जा सके।
निर्देशन-सेवा हो या कोई अन्य कार्य-कलाप, उसका सफल होना कुछ मूलभूत मान्यताओं या सिद्धान्तों पर आधारित होता है। अतः आशा की जाती है कि सफल सम्पादन के लिए इन सिद्धान्तों की निर्देशन-सेवा देने वाले निर्देशनकर्त्ता को भली-भाँति अधिकतम जानकारी होनी चाहिए।
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