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बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य ( Aims of Buddhist education )
बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य– बौद्धाकलीन शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य थे –
1. धार्मिकता का विकास- बौद्ध मत के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के बिना दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता। निर्वाण धर्म एवं ज्ञान से प्राप्त होता था। अतएव शिक्षा में धार्मिकता को महत्व दिया गया। बौद्ध शिक्षा संघों में दी जाती थी। श्रमणों का शिक्षा देने में विशेष योगदान था। संघों का वातावरण धर्ममय था और श्रमण का जीवन आर्दश धार्मिक जीवन कहा जा सकता है। संघ एवं श्रमिणों के प्रभाव के कारण शिक्षा धर्म प्रधान रही जिससे शिक्षार्थी में धार्मिकता का विकास होता था।
2. चरित्र निर्माण पर बल- महात्मा बुद्ध ने सदाचार पर बल दिया। अतएव बौद्ध शिक्षा प्रणाली में सात्विक जीवन एवं शुद्ध विचार छात्र जीवन का आदर्श था। प्राचीनकाल की भाँति इस काल में भी ब्रम्हचर्य का विद्यार्थी जीवन में बहुत महत्व था। अध्यापक अपने चरित्र द्वारा सच्चरित्रता का आदर्श विद्यार्थियों के सामने रखते थे। संघों को प्रायः उन सभी वस्तुओं को मुक्त रखा जाता था जिनका प्रभाव चरित्र निर्माण पर प्रतिकूल पड़े। सात्विक भोजन तथा सात्विक वस्त्रों का प्रयोग एवं उत्तेजक पदार्थों का त्याग अध्यापक व विद्यार्थी दोनों के लिए आवश्यक था। नियमों के पालन में त्रुटि होने पर प्रायश्चित करना पड़ता था।
3. व्यक्तित्व का विकास- आत्मसम्मान, आत्मविश्वास एवं आत्मनियंत्रण के भाव विद्यार्थी में उत्पन्न किये जाते थे। नम्रता, शालीनता एवं शिष्टाचार का महत्व था। आत्मविश्वास उत्पन्न करने के लिए प्रतियोगिताएँ एवं शास्त्रार्थ का आयोजन किया जाता था। आत्मनियंत्रण के लिए सम्यक आहार विहार पर जोर दिया जाता था।
4. सामाजिक कर्तव्यों पर बल- यद्यपि इस काल में जीवन का प्रमुख लक्ष्य निर्वाण था। फिर भी सामाजिक जीवन की उपेक्षा नहीं की गयी थी। बौद्ध धर्म में सबसे अधिक बल करूणा और दया पर किया गया है। बिना करूणा भाव के एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के दुःखों को नहीं समझ सकता और बिना दया किये एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के दुःख को दूर नहीं कर सकता और जब तक कि सब मनुष्य एक दूसरे के दुःखों को दूर नहीं करते, संसार के दुःखों से बचा नहीं जा सकता।
बौद्ध शिक्षा में अनेक उपदेश यथा सत्य बोलना, माता पिता की आज्ञा का पालन, ईमानदारी, चोरी न करना आदि परोक्ष रूप से सामाजिक कर्तव्यों पर ही जोर देते हैं।
5. कला कौशल एवं व्यवसायों की शिक्षा- बौद्धकालीन शिक्षा का उद्देश्य व्यवसायिक – कुशलता का उन्नयन एवं कला कौशल का विकास करना था। बौद्ध काल तक हमारे देश में कृषि, कला- कौशल और वाणिज्य के क्षेत्र में काफी प्रगति हो चुकी थी। अतः बौद्ध मतों एवं विहारों में इनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था की गई। व्यवसाय की शिक्षा छात्रों की योग्यता और क्षमता के आधार पर दी जाती थी जिसके कारण इस काल में कला-कौशल एवं व्यवसायों की पर्याप्त उन्नति हुई।
6. राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं विकास- राष्ट्र की संस्कृति का संरक्षण, विकास – एवं प्रसार भी बौद्ध शिक्षा का उद्देश्य था। बौद्ध मठों एवं विहारों में बौद्ध धर्म एवं दर्शन के साथ साथ अन्य धर्मों, दर्शनों और संस्कृतियों की व्यवस्था थी। उस काल में सैकड़ों विद्वान प्राचीन साहित्य के संरक्षण और नवीन साहित्य के निर्माण कार्य में लगे हुए थे। ये प्राचीन ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करते थे और विभिन्न भाषाओं में उनका अनुवाद करते थे। इनके साथ ही विद्वान मौलिक साहित्य का सृजन भी करते थे। बौद्ध भिक्षु अपने देश में चारों ओर बौद्ध धर्म एवं संस्कृति का प्रचार करने के साथ विदेशों में भी भारतीय संस्कृति और बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए जाते थे।
बौद्धकालीन शिक्षा में गुरू-शिष्य सम्बन्ध
बौद्ध काल में गुरू शिष्य का सम्बन्ध -वैदिक काल की ही भाँति पवित्र, मधुर तथा स्नेहपूर्ण था। गुरू शिष्यों को पुत्रवत मानते थे और शिष्य गुरू को पिता तुल्य मानते थे। उस समय गुरू प्रायः मठों और विहारों के प्रशासन व शैक्षणिक कार्य की व्यवस्था देखते थे और शिष्य उनके आदेशानुसार विभिन्न कार्यों का सम्पादन करते थे। यहाँ बौद्धकालीन गुरूओं के शिष्यों के प्रति और शिष्यों के गुरूओं के प्रति उत्तरदायित्व एवं कार्यों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत करते थे।
गुरूओं के शिष्य के प्रति उत्तरदायित्व- बौद्धकाल में गुरू शिष्य के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व का निर्वाह करते थे।
1. शिष्यों के आवास एवं भोजन की व्यवस्था करना,
2. शिष्यों के स्वास्थ्य की देखभाल करना, उनके अस्वस्थ होने पर उपचार की व्यवस्था करना,
3. शिष्यों को पालि भाषा में बौद्ध धर्म का ज्ञान कराना,
4. शिष्यों को उनकी योग्यता व क्षमतानुसार विशिष्ट ज्ञान कराना,
5. शिष्यों को करने योग्य कर्मों की शिक्षा देना, उन्हें न करने योग्य कर्मों से रोकना,
6. शिष्यों के आचरण पर दृष्टि रखना, उनका चरित्र निर्माण करना,
7. शिष्यों को निर्वाण प्राप्ति का मार्ग दिखाना,
शिष्यों के गुरुओं के प्रति कर्तव्य
बौद्ध काल में शिष्य गुरूओं के प्रति निम्नलिखित कर्तव्यों का निर्वाह करते थे-
1. गुरूओं के अपनी शैया त्यागने से पहले अपनी शैय्या त्यागना, गुरूओं के लिए दातून व स्नानादि की व्यवस्था करना।
2. मठों एवं विहारों की व्यवस्था में गुरूओं का सहयोग करना। उनके आदेशानुसार कार्यो का सम्पादन करना।
3. मठ एवं विहार निवासियों के लिए गुरू के साथ भिक्षा माँगने जाना।
4. गुरूओं की अन्य सभी प्रकार की सेवा करना।
5. गुरूओं के आचरण पर दृष्टि रखना। उनके करने पर शेष को सूचित करना।
बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था
आर० के० मुकर्जी ने बौद्ध शिक्षा प्रणाली पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि बौद्ध शिक्षा प्रणाली प्रायः बौद्ध संघ की पद्धति है। जिस प्रकार वैदिक युग में यज्ञ संस्कृत के केन्द्र थे उसी प्रकार बौद्ध युग में ‘संघ’ शिक्षा के केन्द्र थे। बौद्ध संसार में अपने संघों से पृथक या स्वतन्त्र रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। सब प्रकार की शिक्षा धार्मिक एवं बौद्धिक श्रमणों के हाथ में थी। उसका विद्या एवं उसके प्रसार के अवसर पर एकाधिकार था।
बौद्ध काल की शिक्षा व्यवस्था दो स्तरों पर विभाजित थी-
(क) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा (ख) उच्च शिक्षा
(अ) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था – बौद्धकालीन प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का ज्ञान जातक कथाओं से प्राप्त होता है। इस शिक्षा के केन्द्र बौद्ध मठ थे। प्रारम्भ में प्राथमिक शिक्षा का स्वरूप धार्मिक था। लेकिन आगे चलकर इसमें लौकिक शिक्षा का भी समावेश हो गया। बात यह थी कि ब्राह्मणों द्वारा चलायी गयी प्रतिद्वन्द्वी शिक्षा संस्थाओं में इन – दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की गयी। इसलिए उक्त शिक्षा का लाभ लेने के लिए बौद्धकालीन शिक्षा में भी दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की गयी। ऐसा करने से शिक्षा पर से ब्राह्मणों का एकाधिकार समाप्त हो गया। फाह्यान (399-444) ई0 में जब भारत आया था उस समय बौद्ध मठों में था। बौद्ध संघों में सम्मिलित होने वालों की शिक्षा के साथ साथ सामान्य शिक्षा की भी सुन्दर व्यवस्था की गयी थी।
(ब) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा- का पाठयक्रम 7 वीं शताब्दी में ह्वेनसांग और आइत्सिंग भारत आये। उन्होंने बौद्धकाल की सार्वजनिक शिक्षा के स्वरूप का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उनके अनुसार बौद्धकालीन प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ करने की व्यवस्था थी। छात्रों को 6 महीने तक ‘सिद्धरस्त’ नाम की बाल पोथी को समाप्त करने के बाद निम्नलिखित 5 विद्याओं का अध्ययन करना पड़ता था।
अशब्द विद्या, ब – शिल्प ज्ञान विद्या, स चिकित्सा विद्या, द हेतु विद्या, य-आध्यात्मिक विद्या।
उक्त कथन से स्पष्ट है कि बौद्ध मठों में विद्यालयों को धार्मिक, लौकिक, व्यवहारिक तथा दार्शनिक ज्ञान प्रदान किया जाता था। प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार बौद्ध भिक्षुओं तथा सामान्य गृहस्थ एवं बौद्ध धर्म मानने वालों को भी था। यही कारण है कि उस शिक्षा को सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा कहा गया है। वैदिक कालीन शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी लेकिन बौद्धकालीन शिक्षा का माध्यम सर्वसाधारण की भाषा अर्थात पालि भाषा थी।
(ख) उच्च शिक्षा की व्यवस्था
(अ) – उच्च शिक्षा की रूपरेखा और पाठयक्रम- सार्वजनिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त उच्च शिक्षा प्राप्त करने की भी व्यवस्था थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार केवल बौद्ध भिक्षुओं को था। यह शिक्षा भी मठों में दी जाती थी। सामान्य विषयों का अध्ययन करने के साथ ही साथ कोई विशेष योग्यता प्राप्त करनी होती थी। बालक सबसे पहले व्याकरण, धर्म, ज्योतिष, औषधिशास्त्र, दर्शन इत्यादि से सामान्य ज्ञान प्राप्त करते थे तथा इसके पश्चात किसी एक विषय में विशेष योग्यता प्राप्त करते थे। ह्वेनसांग के अनुसार उच्च शिक्षा में सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक दोनों ही पक्षों पर ध्यान दिया जाता था।
(ब) – उच्च शिक्षा के केन्द्र तथा उनकी ख्याति – बौद्ध – काल में निम्नलिखित शिक्षा केन्द्र अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे
1- नालन्दा विश्वविद्यालय, 2- तक्षशिला, 3- विक्रम शिला, 4-ओदन्तपुरी, 5- बल्लभी, 6- नदिया, 7- अमरावती, 8-सारनाथ और जगद्दला ।
उक्त शिक्षा-संस्थाओं का संचालन जनतान्त्रिक ढंग से होता था। इसका प्रधान शिक्षक होता था जो कि विद्यालय का संचालन करता था। प्रधान की अधीनता में विभिन्न विषयों के उपाध्यक्ष (शिक्षक) होते थे। इन विद्यालयों के खर्च के लिए बड़े-बड़े राजाओं तथा महाराजाओं से पर्याप्त सहायता प्राप्त होती थी। इसी धन से ये विद्यालय चलते थे। इन विद्यालयों पर किसी ब्रह्मशक्ति का हस्तक्षेप नहीं होता था।
सभी केन्द्र अपनी शिक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे। अन्य देशों में लोग आदर के साथ इन विद्यालयों का गुणगान करते थे। यही कारण है कि इन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत के साथ साथ अन्य देशों के छात्र भी अध्ययन करने के लिए आते थे। डा० अल्तेकर ने लिखा है कि “मठों में जहाँ विद्यार्थी उच्च शिक्षा का अध्ययन करने के लिए कोरिया, चीन, तिब्बत एवं जावा ऐसे सुदूर देशों से आकर्षित होते थे, उससे भारत की अन्तराष्ट्रीय ख्याति को काफी ऊँचाई मिली।
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